बुधवार, 25 मई 2016

ना जाने क्या हुआ

ना जाने क्या हुआ🍃🐾🐾🐾🐾🐾

सबकी प्यारी सबकी दुलारी,कल तक तो मैं एक बेटी थी
आज न जाने क्या हुआ,मैं बहु बनना सीख गई
हर गलती मेरी सच्ची थी,कल तक तो मैं एक बच्ची थी
आज न जाने क्या हुआ, मैं बड़ी बनना सीख गई
कल तक तो देर तक सोती थी,माँ उठती थी तो लड़ती थी
आज न जाने क्या हुआ खुद ही जल्दी उठना सीख गई
कल तक तो माँ आती थी हाथों से दूध पिलाती थी
आज न जाने क्या हुआ मैं सबको चाय पिलाना सीख गई
कल तक मैं उनकी जिम्मेदारी थी अब सब मेरी जिम्मेदारी है
आज न जाने क्या हुआ,मैं हर जिम्मेदारी निभाना सीख गई
कल तक तो मैं जिद करती थी,दीदी भैया से लड़ती थी
आज जिदों को भूल कर ननद देवर को मनाना सीख गई
कल तक तो माँ के खाने में मैं नखरे करती रहती थी
आज न जाने क्या हुआ मैं सबके नखरे उठाना सीख गई
पापा की जरा सी डाँट पर कल तक जो रूठ जाती थी
आज न जाने क्या हुआ रूठों को मनाना सीख गई
सीखते सीखते भूल गई बेटी से बहु कब हो गई
कल तक जो इतनी छोटी थी आज इतनी बड़ी कब हो गई
@डॅा नीलम महेंद्र

मंगलवार, 17 मई 2016

इत्ती  सी  ज़िंदगी ,, इत्ता  सारा  काम. . 
अब  बोलो  कैसे  करु 
हाँ , जी  बस  करना  जरूर  हैं। 
ओ>> जिसे  छुट्टियाँ  कहते हैं  आई थी  चली  भी  गयी...
भाई, हद  हो  गई   
हर  दिन  की  इक  कहानी.. 
सब  की  छुट्टियों  में  अपना  हिस्सा   तलाश  रही  थी। 
(वो  सुबह  कभी  तो आएगी . . )
हर  रिश्तों  को  आती -जाती  सांसो  मे  उतार  कर  सुखद  अहसास  देने 
की  प्रयास  ज़ारी  रहती हैं। 
फिर  भी  कभी  ये  छूटा  तो  कभी  ओ  छूटा . . 
धत ! तेरी  की . परेशानी  की  क़्या  बात ? 
हर  लकीरो  में  मोड़ आ   ही  जाती  हैं। 
सच  हैं .
ठहरे  हुए  पानी  में  घोर  सन्नाटा .  . 

तन्कन्त  तो  इस  बात  की 
मैने  सारी  उम्र  बिना  छुट्टियों   की  बहुत  काम  की 
तभी   एक  आवाज़ 
तूने   किया  क़्या  ?
चार  रोटियाँ   हि  तो  बनाई 
स्थिति  जल  बिन  मछली  की  तरह ...

शायद  इस  लिए  बैठे -बैठे  एक   कंकर   डाल  दी . . परत  दर  परत  लहरों  की  तरह 
मन  मे  विचार  भी  आ  कर  जाती  रही। 
जा  रही  हुँ.. शाम  होने  को आई .. 
खुद  के  हिस्से   की  उम्र को   जी  रही  हुँ 
कल  तो  छुट्टी  होगी  हि.. 
(इत्ती  सी  हसी ,इत्ती  सी  ख़ुशी, इत्ता  सा  आसमान 
हुह .. तो  फिर  इत्ती  सी  परेशानियाँ .  . )


आज बिना लाग  लपेट के सुलभ भाव की प्रस्तुति।  

रविवार, 15 मई 2016

भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप --डा श्याम गुप्त ..



भारतीय साहित्य में स्त्री-पुरुष के परस्पर व्यवहार का संतुलित रूप 


          भारतीय संस्कृति व प्रज्ञातंत्र में तथा तदनुरूप भारतीय साहित्य में, स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के आपसी व्यवहार के संतुलन का अत्यधिक महत्व रखा गया है | आज भी यह भाव परिलक्षित करती हुईं ‘किस्सा तोता-मैना’ की कथाएं स्त्री-पुरुष के आचार-व्यवहार की समता व समानता की कहानियां ही हैं जिनमें दोनों के ही अनुचित आचरणों का विविध रूप से वर्णन किया गया है | यदि पुरुष प्रधान समाज में यह अपेक्षा थी कि महिलायें पुरुष की महत्ता को पहचानें व मानें एवं यहाँ तक कि वे पति की चिता पर सती भी होजायं, तो पुरुष से भी यही अपेक्षा की जाती थी कि वे महिला के अधिकार व सम्मान सर्वाधिक ध्यान रखें |



