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शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

वो औरत

देखा उस दिन उस घर में
शादी का जश्न था;
आँगन था भरा पूरा
हो रहा हल्दी का रस्म था,
ठहाकों की गूंज थी 
हँसी मज़ाक कमाल था, 
समां देखकर खुशियों का 
"दीप" भी खुशहाल था | 

तभी अचानक नजर उठी 
छत पर जाकर अटक गई, 
एक काया खड़ी-खड़ी 
सब दूर से ही निहार रही, 
होठों पे मुस्कान तो थी 
नैनों में पर बस दर्द था, 
आँखों के कोर नम थे 
हृदय में एक आह थी; 
बुझी-बुझी सी खड़ी थी वो 
बातें उसकी रसहीन थी, 
खुशियों के मौसम में भी 
वो औरत बस गमगीन थी | 

श्वेत वस्त्र में लिपटी हुई 
सूने-सूने हाथ थे, 
न आभूषण, न मंगल-सूत्र, 
सूनी-सूनी मांग थी, 
चेहरे में कोई चमक नहीं 
मायूसी मुख मण्डल पर थी; 
नजरें तो हर रसम में थी 
पर हृदय से एकल में थी | 
उस घर की एक सदस्य थी वो, 
वो लड़के की भोजाई थी, 
था पति जिसका बड़ा दूर गया 
बस मौत की खबर आई थी; 
दूर वो इतना हो गया था 
तारों में वो खो गया था | 

घरवालों का हुक्म था उसको 
दूर ही रहना, पास न आना, 
समाज का उसपे रोक था 
सबके बीच नहीं था जाना; 
शुभ कार्य में छाया उसकी 
पड़ना अस्वीकार था, 
शादी जैसे मंगल काम में 
ना जाने का अधिकार था |
खुशियाँ मनाना वर्जित था, 
रस्मों में उसका निषेध था; 
झूठे नियमों में वो बंधी 
न जाने क्या वो भेद था; 
जुर्म था उसका इतना बस 
कि वो औरत एक विधवा थी, 
जब था पति वो भाभी थी, 
बहू भी थी या चाची थी, 
पति नहीं तो कुछ न थी 
वो विधवा थी बस विधवा थी | 

एक औरत का अस्तित्व क्या बस, 
पुरुषों पर ही यूं निर्भर है ? 
कभी किसी की बेटी है, 
कभी किसी की पत्नी है, 
कभी किसी की बहू है वो, 
तो कभी किसी की माता है; 
उसकी अपनी पहचान कहाँ, 
वो क्यों अब भी अधीन है ? 
इस सभ्य समाज के सभी नियम 
औरत को करे पराधीन है; 
वो औरत क्यों यूँ लगा-सी थी ? 
वो औरत क्यों मजबूर थी ? 
उसपर क्यों वो बंदिश थी ? 
वो खुद से ही क्यों दूर थी ?