“एम्स मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर दो के पास भीड़ बढ़ी है ये उम्मीदों का स्टेशन है जो रात की नौबत बजते ही रैनबसेरे में बदल जाता है |जबरदस्त जाम के बीच मेरी निगाह एफिसाइड के उस बड़े विज्ञापन बोर्ड पर पड़ती है जिसमे काले गाउन को पहने खुबसूरत माडल के नंगे पैर और उसके क्लीवेज को देर तक निहारा जा सकता है |,मैं सोचता हूँ इस दुनिया में खुबसूरत महिलाओं की एक अलग दुनिया होती होंगी ,वो कभी मरती नहीं होंगी ,उन्हें खुबसूरत सपने आते होंगे ,उन्हें कभी चूमा नहीं गया होगा.”
फेसबुक खोलते ही ये पोस्ट झक्क से मेरी आँखों के सामने था, ऐसा लग रहा था जैसे मेरा इंतज़ार कर रहा हो, इस पोस्ट को पढ़ते पढ़ते मुझे कई महारथी याद आ गए, जो फेमिनिज्म का झंडा बुलंद किये हुए हैं या यूँ कहें कि उनकी रोज़ी रोटी ही साली(इस शब्द का इस्तेमाल करने के लिए क्षमा चाहूँगा लेकिन और कोई शब्द मिला ही नहीं) इसी से चलती है. लेकिन जब वो किसी महिला का बखान करते हैं तो उसके गुणों का नहीं बल्कि उसके शारीर के अंग प्रत्यंगों और खूबसूरती बड़ी ही अश्लीलता से बखानते हैं. ये वही लोग हैं जो हमेशा महिलाओं की सशक्तता की बात करते हैं, लेकिन एक महिला में उन्हें उसके नंगे पैर और क्लीवेज ही नज़र आते हैं, जिसे देख कर वो अपनी मर्दानगी को शांत कर लेते हैं, या यूँ कहें की देर तक निहारने पर उन्हें उनमे एक साहित्य नज़र आता है, ऐसा साहित्य जो बड़ा ही डेलिकेट है, इंटेलेक्चुअल है. यह बड़ा ही अजीब है लेकिन शास्वत है, मानें या ना मानें.
अभी बीते दिनों की ही बात है, ज्यादा समय नहीं गुज़रा है, गुडगाँव की एक बड़ी ही डेलिकेट पार्टी का सदस्य बनकर मैं एक मुशायरे में शामिल हुआ और जनाब जो देखने को मिला , वह मेरी आँखें चुधियाने के लिए काफी था, सच कहूँ तो बड़े ही उम्रदराज़, खुशमिजाज़ और अछे लोगों की महफ़िल थी और साथ में था बड़ा ही मौजूं बयान, और वो यह कि “ औरत सिर्फ देखने और भोगने के लिए होंती है, अन्यथा कुछ भी नहीं” मै शर्मसार था और मेरे दमाग में एक ही प्रश्न बार बार घूम रहा था की “फिर इतना दिखावा क्यूँ?”
- नीरज