हिन्दू धर्म में नारी के स्थान को लेकर बहुत सी बातें कही जाती
हैं अनेक विरोधाभासों से सामना होता है और कभी कभी संशय की स्थिति भी निर्मित हो
जाती है।
दरअसल हिन्दू धर्म सनातन धर्म है और विश्व का सबसे पुराना धर्म भी है। अफसोस की बात है कि इसकी बेहद खुली एवं उदारवादी नीतियाँ जो कि उन्नति का द्योतक बन सकती थीं वे ही उसके विरुद्ध इस्तेमाल की जा रही हैं।इस बात के समर्थन में कुछ तथ्य आगे प्रस्तुत किए जाएंगे जो निश्चित ही रोचक सिद्ध होंगे।
दरअसल हिन्दू धर्म सनातन धर्म है और विश्व का सबसे पुराना धर्म भी है। अफसोस की बात है कि इसकी बेहद खुली एवं उदारवादी नीतियाँ जो कि उन्नति का द्योतक बन सकती थीं वे ही उसके विरुद्ध इस्तेमाल की जा रही हैं।इस बात के समर्थन में कुछ तथ्य आगे प्रस्तुत किए जाएंगे जो निश्चित ही रोचक सिद्ध होंगे।
हमारे ग्रंथ ही हमारे पूर्वजों द्वारा कही बातों का एकमात्र विश्वसनीय स्रोत हैं हमारे वेद,उपनिषद हमारे ॠषियों द्वारा दिए गये वो आशीष है जो कालजयी बन कर आज तक हमारा पथ प्रदर्शन कर रहे हैं किन्तु हम समय के साथ उन्हें संभाल नहीं पाए।
मूल भूत समस्या यह है कि हमारे सभी धर्म ग्रंथ देवभाषा संस्कृत में लिखे गए हैं और हमारी शिक्षा की नीतियाँ इतने वर्षों में कुछ ऐसी रही कि जो बालक भविष्य के नागरिक हैं उन्हें संस्कृत का उचित ज्ञान न मिल पाने के कारण आज भारत के आम नागरिक का संस्कृत ज्ञान नगण्य है।
अफसोस की बात यह है कि देश की आजादी के बाद किसी भी सेकुलर एवं वामपंथी नीतियों पर चलने वाली सरकारों ने हमारे धर्म ग्रंथों की रक्षा और उनकी पुनः स्थापना को कोई नीति बनाकर काम करने योग्य विषय नहीं समझा।इतने सालों में हमारे देश में मुगलों और ब्रिटिश शासन के दौरान हिन्दू धर्म ग्रंथों को तोड़ मरोड़ कर अपने राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन बनाया गया।इसी का परिणाम है कि आज विश्व के सबसे सनातन,पुरातन एवं मौलिक धर्म के सिद्धांतों पर प्रश्न उठाकर हिन्दुओं का ही उपयोग एक दूसरे के विरुद्ध किया जा रहा है।
महिलाएं किसी भी समाज में संवेदनशील विषय रही हैं और आज इसी को मुद्दा बनाकर हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं।
यह हम सब जानते हैं कि हमारे सबसे पुराने ग्रंथ मनुस्मृति में कहा गया है --"जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवताओं का वास होता है" यह हमारे धर्म में नारी की स्थिति बताने के लिए काफी है।
जिस समय पश्चिमी सभ्यता पुरुष और नारी में समानता के अधिकार की बातें करता था उससे कहीं पहले भारतीय ग्रंथों में नारी को पुरुष के समान नहीं उससे ऊँचा दर्जा प्राप्त था।जहाँ पश्चिमी सभ्यता में स्त्री की पहचान एक माँ,बहन, बेटी तक ही सीमित थी,भारतीय संस्कृति में उसे देवी का स्थान प्राप्त था।मानव सभ्यता के तीन आधार स्तंभ --बुद्धि,शक्ति और धन तीनों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं ।यह गौर करने योग्य विषय है कि --
बुद्धि की देवी सरस्वती
धन की देवी लक्ष्मी
शक्ति की देवी दुर्गा,काली समेत नौ रूप
वेदों की देवी गायित्री
धरती के रूप में सम्पूर्ण विश्व का पालन करने वाली धरती भी माँ स्वरूपा हैं
जल के रूप में प्राणीमात्र का तर्पण करने वाली गंगा,जमुना,सरस्वती तीनों माँ स्वरूप हैं
और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन सभी रूपों को पुरुषों द्वारा पूजा जाता है।