         यद्यपि विभिन्न कथाओं आख्यानों में पति या प्रेमी के लिए बिछोह सहने वाली महिलाओं की जितनी कथाएं हैं उतनी पुरुषों की नहीं, जबकि पुरुषों के भी स्त्री के प्रति बिछोह दुःख व पीढा की भी उतनी ही घटनाएँ उपलब्ध हैं | क्या कोई आज यह मानने को तैयार होगा कि किसी पुरुष ने भी इसलिए अपने प्राण त्याग दिए कि वह पत्नी के बिना जीवन नहीं बिता सकता था |


          दैव-सभ्यता अथवा मानव सभ्यता के आदिकाल में स्वयं शिव, सती का शरीर लेकर समस्त ब्रह्माण्ड में घूमते रहे, यह किसी भी पुरुष का स्त्री के प्रति सर्व-सम्पूर्ण समर्पण था| पुरुरवा का उर्वशी के विरह में समस्त उत्तराखंड में घूमते रहना, महाराजा अज द्वारा पत्नी महारानी इंदुमती की मृत्यु पश्चात सदमे से कुछ समय उपरांत ही देह त्याग देना, दुष्यंत की शकुन्तला के लिये व्याकुलता से खोज, मेघदूतम के यक्ष का प्रेमिका को बादल द्वारा भेजा गया सन्देश, भृंगदूतं काव्य में राम का सीता की खोज हेतु भ्रमर को भेजना,  दशरथ का कैकेयी के कारण प्राण त्याग, स्वयं राम का सीता के अपहरण के समय राम रोते हुए समस्त वन-पेड़ पौधों, पशु-पक्षियों से विरह-व्यथा कहते हुए विक्षिप्त की भाँति घूमते रहे | सीता के लिए सागर सेतु निर्माण, महासमर, सीता वनगमन के वियोग में दूसरा विवाह न करना एवं सीता के धरती में समा जाने के उपरांत सरयू में जल समाधि लेना, कि वे पत्नी के बिना नहीं रह सकते थे, श्री कृष्ण का वन में राधे राधे रटते हुए घूमते रहना, राधा व गोपियों हेतु उद्धव को भेजना आदि घटनाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि पुरुषों/पतियों ने भी इतिहास में स्त्री/पत्नी के लिए उतने ही, कष्ट सहे हैं एवं उत्सर्ग किया है जितना स्त्रियों ने |  



         वस्तुतः परवर्ती काल में एवं भक्ति साहित्य में पुरुष का नारी के प्रति इस प्रकार का प्रेम नहीं दिखलाया गया है, जहां महिला-भक्त का भगवान् के प्रति भक्त-प्रेम दर्शित है वहीं पुरुष-भक्त का देवी के प्रति पुत्रवत वात्सल्य प्रेम दर्शाया गया है | इस प्रकार कालान्तर में पुरुषों के समर्पण एवं पत्नी-स्त्री के लिए त्याग की कथाएं भुला दी गयीं | पुरुष प्रधान समाज में नारी की महत्ता व महत्त्व की सदैव प्रधानता बनी रहे एवं नारी,  समाज व पुरुष का प्रेरणा-श्रोत बनी रहे अतः नारी के त्याग की कथाएं प्रमुखता पाती रहीं |




'दशरथ-कैकेयी'
दशरथ-कैकेयी
'पुरुरवा--उर्वशी विरह रत'
पुरुरवा -उर्वशी की याद में ...
'हे खग मृग हे मधुकर सैनी तुम देखी सीता मृगनयनी ...विरह रत राम ..'
राम--हे मधुकर हे खग मृग सेनी , तुम देखी सीता मृगनयनी ..
'शिव --सती के शव सहित ---'
शिव-सती
'पुरुरवा --उर्वशी विरह में समस्त उत्तराखंड (जम्बू-द्वीप) में वन वन घूमते हुए ....'
पुरुरवा--वन वन भ्रमण --उर्वशी विरह में

