नारी और मुक्ति
नारी विमर्श व्याख्यान माला गोष्ठी
प्रारम्भ होने में अभी कुछ समय था | पधारे हुए सभी विज्ञजन विचार विमर्श करने लगे |
पांडेजी ने अभी हाल में ही पढ़ी हुई उर्वशी-पुरुरवा की कथा पर अत्यंत तार्किकता व सतर्कता
से सौन्दर्यपूर्ण समीक्षा करते हुए अंत में कहा, ’उर्वशी पुरुरवा के लिए वरदान है’
|
‘हाँ, निश्चय ही, क्योंकि नारी, पुरुष का
मुक्ति-पथ है, मुक्ति-सेतु है |’ ड़ा शर्मा बोले |
‘और नारी की मुक्ति ?’ युवा लेखक राघव ने प्रश्न उठाया |
‘पथ
की भी कभी मुक्ति होती है ! वह तो सदा मुक्ति हेतु पथ-दीप का कार्य करता है | स्त्री
तो स्वयं ही पथ है मुक्ति का, इस पथ पर चले बिना कौन मुक्त होता है | संसार के
हितार्थ कुछ तत्व कभी मुक्त नहीं होते मूलतः प्रकृति-तत्व, अन्यथा संसार कैसे
चलेगा |’ ड़ा शर्मा ने अपना पक्ष रखा |
‘अर्थात आपका कथन है कि नारी की मुक्ति
होती ही नहीं कभी | अमित जी ने हैरानी से पूछा,’ यह तो बड़ा अन्याय हुआ नारी के साथ
|’
नारी प्रकृति है, माया है | स्त्री
द्विविधा भाव है | वही मोक्ष से रोकती भी है अर्थात संसारी भाव में जीव अर्थात
पुरुष का जीना हराम भी करती है और और वही मोक्ष का द्वार भी है जीना आरामदायक भी
करती है | काली के रूप में शिव को शव बनादेती है, सती के रूप में शिव को उन्मत्त
करती है तो पार्वती बन कर शिव को
चन्द्रचूड बना देती है और तुलसी को तुलसीदास | नारी को गौ रूप कहा जाता है अर्थात
वह प्रकृति में पृथ्वी है, गाय है, इन्द्रिय है, संसार हेतु अविद्या है तो तत्व
रूप में विद्या, ज्ञान व बुद्धि | बंधन में तो पुरुष अर्थात जीव रूप में ब्रह्म या
पुरुष रहता है| उसी को मुक्त होना होता है | नारी, प्रकृति, माया तो बद्ध-पुरुष को
मुक्ति के पथ पर लेजाती है| ड़ा. शर्माजी ने स्पष्ट किया | तभी तो ईशोपनिषद में
मोक्ष मन्त्र कहा गया है.......
”
विद्या चा विद्या यस्तत वेदोभय स:
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृमनुश्ते ||”
‘तो फिर नारी के जीवन का उद्देश्य ही क्या
रह जाता है | जब मुक्ति ही नहीं ?’ राघव ने पुनः प्रश्न उठाया |
‘नारी की मुक्ति पुरुष से जुडी है | यदि
नारी पुरुष को मुक्ति की ओर लेजाती है | वह पुरुष को मुक्ति-पथ पर चलने को तैयार
कर पाती है अपने प्रेम, तप, साधना, त्याग से तो वह अनाचारी, अत्याचारी, समाज एवं
नारी पर भी अत्याचार का कारण नहीं बनेगा | समाज सम व द्वंद्वों से रहित रहेगा |
क्योंकि मूलतः द्वंद्वों का कारण पुरुष ही होता है जो माया-बद्ध जीव है माया से
भ्रमित | मेरे विचार से यही नारी की मुक्ति है |’ ड़ा शर्मा कहने लगे |
‘आखिर यह मुक्ति है क्या ?’ अमित जी कहने लगे, ‘
जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होना या सांसारिक बंधन से मुक्ति ...या संसार से ?’
‘और ये बंधन क्या है/ ड़ा शर्मा ने
प्रति-प्रश्न किया, पुनः स्वयं ही कहने लगे,’ द्वेष, द्वंद्व, झगड़े, लाभ-हानि,
लोभ-लालच में लिप्तता ही बंधन है | यदि नारी पुरुष को सहज रखने में सफल रहती है तो
सारा समाज ही सहज रहता है | यही नारी का नारीत्व है और यही उसकी मुक्ति | पुरुष भी
नारी को पूर्णता प्रदान कर उसे मुक्ति-पथ की ओर लेजाता है | अंत में मुक्ति तो जीव
–तत्व की ही होती है वह न पुरुष होता है न स्त्री वह तो आत्म तत्व है | तभी तो कहा
जाता है...
