नायिका
अरे
! बहुत दिन बाद मिले हो शांतनु ! बताओ क्या नया लिखा है, एल्यूमिनी असोसिएशन की
पार्टी में मिलने पर सरिता ने पूछ लिया |
एक
नया उपन्यास...’तेरे नाम’ | शांतनु ने बताया |
ये
मेरे ऊपर उपन्यास लिखने का क्या अर्थ |
पागल
हो, आपके ऊपर क्यों लिखूंगा, सरिता जी |
क्यों,
क्या अब हम उपन्यास की नायिका के भी लायक नहीं रहे |
नहीं,
ऐसी बात नहीं है |
तो कैसी बात है ?
शांतनु को जबाव नहीं सूझा तो सरिता हंसने लगी,
फिर बोली- “वह तेज-तर्रार शांतनु कहाँ गया?’
अब
क्या कहूं, सरिता जी |
ये ‘सरिता
जी’ क्या होता है | अरे, क्या इतने औपचारिक होगये हैं अब हम | फिर मुस्कुराकर
पूछने लगी- मेरी बहस व तर्क का स्तर तुम्हारे बराबर आया ?
बहुत
ऊपर हुज़ूर, शांतनु ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्पण की मुद्रा में उत्तर दिया |
ठीक,
अब स्वीकार करो और कहो कि ये उपन्यास मैंने तेरे ऊपर ही लिखा है सरू |
चलो
स्वीकार किया, हाँ सच है |
नहीं,
पूरा वाक्य कहो |
तुम्हारे पतिदेव सुनकर नाराज़ होगये तो|
अब मार खाने का इरादा है क्या ! जाऊं, पूछ कर
आऊँ, सुरेश से ?
अच्छा माफ़ करो बावा, कान पकड़ता हूँ |
तो कहो
|
हाँ
सच है ये उपन्यास तेरे ऊपर ही है, सरू |
या
हमारे ऊपर ?
एक
ही बात है, शांतनु ने कहा |
अच्छा
बताओ, क्या तुम इसीलिये इतने औपचारिक होते जारहे हो कि मैंने तुम्हें नहीं सुरेश
को चुना|
नहीं
भाई |
अच्छा
बताओ, क्या तुम्हें बुरा नहीं लगा था |
इसका
क्या जबाव हो सकता है, सरिता !...और क्या तुम जानती नहीं हो? शांतनु ने प्रतिप्रश्न किया,
और अब क्यों पूछ रही हो? .........
क्यों न पूछा कि क्यों मेरे आंसू निकले |
तेरे कूचे से होकर जब बेआबरू निकले |
अच्छा ये नहीं पूछोगे कि मैंने सुरेश को क्यों चुना | सरिता कहने लगी |
“वेवकूफी की बात को क्या पूछना |”
वाह
! क्या बात है, क्या उत्तर है, यही तो...यही तो.... मैं चाहती हूँ कि वही पुराना
वाला शांतनु दिखाई दे |
मैं
तो वही हूँ, शांतनु बोला |
हाँ,
हाँ ..परन्तु मेरे सामने तुम शांत व गंभीर क्यों हो जाते हो ?
मेरा
नाम ही शांतनु है |
हाँ
ठीक, परन्तु मुझे वही तेज-तर्रार, हर बात पर तर्क-वितर्क करता हुआ शांतनु चाहिए
अन्यथा मुझे दुःख होगा, मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगी| क्या तुम चाहते हो
कि सरू सदा आत्मग्लानि में जीती रहे | सरिता बोलती गयी |
नहीं,
यह नहीं होना चाहिए | शांतनु ने कहा तो सरिता कहने लगी ..अच्छा तो कहो कि मेरे
सामने या पीछे, कभी भी तुम नाखुश नहीं
रहोगे, सदा खुश-खुश रहोगे |
‘अच्छा..अच्छा..’
शांतनु हंसने लगा ---
दर्द देकर वो कहें आंसू बहाते क्यों हो |
वो न समझेंगे अश्क पीने की क्या जरूरत है |
हंसी
सुनकर, अन्य दोस्तों को छोड़कर सुरेश दोनों के नज़दीक आते हुए बोला,’ क्या गुप-चुप हंसी
की बातें हो रही हैं, पुरानी मुलाकातें, हमें भी बताओ” ----- शांतनु ने कहा ....
मुफलिसी की दास्ताँ हैं क्या कहें हम, क्या बताएं ,
दास्ताँ तो आपकी है दोस्त, हम क्या
सुनाएँ |
ये बात, सुरेश बोला, लो झेलो------
इक बोझ को ठेलकर, मेरे ऊपर,
वो कहते हैं कि दोस्ती निभाई
है |
ये किस जन्म का वैर निभाया है
तूने,
या हमने ही दुश्मन से दोस्ती सजाई
है |
अच्छा
तो अब हम बोझ हुए, सरिता बोली |
मैंने
नहीं कहा, शान्तनु जल्दी से बोला |
अबे,
लदा मेरे ऊपर है, उठा पाया नहीं, तू कैसे कहेगा |
अच्छा
सुनो, सरिता अचानक बोली, देखो, शांतनु ने मेरे लिए उपन्यास लिखा है..’तेरे नाम’
उसकी नायिका मैं हूँ |
और
बेचारा कर ही क्या सकता है अब’, सुरेश ने कहा तो दोनों हंसने लगे |
चलो-चलो
डिनर लग गया है, सरिता जाते हुए बोली |
3 टिप्पणियां:
कहानी भावपूर्ण प्रेम अपूर्ण कभी-कभी प्रेम एक तरफा भी होता हैं।
nice
सही कहा सावन कुमार ...धन्यवाद शिखाजी...
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