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गुरुवार, 4 अगस्त 2011

एक नारी के रूप अनेक


कभी मात बन जनम ये देती,
कभी बहन बन दुलराती;
पत्नी बन कभी साथ निभाती,
कभी पुत्री बन इतराती;

कहने वाले अबला कहते,
पर भई इनका तेज तो देख;
काकी, दादी सब बनती ये,
एक नारी के रूप अनेक |

कभी शारदा बन गुण देती,
कभी लक्ष्मी बन धन देती;
कभी काली बन दुष्ट संहारती,
कभी सीता बन वर देती;

ममता भी ये, देवी भी ये,
नत करो सर इनको देख;
दुर्गा, चंडी सब बन जाती,
एक नारी के रूप अनेक |

कभी कृष्णा बन प्यास बुझाती,
यमुना बन निच्छल करती;
गंगा बन कभी पाप धुलाती,
सरयू बन निर्मल करती;

नदियाँ बन बहती जाती,
न रोक पाओगे बांध तो देख,
कावेरी भी, गोदावरी भी ये,
एक नारी के रूप अनेक |

कभी अश्रु बन नेत्र भिगोती,
कभी पुष्प बन मुस्काती;
कभी मेघ बन बरस हैं पड़ती,
कभी पवन बन उड़ जाती;

पल-पल व्याप्त कई रूप में ये,
न जीवन है बिन इनको देख;
जल भी ये, पावक भी ये,
एक नारी के रूप अनेक |

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

स्त्री कर रही है ऐलान !


स्त्री कर रही है ऐलान !

हजारों वर्षों की
यात्रा करके आज
पहुंची है स्त्री यह
कहने की स्थिति में
''मैं भी एक अलग व्यक्तित्व हूँ ''
मेरा भी समाज में अलग अस्तित्व है .

मनु ने पिता ,पति
पुत्र की दीवारों में
किया कैद स्त्री को ,
पुत्री,पत्नी ,माता और
बहन के रूप में सर्वस्व
न्यौछावर करती हुई
अबला बना दी गयी
''नर की शक्ति नारी ''

केवल देह मान  ली गयी
और पुरुष ने घोषणा की
''नारी मेरी संपत्ति है ''
कभी मर्यादा व्  लोकरंजन के नाम पर
वन-वन भटकाई गयी ,
कभी जुए में दाव पर लगा दी गयी
नारी की अस्मिता ;
फिर कैसे विश्वास करें
की भारतीय संस्कृति में
सम्मानित स्थान  दिया गया
है स्त्री को ?

ये ठीक है कि
आज भी नारी देह का  
शोषण जारी है ;
आज भी नर नारी को मानता है
अपनी दासी
लेकिन खुल चुकी हैं
कुछ खिड़कियाँ
पितृ- सत्तात्मकता   की
मजबूत दीवारों में ,
जहाँ से झांक कर स्त्री कर रही
है ऐलान
''मैं भी एक अलग व्यक्तित्व हूँ ''
मेरा भी समाज में पृथक
अस्तित्व है .
                          शिखा कौशिक


गुरुवार, 28 जुलाई 2011

''अमर सुहागन''- .शत-शत नमन इन वीर नारियों को -

यूँ तो भारतीय नारी का हर स्वरुप   प्रेरणादायी है पर एक शहीद की पत्नी के रूप  में   स्त्री  कितना  बड़ा  त्याग करती है सोचकर भी ह्रदय  गदगद हो जाता है और आँखें नम .इन्ही भावों को संजोये है यह रचना  .शत-शत नमन इन  वीर नारियों को -


हे!  शहीद की प्राणप्रिया
तू ऐसे शोक क्यूँ करती है?
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दुल्हन मांग को भरती है.
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श्रृंगार नहीं तू कर सकती;
नहीं मेहदी हाथ में रच सकती;
चूड़ी -बिछुआ सब छूट गए;
कजरा-गजरा भी रूठ गए;
ऐसे भावों को मन में भर
क्यों हरदम आँहे भरती है;
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दीपक में ज्योति जलती है.
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सब सुहाग की रक्षा हित
जब करवा-चोथ -व्रत करती हैं
ये देख के तेरी आँखों से
आंसू की धारा बहती है;
यूँ आँखों से आंसू न बहा;हर दिल की
धड़कन कहती है--------
जिसका प्रिय हुआ शहीद यहाँ
वो ''अमर सुहागन'' रहती है.