’देहरी
लौं संग बरी नारि और आगे हंस अकेला |’
‘पर जीव तो नारी भी है , फिर वह मुक्त
क्यों नहीं हो सकती ?’ पांडे जी ने पूछा |
वास्तव
में तत्व व्याख्या में नारी जीव नहीं है | वह तो शक्ति का रूपांतरण है | अतः नारी
तो सदा मुक्त है | वह बंधन में होती ही कब है | वह तो स्वयं बंधन है | जीव, पुरुष
रूपी ब्रह्म को बांधने वाली | पुरुष ही बंधन में होता है | ब्रह्म पुरुष रूप में,
जीव रूप में आकर स्वयं ही माया-बंधन में बंधता है ताकि संसार का क्रम चलता रहे | नारी
तो स्वयं ही माया है, प्रकृति है | पुरुष –ब्रह्म को बाँध कर नचाने वाली| यद्यपि
माया स्वयं ब्रह्म की इच्छा पर ही कार्य करती है स्वतंत्र रूप से नहीं क्योंकि वह
उसी का अंश है.......
“ ब्रह्म की इच्छा माया नाचे जीवन
जगत सजाये |
जीव रूप जब बने ब्रह्म फिर माया उसे नचाये |”
‘यह तो
विचित्र सा तर्क लगता है |’ राघव ने कहा |
‘हाँ, तभी
तो पाश्चात्य जगत में एक समय ‘नारी जीव है भी या नहीं’ का प्रश्न उपस्थित
था अपितु नारी को मानवी माने जाने में भी संदेह था | यह बड़ा ही क्रूड व
क्रूर ढंग है वस्तुस्थिति को प्रकट करने का जो अति-भौतिकतावादी सभ्यता के अनुरूप
ही हो सकता है | भारतीय सनातन सभ्यता , ब्राह्मण, जैन आदि में भी नारी को मुक्ति
या मोक्ष का अधिकारी नहीं माना जाता रहा है परन्तु उसे मोक्ष के पथ पर लेजाने बाला
माना जाता रहा है | इसीलिये उसे नर का, पुरुष का, ब्रह्म-जीव का बंधन कहा गया | यह
कथन का तात्विक व सात्विक रूप है |’ ड़ा शर्मा जी ने बताया |
‘और ये
अवतारों को क्या कहेंगे आप, हमारे यहाँ सारे अवतारों के साथ सदा नारी भी होती है
या कोई भी शक्ति अवश्य अवतार लेती है जिनकी सहायता की अवश्य ही आवश्यकता पडती है
इन अवतारों को; उसका क्या उत्तर देंगें आप ?’ सुषमा जी पूछने लगीं |
‘आपने
बड़ी देर में भाग लेने का कष्ट किया बातचीत में’, ड़ा शर्मा हंसते हुए बोले ,’एक
विचार भाव से वैज्ञानिक-अध्यात्म के अनुसार तो ये अवतार, चाहे सत्य हों या
कल्पित.... जीवन व प्राणी की क्रमिक विकास यात्रा प्रतीत होते हैं....मत्स्य से
जीवन की उत्पत्ति, जल से पृथ्वी पर आना, लघु मानव—मानव तक की उत्पत्ति, शारीरिक
शक्ति-धनु, परशु, गदा आदि विविध हथियार,..
मानसिक शक्ति..तप, त्याग, मर्यादा व प्रकृति रूप के समन्वयक राम और शक्ति, ज्ञान,
व्यवहार के समन्वयक कृष्ण तक| आगे अभी भविष्य के गर्भ में है |’ ये मानव व्यवहार
की युग-संधियां भी कही जा सकती हैं|
‘आप सही कह
रही हैं सुषमा जी, सभी के साथ उनकी मूल शक्ति रूप में या नारी-पत्नी रूप में
प्रकृति या माया अवश्य अवतार लेती है..जन्म लेती है | जैसे ही बद्ध-जीव या अवतार
का पृथ्वी-संसार पर कार्य समाप्त होजाता है वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है,
उसकी शक्तियां, माया, प्रकृतिरूपा शक्ति-अवतार भी उससे पहले या बाद में जगत से
प्रस्थान कर जाती हैं | इसीलिये तो हमारे यहाँ शक्ति-रूपा पत्नी सदैव पति से पहले
मृत्यु की कामना करती है ताकि गोलोक में जाकर वहाँ की व्यवस्था भी संभाली जाय अपनी
स्वेच्छा से भी और आशीर्वाद भी “सदा सुहागन रहो” का दिया जाता है | ड़ा
शर्मा हंस कर कहने लगे |’ ....‘और सती प्रथा जैसी कुप्रथा शायद भी इस तात्विक बात