हिन्दू वैदिक संस्कृति में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी एवं सहधर्मिणी कहा जाता है अर्थात जिसके बिना पुरुष अधूरा हो तथा सहधर्मिणी अर्थात जो धर्म के मार्ग पर साथ चले।इस विषय में यहाँ पर इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति में पुरुष बिना पत्नी के कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नहीं कर सकते।रामायण में भी संदर्भ उल्लिखित है कि जब श्रीराम चन्द्र जी को अश्वमेध यज्ञ करना था और सीता माता वन में थीं तो अनुष्ठान में सपत्नीक विराजमान होने के लिए उन्हें सीता माता की स्वर्ण मूर्ति बनवाना पड़ी थी।
हिन्दू संस्कृति में पति पत्नी का मिलन दैहिक न होकर आध्यात्मिक होता है और शायद इसी कारण इसमें तलाक या डाइवोर्स नामक किसी स्थिति की कल्पना तक नहीं की गई और न ही ऐसी किसी स्थिति का आस्तित्व स्वीकार्य है अपितु विवाह के बन्धन को तो सात जन्मों का बन्धन माना जाता है।
स्त्री के धरती पर जन्म लेते ही उसके कन्या रूप को पूजा जाता है और नवदुर्गा महोत्सव में बेटियों को दुर्गा स्वरूपिनी मानकर उनके पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है किन्तु बेटों को कहीं भी राम अथवा कृष्ण स्वरूप मानने का उल्लेख नहीं मिलता है।
यही कन्या जब विवाह पश्चात् किसी घर में वधु बनकर जाती है तो उसे लक्ष्मी कहा जाता है।इस संदर्भ में हमारे वेदों से कुछ उद्धरण प्रस्तुत है --
यजुर्वेद 20.9
स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का
अधिकार है
यजुर्वेद 17.45
यजुर्वेद 17.45
स्त्रियों
की सेना हो और उन्हें युद्ध में भाग
लेने के लिए प्रोत्साहित करें
अथर्ववेद 11.5.18
बह्मचर्य सूक्त -इसमें कन्याओं को बह्मचर्य और विद्याग्रहण के पश्चात् ही विवाह के लिए कहा गया है
अथर्ववेद 7.48.2
अथर्ववेद 11.5.18
बह्मचर्य सूक्त -इसमें कन्याओं को बह्मचर्य और विद्याग्रहण के पश्चात् ही विवाह के लिए कहा गया है
अथर्ववेद 7.48.2
हे
स्त्री! तुम हमें बुद्धि से धन दो।विदुषी ,सम्माननीय,विचारशील,प्रसन्नचित्त
स्त्री सम्पत्ति की रक्षा और वृद्धि करके घर में सुख लाती है
अथर्ववेद 2.36.5.
अथर्ववेद 2.36.5.
हे वधु
ऐश्वर्य की अटूट नाव पर चढ़ कर अपने पति को सफलता के तट पर ले चलो
अथर्ववेद 14.1.50
अथर्ववेद 14.1.50
हे पत्नी अपने
सौभाग्य के लिए मैं तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ।
ॠग्वेद 3.31.1
ॠग्वेद 3.31.1
पुत्रों की भाँति
पुत्रि भी अपने पिता की सम्पत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है।
तो हमारे समाज में नारी का स्थान पुरुष से ऊँचा था किंतु दुर्भाग्यवश ग्यारहवीं शताब्दी में मुग़लों के आक्रमण के बाद हमारे धर्म ग्रंथों से छेड़छाड़ हुई और नारी की स्थिति खराब होती गई।वो मुग़लों का शासन काल ही था जब युद्ध में हिन्दू राजाओं और सैनिकों को बन्दी बनाकर अथवा उनकी मृत्यु के पश्चात भारतीय नारियों ने मुगलों के हाथ अपना दुराचार कराने से पहले अपने पति की चिता के साथ ही मृत्यु का वरण कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करना उचित समझा।यह हमारी स्त्रियों का साहस ही था जो उन्हें जलती अग्नि में स्वयं को समर्पित करने की शक्ति प्रदान करता था।यही प्रथा कालांतर में सती प्रथा के रूप में विकसित हुई यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं थी।
भारतीय समाज में स्त्रियों के स्थान की कल्पना इसी तथ्य से की जा सकती है कि उन्हें स्वयम्वर द्वारा अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार प्राप्त था।इसके अलावा हमारे इतिहास के दो महान युद्ध स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए किये गए थे -रावण वध सीता हरण के कारण हुआ था और महाभारत का युद्ध द्रौपदी के सम्मान की खातिर ।
