मंगलवार, 17 जून 2014

गूँथ स्वयं को रोज, बनाती माता रोटी


रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |
हर बेला सिकती रही, कभी न करती आह |

कभी न करती आह, हमेशा भूख मिटाती |
रहती बेपरवाह, आंच से नहिं अकुलाती । 

 कह रविकर कविराय, बात करता नहिं छोटी |
 गूँथ स्वयं को रोज,  बनाती माता रोटी |

2 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

वाह!!! बहुत ही सुंदर रचना ...

Sanju ने कहा…

बहुत ही शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
बधाई

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