का अर्थ-अनर्थ करने से उत्पन्न हुई |’ उन्होंने पुनः कहा |
‘परन्तु
अवतार तो सर्व-समर्थ होते हैं, ब्रह्म रूप, ईश्वर का अवतार ; तो फिर शक्तियों को,
प्रकृति को साथ आने की क्या आवश्यकता ?’ राघव ने तर्क किया |
पुरुष या
ब्रह्म या ईश्वर स्वयं अकेला कहाँ कार्य कर पाता है, वह तो अकर्मा है कार्य तो
प्रकृति ही करती है | अवतार भी प्रकृति, शक्ति, योगमाया द्वारा ही कार्य कराते हैं
| ड़ा शर्मा बोले |
‘तो फिर
प्रकृति ही सब कुछ हुई, और स्त्री भी ...फिर पुरुष, ईश्वर, ब्रह्म, अवतार की क्या
आवश्यकता है यदि हैं और यदि कल्पित हैं तो भी इनकी परिकल्पना की क्या आवश्यकता है
|’ पांडे जी ने तर्क दिया |
‘परन्तु शक्ति
स्वेच्छा से कहाँ कार्य करती है | वह तो पुरुष या ब्रह्म की इच्छानुसार ही
क्रियाशील होती है | “एकोहं बहुस्याम “ की ईषत इच्छा से ही तो
प्रकृति चेतन होकर संसार रचती है| अर्थात...ब्रह्म –प्रकृति, नर-नारी, दोनों ही
आवश्यक हैं सृष्टि हेतु, संसार के लिए, संसार के सहज सामंजस्य के लिए| यदि संसार
के इस द्वैत, द्विविधा भाव के तात्विक ज्ञान को सभी स्त्री-पुरुष समझ कर जीवन में
उतारें यथानुसार कार्य करें तो समाज-संसार में द्वंद्वों का प्रश्न ही खडा नहीं
होगा |’
‘तो फिर
संसार कैसे चलेगा, क्यों रचा जायेगा, क्यों बनेगा ? किस लिए, किसके लिए ?’ प्रश्न
उठाया गया |
‘तभी तो
दोनों अलग अलग जन्म लेते हैं, आकर्षण-विकर्षण के चलते मिलते हैं..प्रेमी-प्रेमिका,
पति-पत्नी बनते हैं...संसार-चक्र बनता व चलता है| एक दूसरे को मुक्ति पथ पर लेजाते
हैं| तभी तो कहा गया है कि नारी के बिना मुक्ति नहीं, बिना संसार को जाने मुक्ति
कैसी, बिना संसार रूपी वैतरिणी पार किये कहाँ मोक्ष और उसके लिए गाय की पूंछ
अर्थात पृथ्वी का, प्रकृति का, नारी का, ज्ञान-बुद्धि का पल्लू पकडना अत्यावश्यक
है |’ ड़ा शर्मा कहते गए |
“उर्वशी
कहती है कि तुम सौ वर्ष तक भी प्रेम करते रहो तो भी नारी प्रेम नहीं करेगी, स्त्रियाँ
निर्मोही होती हैं |” पांडेजी हंसते हुए कहने लगे |
‘ वैसे तो
यह स्वर्ग की अर्थात सिद्धि-प्रसिद्धि के शिखर की बात है, जहां ममता-मोह-बंधन आदि
नहीं होते परन्तु संसार में, पृथ्वी पर नारी प्रेम का प्रतीक है| तभी तो उर्वशी
भूलोक पर आती है परन्तु भूलोक की नारी का पूर्ण धर्म नहीं निभा पाती| प्रकृति व
माया की भांति नारी भी शक्ति है, ऊर्जा है ...पावर है, और शक्ति निर्मोही होती है
उसके साथ नाजायज़ छेड़खानी से धक्का, शाक अर्थात करेंट लगने का सदैव अंदेशा रहता है|
नर को भी समाज को भी, और परिणाम ..पंगु होजाना ..नर का भी, समाज का
भी....सावधान..’ कहते हुए ड़ा शर्मा
मुस्कुराये |
‘बडी देर
से नारी-निंदा पुराण कहा-सुना जारहा है |’, अमृता जी जो बड़ी देर से सोफे पर बैठी
हुईं सब सुन रहीं थीं, बोलीं |
‘ निंदा या
प्रशंसा-स्तुति, पांडे जी बोले, ’ फिर,यह तो हम पुरुषों के मंतव्य हैं | आप लोग
अपने मंतव्य प्रस्तुत करें |’
सुना नहीं
है, अमृता जी बोलीं.....
“ नारी निंदा मत करो, नारी नर की खान |
नारी से नर होत हैं, ध्रुव, प्रहलाद समान ||”
बिलकुल सत्य
है अमृता जी, ड़ा शर्मा कहने लगे, पर इसके लिए नारी को ध्रुव, प्रहलाद की माँ के समान भी तो होना
पडेगा |’