सोमवार, 11 नवंबर 2013

दो पल-- गीत ...डा श्याम गुप्त .....



    दो पल--

राह में दो पल साथ तुम्हारे,
 बीते उनको ढूढ रहा हूँ |
पल में सारा जीवन जीकर,
 फिर वो जीवन ढूंढ रहा हूँ |

उन दो पल के साथ ने मेरा,
 सारा जीवन बदल दिया था |
नाम पता कुछ पास नहीं पर,
 हर पल तुमको ढूंढ रहा हूँ |

तेरी चपल सुहानी बातें,
 मेरे मन की रीति बन गयीं |
तेरे सुमधुर स्वर की सरगम,
जीवन का संगीत बन गयीं |

तुम दो पल जो साथ चल लिए,
जीवन की इस कठिन डगर में 
मूक साक्षी   बनीं जो   राहें ,
उन राहों को   ढूंढ  रहा हूँ |

पल दो पल में जाने कितनी,
 जीवन-जग की बात होगई  |
हम तो चुप-चुप ही बैठे थे,  
बात बात में बात होगई |

कैसे पहचानूंगा तुमको,
मुलाक़ात यदि कभी होगई |
तिरछी चितवन और तेरा,
 मुस्काता आनन् ढूंढ रहा हूँ |

मेरे गीतों को सुनकर, वो-
तेरा  वंदन  ढूंढ रहा हूँ |
चलते -चलते तेरा वो,
प्यारा अभिनन्दन ढूंढ रहा हूँ |


3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

मेने पहले भी कहां हैं आज फिर कह रहा हूँ। जहां प्रेम(श्रृंगार) पर लिखना जितना कठिन हैं उतना ही सहज भी। श्याम जी इस कला के माहिर न सहीं फिर भी अच्छा लिख रहे हैं....आपको बधाई

डा श्याम गुप्त ने कहा…

---क्या बात है ..सावन कुमार

कभी खुद पे कभी हालात पे हंसना आया,
बात निकली तो मौसमे सावन पे जीना आया|
माहिर कौन हुआ है इस जग में मेरे दोस्त,
सबको अपनी ही रीति-नीति से लिखना आया ||

Unknown ने कहा…

इस शेर के लिए एक बार फिर आपका...आभार