* घूंघट की दीवारों में !*
क्यों कैद किया औरत को ?
घूंघट की दीवारों में ,
घुटती है ; सिसकती है ,
घूंघट की दीवारों में !
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कुछ कर के दिखाने की ;
उसकी भी तमन्ना थी ,
दम तोड़ रही हर चाहत ;
घूंघट की दीवारों में !
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मुरझाया सा दिल लेकर ;
दिन-रात भटकती है ,
हाय कितना अँधेरा है !
घूंघट की दीवारों में !
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घूंघट जो उठाया तो ;
बदनाम न हो जाये ,
डर-डर के रोज़ मरती है ;
घूंघट की दीवारों में !
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क्या फूंकना औरत को ;
मरघट पे है ले जाकर ,
जल-जल के खाक होती है ;
घूंघट की दीवारों में !
शिखा कौशिक 'नूतन'
7 टिप्पणियां:
very nice post .thanks
very nice post .thanks
सटीक और सार्थक पोस्ट
सूर्य पर्व -मकर संक्रांति
संत -नेता उवाच !
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-01-2015) को "सियासत क्यों जीती?" (चर्चा - 1862) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
सही ---पर आजकल घूंघट कौन कर रहा है ..
घूंघट कपड़ों का नहीं आँखों में शर्म सका होना चाहिए
http://savanxxx.blogspot.in
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