गुरुवार, 12 मई 2016

युंही दिल से
🌷🌷🌷🌷🌷
आज की महिलाओं की सफलता का राज़
सदियों से कहा जा रहा है कि हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है।हमारा समाज हमेशा से पुरूष प्रधान रहा है ऐसे में यह स्वीकारोक्ति इस सभ्यता में नारी के स्थान का स्वयं बखान करती है।
आज के दौर में जहाँ महिलाएं भी घर की चार दीवारी को लांघ कर दुनिया में हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं तो एक बाल सुलभ ह्रदय से प्रश्न उठ रहा है कि आज के दौर की इन सफल महिलाओं के पीछे क्या किसी का हाथ नहीं हैं?
आज हर क्षेत्र में पुरुषों को महिलाओं से कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।Office, school,government sector,private sector,multinationals,banks आदि सभी जगह महिलाओं की मौजूदगी रहती है।ये समाज के लिए एवंम् स्वयं महिलाओं के लिए बेहद उत्साह एवं प्रगतिशीलता का द्योतक है।
हाँ यह सही है कि आज भी कुछ घर ऐसे हैं जहाँ महिलाओं को इतनी स्वतंत्रता हासिल नहीं होती किन्तु जो महिलाएं आज समाज में अपने कार्य क्षेत्रों में सफलता से क्रियाशील हैं वे बिना पारिवारिक सहयोग के यह सब नहीं कर सकती थीं यह भी एक कठोर सत्य है।
आज महिलाएं सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें पिता के रूप में,भाई के रूप में, जीवन साथी के रूप में खुले विचारों वाले पुरुषों का साथ मिल रहा है।
आज कोई भी पिता अपनी पुत्री को पुत्र के ही समान पढ़ाई के अवसर उपलब्ध करा कर उसके भविष्य को सुरक्षित करने की मजबूत नींव खड़ी कर देता है।घर में अगर बड़े बूढ़े उनके इस कार्य में बाधक बनें तो भाई बहन की ढाल बनकर पिता को मजबूत सहारा प्रदान करता है आखिर उसे भी तो अपनी बहन के भविष्य की चिंता है।
और जब इस पढ़ी लिखी युवती को जीवन साथी का साथ मिलता है तो वह भी उसे अपना सहारा देकर प्रोत्साहित करता है अपनी योग्यतानुसार इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए।
अगर स्त्री को पिता के रुप में, भाई के रूप में, जीवन साथी के रूप में यह सहयोग न मिले तो भी क्या वह अपनी personal life को sacrifice करके career को चुनेगी?
एक खुशहाल परिवार के साथ स्त्री के लिए समाज में अपनी पहचान बना कर सफलता प्राप्त करना संतुष्टि दायक एवं पूर्णता प्रदान करने वाला होता है बनिस्बत परिवार को sacrifice करके career को चुनना।स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिस्पर्धी नहीं।
तो समाज के जब भी किसी सफल महिला को देखें तो उसके पीछे खड़े पुरुष के लिए मन में श्रद्धा के भाव अवश्य लाएं।🙏🙏
@डाँ नीलम महेंद्र

रविवार, 8 मई 2016

विवाह व सहजीवन-- डा श्याम गुप्त

विवाह व सहजीवन-- डा श्याम गुप्त
                           जीव मात्र की मूल प्रवृत्ति है स्व-जाति के जैविक सातत्य-क्रमिकता को बनाये रखना, ताकि उस प्रजाति का मूलोच्छेद न हो | मानव श्रेष्ठतम जीव होने के कारण जैविक के साथ साथ सांस्कृतिक–सामाजिक क्रमिकता को भी बनाए रखता है और उसका मूल है समाज-राष्ट्र-संस्कृति की सबसे छोटी इकाई परिवार | विवाह उसी इकाई की मूल संस्था या प्रथा है|
                        जहां तक सहजीवन, अर्थात बिना विवाह के साथ-साथ रहने की बात है, क्या इन तथाकथित अति-आधुनिक अल्ट्रा-माडर्न लोगों को अपनी पुत्रियों और बहनों और पुत्रों के अविवाहित कामाचार स्वीकार हैं ? क्या वे अपनी पत्नियों और अन्य पुरुष का सहजीवन स्वागत योग्य मानेंगे?
                      भारत में विवाह संस्था का अनुशासनात्मक विकास हुआ। यहां विवाह-संस्था स्थाई है। लेकिन अमरीका में विवाह संस्था समाप्त प्रायः है, वहां स्वाद की भाँति पत्नियां व पति बदले जाते हैं। अमरीका-यूरोप, भारत में आया, उस संस्कृति-प्रभावित कन्याएं अपना शरीर दिखाती हैं, देह सुंदर है, इसे दिखाने में गलत क्या है? इसी से अविवाहित सहजीवन का चलन बढ़ा। कई देशों में हाल ही में यौन सम्बंधों को वैध ठहराने वाला वक्तव्य दिया गया है। वह उनकी जीडीपी का महत्वपूर्ण भाग है | परन्तु ऐसा भोगवादी सहजीवन अंतत: विषादका कारण है।
                          ऐसे लोगों की दृष्टि में काम-सुख की सामाजिक मर्यादा रूढ़िवाद है और मुक्त यौन-सुख, आधुनिकता। स्वयं "कामसूत्र" के रचयिता आचार्य वात्स्यायन ने भी परस्त्री सहजीवन को गलत ठहराया है, उनका कथन है कि, "राजाओं, मंत्रियों, वरिष्ठों को उचित है कि वे परस्त्री गमन जैसे निन्दनीय कार्य में प्रवृत्त न हों।" तथा "पराई स्त्रियों से संबंध दोनों लोकों को नष्ट करता है।
                         सारी दुनिया के आदिम समाज स्वच्छंद थे। विवाह संस्था का विकास बाद में हुआ, तथापि भारत में ऋग्वैदिक काल में ही स्त्री-पुरुषों के लिए नियम थे | ऋग्वेद का यम-यमी प्रकरण सूक्त (10.10.1 से 14) इस सम्बन्ध में निश्चित नियम प्रस्तुत करता है---यम और यमी भाई-बहन थे। किसी विशिष्ट परिस्थिति में यमी ने यम से प्रेम सम्बंध की याचना की। यम ने ऐसी मित्रता से साफ इनकार किया –“न ते सखा सख्यम् वष्टि एतत् सऽलक्ष्मा यत् विषऽरूपा भवति।“ यम ने ऐसे सम्पर्क को अधम बताया। यही यम अनुशासक व आचरण मर्यादा के नीति-नियम निधारक हुए और ऐसे नियम-अनुशासन को यमानुशासन कहा गया|
भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। पश्चिम में कोई ऋग्वेद नहीं उदित हुआ। कोई श्वेतकेतु नहीं हुआ। ऋग्वेदिक समाज स्त्री-पुरुष, संबंधों को लेकर सतर्क था | पत्नी रूपवती है पर अपना सौन्दर्य सिर्फ पति को दिखाती है। दूसरे लोग केवल वस्त्र देखते हैं या केवल वाणी सुनते हैं | ऋग्वेद 10.71.4 के सरस्वती सूक्त का मन्त्र है --
. उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचं, उत त्वः श्रृण्वन् न श्रृणोत्येनम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उषति सुवासाः ||