हमारे धर्म ग्रंथों में स्त्रियों द्वारा कई जगह यज्ञ और पूजन का उल्लेख मिलता है जैसे रामायण में कौशल्या ने अपने पुत्र राम के लिए एवं तारा ने अपने पति बाली के लिए किया था किन्तु पुरुष बिना पत्नी के यज्ञ नहीं कर सकते थे।
जिस पश्चिमी सभ्यता द्वारा भारतीय समाज में स्त्रियों के पिछड़ेपन का आक्षेप लगाया जाता है वहाँ आज भी अंगुलियों पर गिने जाने वाली प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री अथवा उच्च पदों पर आसीन महिलाओं का उल्लेख मिलता है ।इसी प्रकार प्रीस्ट (चर्च के पुजारी) अथवा पोप के पदों पर आज तक कोई महिला आसीन नहीं हुई पश्चिमी सभ्यता में सम्पूर्ण विश्व 8 मार्च को एक दिन महिला दिवस मना कर उसको सम्मान देने की बात करता है जबकि भारतीय संस्कृति में आदि काल से महिला स्वयं ईश्वरीय शक्तियों से युक्त जन्म से पूजनीय एवं सम्माननीय ही नही बताई गई है बल्कि उसे देवी का दर्जा भी प्राप्त है।
हमारी संस्कृति हमारे लिए गर्व का विषय है और यह हमारा दायित्व है कि इसका खोया गौरव लौटाने मे हम सभी जितना योगदान कर सकते हैं करें।
तो हमारे समाज में नारी का स्थान पुरुष से ऊँचा था किंतु दुर्भाग्यवश ग्यारहवीं शताब्दी में मुग़लों के आक्रमण के बाद हमारे धर्म ग्रंथों से छेड़छाड़ हुई और नारी की स्थिति खराब होती गई।वो मुग़लों का शासन काल ही था जब युद्ध में हिन्दू राजाओं और सैनिकों को बन्दी बनाकर अथवा उनकी मृत्यु के पश्चात भारतीय नारियों ने मुगलों के हाथ अपना दुराचार कराने से पहले अपने पति की चिता के साथ ही मृत्यु का वरण कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करना उचित समझा।यह हमारी स्त्रियों का साहस ही था जो उन्हें जलती अग्नि में स्वयं को समर्पित करने की शक्ति प्रदान करता था।यही प्रथा कालांतर में सती प्रथा के रूप में विकसित हुई यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं थी।
भारतीय समाज में स्त्रियों के स्थान की कल्पना इसी तथ्य से की जा सकती है कि उन्हें स्वयम्वर द्वारा अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार प्राप्त था।इसके अलावा हमारे इतिहास के दो महान युद्ध स्त्रियों के सम्मान की रक्षा के लिए किये गए थे -रावण वध सीता हरण के कारण हुआ था और महाभारत का युद्ध द्रौपदी के सम्मान की खातिर ।
हमारे धर्म ग्रंथों में स्त्रियों द्वारा कई जगह यज्ञ और पूजन का उल्लेख मिलता है जैसे रामायण में कौशल्या ने अपने पुत्र राम के लिए एवं तारा ने अपने पति बाली के लिए किया था किन्तु पुरुष बिना पत्नी के यज्ञ नहीं कर सकते थे।
जिस पश्चिमी सभ्यता द्वारा भारतीय समाज में स्त्रियों के पिछड़ेपन का आक्षेप लगाया जाता है वहाँ आज भी अंगुलियों पर गिने जाने वाली प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री अथवा उच्च पदों पर आसीन महिलाओं का उल्लेख मिलता है ।इसी प्रकार प्रीस्ट (चर्च के पुजारी) अथवा पोप के पदों पर आज तक कोई महिला आसीन नहीं हुई पश्चिमी सभ्यता में सम्पूर्ण विश्व 8 मार्च को एक दिन महिला दिवस मना कर उसको सम्मान देने की बात करता है जबकि भारतीय संस्कृति में आदि काल से महिला स्वयं ईश्वरीय शक्तियों से युक्त जन्म से पूजनीय एवं सम्माननीय ही नही बताई गई है बल्कि उसे देवी का दर्जा भी प्राप्त है।
हमारी संस्कृति हमारे लिए गर्व का विषय है और यह हमारा दायित्व है कि इसका खोया गौरव लौटाने मे हम सभी जितना योगदान कर सकते हैं करें।
डॉ. नीलम महेंद्र
1 टिप्पणी:
Vistrit vyakhyA..
Prashanshniya.
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