सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

नायिका ....लघु कथा.....डा श्याम गुप्त ..



                        नायिका
     अरे ! बहुत दिन बाद मिले हो शांतनु ! बताओ क्या नया लिखा है, एल्यूमिनी असोसिएशन की पार्टी में मिलने पर सरिता ने पूछ लिया |
     एक नया उपन्यास...’तेरे नाम’ | शांतनु ने बताया |
     ये मेरे ऊपर उपन्यास लिखने का क्या अर्थ |
     पागल हो, आपके ऊपर क्यों लिखूंगा, सरिता जी |
     क्यों, क्या अब हम उपन्यास की नायिका के भी लायक नहीं रहे |
     नहीं, ऐसी बात नहीं है |
     तो कैसी बात है ?
     शांतनु को जबाव नहीं सूझा तो सरिता हंसने लगी, फिर बोली- “वह तेज-तर्रार शांतनु कहाँ गया?’
     अब क्या कहूं, सरिता जी |
     ये ‘सरिता जी’ क्या होता है | अरे, क्या इतने औपचारिक होगये हैं अब हम | फिर मुस्कुराकर पूछने लगी- मेरी बहस व तर्क का स्तर तुम्हारे बराबर आया ?
    बहुत ऊपर हुज़ूर, शांतनु ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्पण की मुद्रा में उत्तर दिया |
    ठीक, अब स्वीकार करो और कहो कि ये उपन्यास मैंने तेरे ऊपर ही लिखा है सरू |
    चलो स्वीकार किया, हाँ सच है |
    नहीं, पूरा वाक्य कहो |
    तुम्हारे पतिदेव सुनकर नाराज़ होगये तो|
    अब मार खाने का इरादा है क्या ! जाऊं, पूछ कर आऊँ, सुरेश से ?
    अच्छा माफ़ करो बावा, कान पकड़ता हूँ |
    तो कहो |
    हाँ सच है ये उपन्यास तेरे ऊपर ही है, सरू |
    या हमारे ऊपर ?
    एक ही बात है, शांतनु ने कहा |
   अच्छा बताओ, क्या तुम इसीलिये इतने औपचारिक होते जारहे हो कि मैंने तुम्हें नहीं सुरेश को चुना|
   नहीं भाई |
  अच्छा बताओ, क्या तुम्हें बुरा नहीं लगा था |
  इसका क्या जबाव हो सकता है, सरिता !...और क्या तुम जानती नहीं हो? शांतनु ने प्रतिप्रश्न किया,    और अब क्यों पूछ रही हो? .........       
          क्यों न पूछा कि क्यों मेरे आंसू निकले |
          तेरे कूचे से होकर जब बेआबरू निकले |

     अच्छा ये नहीं पूछोगे कि मैंने सुरेश को क्यों चुना | सरिता कहने लगी |
     “वेवकूफी की बात को क्या पूछना |”
     वाह ! क्या बात है, क्या उत्तर है, यही तो...यही तो.... मैं चाहती हूँ कि वही पुराना वाला शांतनु दिखाई दे |
     मैं तो वही हूँ, शांतनु बोला |
     हाँ, हाँ ..परन्तु मेरे सामने तुम शांत व गंभीर क्यों हो जाते हो ?
     मेरा नाम ही शांतनु है |
     हाँ ठीक, परन्तु मुझे वही तेज-तर्रार, हर बात पर तर्क-वितर्क करता हुआ शांतनु चाहिए अन्यथा मुझे दुःख होगा, मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगी| क्या तुम चाहते हो कि सरू सदा आत्मग्लानि में जीती रहे | सरिता बोलती गयी |
    नहीं, यह नहीं होना चाहिए | शांतनु ने कहा तो सरिता कहने लगी ..अच्छा तो कहो कि मेरे सामने  या पीछे, कभी भी तुम नाखुश नहीं रहोगे, सदा खुश-खुश रहोगे |
   ‘अच्छा..अच्छा..’ शांतनु हंसने लगा ---
          दर्द देकर वो कहें आंसू बहाते क्यों हो |
          वो न समझेंगे अश्क पीने की क्या जरूरत है | 

      हंसी सुनकर, अन्य दोस्तों को छोड़कर सुरेश दोनों के नज़दीक आते हुए बोला,’ क्या गुप-चुप हंसी की बातें हो रही हैं, पुरानी मुलाकातें, हमें भी बताओ” ----- शांतनु ने कहा ....

             मुफलिसी की दास्ताँ हैं क्या कहें हम, क्या बताएं ,
             दास्ताँ तो आपकी है दोस्त,  हम क्या सुनाएँ |

ये बात, सुरेश बोला, लो झेलो------

                  इक बोझ को ठेलकर, मेरे ऊपर,
                  वो कहते हैं कि दोस्ती निभाई है |
                  ये किस जन्म का वैर निभाया है तूने,
                  या हमने ही दुश्मन से दोस्ती सजाई है |

      अच्छा तो अब हम बोझ हुए,  सरिता बोली |
      मैंने नहीं कहा, शान्तनु जल्दी से बोला |
      अबे, लदा मेरे ऊपर है, उठा पाया नहीं, तू कैसे कहेगा |
      अच्छा सुनो, सरिता अचानक बोली, देखो, शांतनु ने मेरे लिए उपन्यास लिखा है..’तेरे नाम’ उसकी नायिका मैं हूँ |
      और बेचारा कर ही क्या सकता है अब’, सुरेश ने कहा तो दोनों हंसने लगे |
      चलो-चलो डिनर लग गया है, सरिता जाते हुए बोली |



 


 



3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

कहानी भावपूर्ण प्रेम अपूर्ण कभी-कभी प्रेम एक तरफा भी होता हैं।

Shikha Kaushik ने कहा…

nice

डा श्याम गुप्त ने कहा…

सही कहा सावन कुमार ...धन्यवाद शिखाजी...