--- अर्थात-कोइ व्यक्ति सरस्वती ( विद्या या ज्ञान) को केवल शब्द से जानता है परन्तु देख (समझ) नहीं पाता, कोइ सुनता है परन्तु श्रोतस्थ( आत्मस्थ ) नहीं कर पाता| वह किसी विशिष्ट को ही अपने सौन्दर्य का वास्तविक ज्ञान-दर्शन कराती है जैसे रूपवती पत्नी अपना सौन्दर्य केवल अपने पति को दिखाती है|

                       ऋग्वेदिक समाज पति-पत्नी के बीच प्रेम को लेकर भी सतर्क था। ऋग्वेद के सर्वप्रथम पूज्य देवता अग्नि, विवाह में पति-पत्नी का मन मिलाते हैं- दंपति समनसा कृणोपि अग्नि: (ऋग्वेद 5.3.2) विवाह संस्कार में अग्नि के सात फेरे की परम्परा इसी वजह से आयी।
 
                         संसार में दांपत्य जीवन में प्राय: एकपत्नीत्व ही सबसे अधिक प्रचलित है तथा अधिकांश समाजों में पुरुष की प्रधानता पाई जाती है। यूं परिवार के विभिन्न रूप, पुरुषप्रधान-पितृवंशीय, स्त्रीप्रधान-मातृ-वंशीय, बहुपत्नीत्वसमाज, बहुपतित्व समाज आदि भी पाए जाते हैं|
                     विवाह शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। समाज द्वारा स्वीकार की गई- 'परिवार की स्थापना करने वाली कोई भी पद्धति' |
                      विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन, जहाँ एक ओर समाज स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी) को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। 'पति' का अर्थ है पालन करने वाला-भरतार तथा 'भार्या' का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी। विवाह समाज में नवजात प्राणियों--संतान की स्थिति का निर्धारण करता है|
                      विवाह का उद्गम- मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था। विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध की पूरी स्वतंत्रता थी। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनके आधार पर पश्चिमी विद्वान विवाह की आदिम दशा कामचार की अवस्था मानते हैं जो बाद में बहुपत्नी प्रथा में विकसित हुई और अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने का नियम प्रचलित हुआ। परन्तु भारत में बहुभार्यता सदैव नारी की स्वयं की इच्छा, नारी के भरणपोषण की सदिच्छा, राजनीतिक आवश्यकता एवं विशिष्ट स्थितियों से जुड़ा रहा है |
                  विवाह की संस्था मानव समाज में जैवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह संस्था मनुष्य के पूर्वज समझे जाने वाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं वे प्रायः एक ही नर/मादा के साथ सारा जीवन व्यतीत करते हैं।
                        मानव समाज के विकास के एक स्थल पर, जब संतान की आवश्यकता के साथ उसकी सुरक्षा की आवश्यकता हुई एवं यौन मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत व्यक्तिगत व सामाजिक परिणाम हुए तो श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित की ताकि प्राकृतिक काम संवेग की व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ साथ स्त्री-पुरुष के आपसी सौहार्दिक सम्बन्ध एवं सामाजिक समन्वयता भी बने रहे | यजु.१०/४५ में कथन है—
एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“

--------अर्थात पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। स्त्री के लिए भी यही सत्य है | अतः दाम्पत्य-भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है, स्त्री को भी |


                  विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ है। श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है।
विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूषन देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।" फिर अग्नि से प्रार्थना है- "हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।" फिर इन्द्र से प्रार्थना है- "हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें।
              ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- हे वधु ! तुम सास, ससुर, ननद, देवर समस्त परिवार की साम्राज्ञी बनो ----
"सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वसुरामं भव।
सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "


                       हमारे शास्त्रों ने चयन का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं| प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है| विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है| वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है।
                      सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतु, छटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
सात वचनों के महत्व को यदि समझ लिया जाये तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा...
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!...१...

----कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना| कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम
भाग में अवश्य स्थान दें| यदि आप स्वीकार करते हैं तो मुझे वामांग में आना स्वीकार है |
---- धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य है| जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है| पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है|
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!...२...

----कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
------इस वचन के द्वारा समाज व कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है| आजकल गृ्हस्थी में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद होने पर पति/पत्नी अपने पत्नि/पति के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देते हैं|
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!...३..

तीसरे बचन में कन्या कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ |
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!...४...

कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे| अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपका है| यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ |
--------इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं| विवाह पश्चात कुटुम्ब पोषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है| अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी कैसे चल पाएगी| इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके| यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे |
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!....५...

इस वचन में कन्या जो कहती है वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है| बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते| यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है|
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!...६...

कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें| यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं| विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं| ऎसे
व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा| यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले|
परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!...७..

अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें | यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
--------विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, ये सभी भली भान्ति जानते हैं, इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है|
                         इस प्रकार विवाह के इस सर्वश्रेष्ठ रूप में, ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है, वशर्ते कि आज के निष्ठाहीनता के युग में स्त्री-पुरुष दोनों ही इनका निर्वाह करें तो |
विवाह के विभिन्न पक्ष --- वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और स्वार्थत्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, मनुष्य तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता । पुरुष, प्रकृति के बिना और शिव, शक्ति के बिना अधूरा है।
                 धार्मिक दृष्टि से विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। यज्ञ या कोइ भी धार्मिक अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता | पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास के कारण भी विवाह हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य है। रोमनों का विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहने हेतु उनका मृतक संस्कार यथाविधि होना तथा अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहने चाहिए| यहूदियों के अनुसार विवाह से बचने वाला व्यक्ति हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है। औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।
               आर्थिक पक्ष के अनुसार प्रसूति के समय में तथा उसके बाद कुछ काल तक कार्यसक्षम न होने के कारण पत्नी को पति के अवलंब की आवश्यकता होती है, इस कारण दोनों में श्रम-विभाजन होता है, पत्नी बच्चों के लालन पालन और घर के काम को सँभालती है और पति पत्नी तथा संतान के भरणपोषण का दायित्व लेता है। नव-युग, औद्योगिक युग के कारण स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गईं, इससे पति-पत्नी, परिवार की स्थिति में कुछ अंतर आने लगा है। फिर भी, पत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।
                 विधिक दृष्टि से विवाह का एक क़ानूनी पक्ष भी है। परिणय सहवास मात्र नहीं है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार व स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड अथवा क़ानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होने वाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वर-वधू की सहमति से होने वाला विशुद्ध क़ानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह अनुबंध अन्य अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है, जिनमें अनुबंध करने वाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैं, किंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वर-वधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैं; वे समाज की रूढ़ि, परंपरा और क़ानून द्वारा निश्चित होते हैं।
                सामाजिक दृष्टि के अनुसार विवाह का सामाजिक व नैतिक पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है, बालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्र निर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यद्यपि आजकल शिशु-शालाएँ, बालोद्यान, स्कूल और राज्य बच्चों के पालन, शिक्षण और सामाजीकरण के कुछ कार्य अपने ऊपर ले रहे हैं, तथापि निश्चय ही बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।
                       विवाह विच्छेद के सम्बन्ध में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य है। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है यथा हिंदू एवं रोमन कैथोलिक ईसाई समाज | किंतु विवाह विच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाह विच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही दिया जाता है।
                       हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। परन्तु विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, इस अधिनियम के अंतर्गत वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
                  विवाह-प्रथा के भविष्य व उस की समाप्ति की तथा राज्य द्वारा बच्चों के पालन की कल्पना समय समय पर होती रही है | वर्तमान में औद्योगिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों से तथा पश्चिमी देशों में तलाकों की बढ़ती हुई भयावह संख्या के आधार पर विवाह की संस्था के लोप की भविष्यवाणी होरही है | विवाह के परंपरागत स्वरूपों में बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राग्वैवाहिक सतीत्व और पवित्रता को गहरा धक्का पहुंचाया है।
                      किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाह प्रथा के बने रहने का प्रबल कारण है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते अर्थात वंश वृद्धि, संतान का पालन, सच्चे दांपत्य प्रेम और सुख प्राप्ति । यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। राज्य और समाज शिशुशालाओं और बालोद्यानों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी परिवार में होती है। सहजीवन से भी दाम्पत्य प्रेम व सच्चा सुख संभव नहीं है अतः भविष्य में विवाह एक महत्त्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें।


राष्ट्रीय पुरस्कार :ड्रेस कोड बनाना ही होगा .


शालीनता भारतीय नारी का सर्वश्रेष्ठ आभूषण रहा है और आजतक भारतीय नारी इस आभूषण को अपने वस्त्रों के चयन के माध्यम द्वारा पूरी दुनिया के समक्ष रख एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत  करती  रही है .देश के बहुत से समारोहों में इस परंपरा का पालन किया जाता रहा है विशेषकर राष्ट्रपति जी द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों के अवसर पर .भले ही राष्ट्रपति स्वयं महिला हों वे भी इसी परंपरा को निभाने में ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती रही हैं -
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भले ही खेल के मैदान में स्कर्ट पहनने के कारण विवादों से घिरी रही हो लेकिन राष्ट्रपति जी से पुरस्कार लेते समय अपने देश की परंपरा निभाना नहीं  भूलती
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खिलाडी वर्ग खेल के वक़्त बहुत सी ऐसी वेशभूषा धारण करती हैं जो हमारे देश की संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं किन्तु वे वेशभूषाएं खेल के लिए ज़रूरी है तब भी वे पुरस्कार लेते वक़्त एक शालीन वेशभूषा में राष्ट्रपति जी से पुरस्कार लेने के लिए उपस्थित होती हैं -
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ऐसे ही फिल्मों में दृश्य की मांग पर अभिनेत्रियों को बहुत कुछ ऐसा पहनने की छूट मिली हुई है जो भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है लेकिन वहां ये छूट उन्हें देनी पड़ती है किन्तु धीरे धीरे इस छूट का वे नाजायज फायदा उठाने में लगी हैं पहले जहाँ अभिनेत्रियां राष्ट्रीय पुरस्कार में शालीनता से उपस्थित होती थी -
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उसे अब पुरस्कार लेने आने वाली अभिनेत्री कंगना द्वारा पूरी तरह से तोड़ दिया गया -
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जिसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि आगे ऐसी धृष्टता न हो इसके लिए इस सम्बन्ध में ड्रेस कोड बनाना आवश्यक होना चाहिए .वर्ना एक पुराना फ़िल्मी गाना यहाँ तो पूरी तरह से फिट बैठ ही जायेगा और भारतीय संस्कृति का पूरी तरह से हो जायेगा बेडा गर्क -
''पहले तो था चोला बुरका ,
फिर कट-कटकर वो हुआ कुर्ता ,
चोले की अब चोली है हुई ,
चोली के आगे क्या होगा ?

ये प्रश्न तो हम सबको अब विचारना ही होगा .

शालिनी कौशिक 
        [कौशल ]

शनिवार, 7 मई 2016

क्या इतना बुरा हूँ में माँ,तो.........

क्या इतना बुरा हूँ में माँ,तो.........


परीक्षाओं एवं प्रतियोगिताओं का समय चल रहा है और हमारे बच्चों द्वारा आत्महत्याएं समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनी हुई हैं। पूरे देश में हमारे बच्चे परीक्षा दे रहे हैं या दे चुके हैं और इस दौरान बच्चों से ज्यादा मनोवैज्ञानिक दबाव में माता पिता रहते हैं जिसे वह जाने अनजाने  अपने बच्चों के भीतर स्थानांतरित कर देते हैं , यह आज के दौर की सच्चाई है जबकि हम सभी इस तथ्य से वाकिफ हैं कि तनावमुक्त परिस्थितियों का प्रदर्शन तनाव युक्त परिस्थिति से हमेशा बेहतर होता है।अभिभावकों को इस बात का एहसास होना चाहिए कि जिस प्रकार माता पिता दुनिया में सबसे अधिक प्रेम अपने बच्चों से करते हैं उससे कहीं अधिक प्रेम बच्चा अपने माता पिता से करता है,उसे अपनी चोट पर उतना दर्द नहीं होता जितना माता पिता की पीड़ा में होता है।एक नन्हा सा जीव जब इस दुनिया में आता है तो माता पिता ही उसकी दुनिया होते हैं।धीरे धीरे वह बड़ा होता है तो उसकी दुनिया भी बड़ी होने लगती है उसका वह छोटा सा संसार जिसमें माता पिता का एकाधिकार था अब भाई बहनों ,दोस्तों,दादादादी,नाना ,नानी अड़ोसी पड़ोसी ,आपके नौकर चाकर आदि से विस्तृत होने लगता है किन्तु फिर भी माता पिता का स्थान तो नैसर्गिक रूप से सर्वोपरि ही रहता है ।वह बच्चा  शब्दों की भाषा से अनजान होता है न बोल पाता है और न ही समझ पाता है किन्तु फिर भी अपनी माँ से बात कर लेता है और माँ उससे -- जी हाँ उस भाषा में जो संसार के हर कोने में हर प्राणी के द्वारा समझी व महसूस की जाती है, "प्रेम की भाषा"

नि:स्वार्थ प्रेम,न कोई अपेक्षा न कोई शिकायत केवल भावनाओं का संगम !बच्चा कभी डर जाए तो पिता के मजबूत हाथों का स्पर्श मात्र उसे हौंसला प्रदान करता है,जरा सी धूप की तपिश भी लगे तो माँ का आँचल उसे ममता की छाँव से भिगो देता है ,घर के किसी कोने में भी छिप जाए उसे मन ही मन पता होता है कि पापा मम्मी उसे ढूंढ ही लेंगे।वह अनेकों बार इस बात को महसूस कर चुका है कि बिन कहे मम्मी उसकी बात सुन लेती हैं और बिना पूछे पापा उसके मन की बात जान लेते हैं और वो भी तो उनके चेहरे को पढ़ कर 
समझ जाता है कि आज पापा मम्मी खुश हैं या नाराज !फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि 15-16 वर्ष का होते होते वह कुछ कहना भी चाहता है तो कह नहीं पाता और उसके बिना कहे ही हर बात समझने वाले माता पिता आज उसे समझ नहीं पा रहे? क्या यह माता पिता के रूप में हमारी नाकामी नहीं है? ये कैसा दोराहा आ जाता है जहाँ कभी एक दूसरे के चेहरे की सिलवटों की भाषा समझने वाले आज एक दूसरे को ही नहीं समझ पा रहे !
विद्यालय में प्रवेश लेते ही वह बच्चा जिसकी नादानियों पर हम उसकी बलाएँ लेते थे आज उसकी एक गलती पर उसे डाँटने लगते हैं,जिस बच्चे से हमें कभी कोई शिकायत नहीं होती थी आज उसी से अपेक्षाओं का पहाड़ है!इसका परिणाम --वह बच्चा जिसके ह्रदय में माता पिता को देखते ही सर्वप्रथम प्रेम व लाड के भाव उमड़ते थे आज उन्हें देखते ही उनकी अपेक्षाओं पर अपनी असफलता से उपजे डर और अपराध बोध की अनुभूति होती है। समय के चक्र के साथ भावनाओं का परिवर्तन होने लगता है और प्रेम के ऊपर भय और निराशा की विजय होती है।जैसे कि  वह कह रहा हो
        
तेरा अपना ही अंश हूँ मैं माँ,
         
शायद तेरा गर्व भी हूँ,
        
आज खुद से ही हारा हूँ मैं माँ,
         
अब शायद तेरा दर्द भी हूँ।
      
 तेरी आँखों में मैंने अपने लिए अनेकों सपने देखे थे
      
 पर वो सपने तुझको  नहीं मुझको ही पूरे  करने थे
      
 कोशिश बहुत की माँ कि तेरा हर सपना सच्चा   कर सकूँ 
       
 लेकिन चाहने मात्र से सपने सच्चे नहीं होते ये बात तुझसे मैं कह न सकूँ
       
 इस बार माफ कर दे माँ अगली बार फिर से मैं आऊँगा
        
 फिर तेरी गोद खिलाऊँगा हर  सपना सच्चा कर के दिखलाऊँगा।  
                                                     
              
हम माता पिता हैं ,हमें अपने बच्चों से प्रेम है और होना भी चाहिए।लेकिन हम भूल जाते हैं कि प्रेम में समर्पण होता है अधिकार नहीं, स्वतंत्रता का एहसास होता है बन्धन का नहीं,जो जैसा होता उसे उसी रूप में स्वीकार करने की भावना होती हैं बदलने की अपेक्षाएं नहीं तो फिर हम अपने बच्चों को क्यों बदलना चाहते हैं जो काम वो नहीं कर सकते या फिर करना नहीं चाहते ,हम उनसे बड़े और समझदार होते हुए भी उनसे वही काम कराने का बचपना क्यों करने लगते हैं जिसकी कीमत भी बाद में हम ही चुकाते हैं !
जिस बच्चे के खिलौने कपड़े बैग बोतल टिफिन जैसी चीजें हम उसकी पसंद से लेते हैं उससे उसी के जीवन,उसके व्यक्तित्व , उसके भविष्य,उसकी खुशी से जुड़ी सबसे अहम बात कि वह अपना जीवन कैसे जीना चाहता है, वह क्या बनना चाहता है, क्या करना चाहता है , यह नहीं पूछते!समाज में स्वयं को ऊँचा दिखाने के लिए पढ़ाई में खराब प्रदर्शन पर हम उसे नीचा दिखाने लगते हैं!
क्या आप जानते हैं हर साल भारत में हमारे बच्चों    द्वारा लगभग एक लाख आत्महत्याएं होती हैं?सम्पूर्ण विश्व की होने वाली आत्महत्याओं में से 10% भारत में होती हैं।15 -20 वर्ष के युवाओं में आत्महत्या के मामलों में 200% तक की वृद्धि हुई है।हम अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकते इसमें दोष केवल बच्चों का नहीं है यह माता पिता के रूप में हमारी असफलता की कहानी है।पहले संयुक्त परिवार होते थे माता पिता की डाँट थी तो दादा दादी का दुलार भी था ।जो बच्चे कल तक दादी नानी की कहानियाँ सुनकर परियों के सपने देखते हुए सोते थे , वो आज एकल परिवारों में बाइयों की गोद में माता पिता के इंतजार में रो रो कर सो जाते हैं।तब बच्चों के बेस्ट फ्रेंड उनके दादा दादी होते थे जिनसे वे अपनी हर वो बात शेयर करते थे जो डर के कारण माता पिता को नहीं बता पाते थे,मन भी हल्का हो जाता था और सही मशवरा भी मिल जाता था ।आज अपने बच्चों से हमारी अपेक्षाओं एवं व्यस्तताओं ने दोनों के बीच एक ऐसी अद्रश्य दीवार खड़ी कर दी है जिसके कारण न हम एक दूसरे को पहले जैसे सुन पाते हैं न ही समझ पाते हैं,जो काम घर के बड़े बूढ़े बातों बातों में कर देते थे आज हेल्पलाइन्स और प्रोफेशनल काउन्सलरस करते हैं।
                           
अगर बच्चे के मन में भय की भावना के स्थान पर प्रेम की भावना हो, असफल होने पर माता पिता की ओर से शंका नहीं विश्वास हो कि चाहे कुछ भी हो जाए हम तुम्हारे साथ हैं तो कोई भी बालक इस प्रकार के कदम नहीं उठा सकता क्योंकि विजय 
हमेशा प्रेम की होती है अगर किसी परिस्थिति में बच्चे को आत्महत्या करने जैसा ख्याल आ भी जाएगा तो खुद से पहले वह अपने मम्मी पापा की सोचेगा।जब उसके मन को यह विश्वास होगा कि मेरी असफलता तो मेरे माता पिता सह सकते हैं लेकिन मेरा बिछोह नहीं, तो प्रेम की सकारात्मक सोच से हर नकारात्मक सोच की हार होगी और हमारे बच्चे ही नहीं हम भी विजेता बन कर उभरेंगे।
डाँ नीलम महेंद्र 

yunhi dil se

शुक्रवार, 6 मई 2016

बहु और बेटी

यूँ ही दिल से
(डाँ नीलम महेंद्र)
बहु और बेटी
🍁🍁🍁🍁 
माँ तो माँ होती है,माँ की ममता का इस धरती पर कोई मोल नहीं,वह तो अनमोल होती है।यह केवल शब्द नहीं अपितु हम सभी ने इन पलों को जिया है।माँ की गोद में बैठकर खुद को सबसे ज्यादा महफूज महसूस किया है।
पर माँ बनने से पहले वो एक औरत होती है।
शेखस्पीयर ने कहा था कि "दुनिया एक रंगमंच है और हम सब यहाँ किरदार हैं।"
इस सत्य को स्त्री जाति ने बखूबी समझा और जिया है।पुरुष तो जीवन के हर दौर में पुरुष ही होते हैं किन्तु स्त्री अपनी जीवन यात्रा में कई किरदारों को जीवंत करती है--बेटी, बहु ,पत्नी, बहन ,ननद माँ, भाभी, हर किरदार का अनूठा अंदाज़!अपने आप में कितने ही रंगों के इन्द्रधनुष के रंगों में रंगी!
हर किरदार का अलग चेहरा! और इतने किरदार निभाते निभाते वह स्वयं भूल जाती है कि वह वास्तव में कौन है,क्या है? जब भी कोई दुविधाजनक स्थिति आती है और उसे याद नहीं आता कि वह क्या है तो सारे किरदार पर्दे के पीछे चले जाते हैं और सामने आती है --औरत,स्त्री,नारी! आखिर यही तो है वह!अब न वह बेटी है न बहु है न भाभी है न ननद है,उसे हम शक्ति का रूप कह सकते हैं।बेटी की माँ हमेशा माँ ही रहती है लेकिन बेटे की माँ तभी तक माँ रह पाती है जब तक बहु नहीं आ जाती।
असल में स्त्री की ममता रक्त संबंधों की सीमा के भीतर ही रिश्तों के बन्धन को स्वीकार करती है।बेटी,माँ, बहन, ये रिश्ते ऐसे होते हैं जहाँ रक्त के बन्धन से प्रेम का बन्धन पिरोया गया होता है।
बहु, ननद, भाभी ये चूंकि रक्त के बन्धन से आजाद होते हैं तो इनमें स्त्री को दूसरी स्त्री ही नज़र आती है और उससे प्रतिस्पर्धा करने लगती है।
ये स्त्री का नैसर्गिक गुण है इसीलिए बहु के घर में प्रवेश करते ही बेटे की ममता का मुकाबला बहु नामक एक अन्य स्त्री से होने लगता है यह स्त्री के व्यक्तित्व व उसकी सोच और प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है कि विजय माँ की होगी या स्त्री की!
अधिकतर भारतीय समाज में माँ के ऊपर स्त्री की ही विजय होती है जिसके परिणामस्वरूप सास और बहु का रिश्ता प्रेम का न होकर प्रतिस्पर्धी का होता है।
किन्तु जहाँ स्त्री के ऊपर माँ विजयी हो कर निकलती है ,वह घर धरती पर स्वर्ग बनकर संपूर्ण समाज के लिए मिसाल बन जाता है।
@डॅा नीलम महेंद्र