शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

बेटी का हक़ -कहानी

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बेटी का हक़ -कहानी 



सेवानिवृत बैंक-अधिकारी आस्तिक ने तौलिये से गीला चेहरा पोंछते हुए अपनी धर्मपत्नी मंजू से कहा - 'हर दहेज़ -हत्या के जिम्मेदार ससुरालवालों से ज्यादा लड़की के मायके वाले होते हैं . तुम मेरी बात मानों या ना मानों पर सच यही है . कितनी ही विवाहित बेटियां मौत के मुंह में जाने से बच जाती यदि उनके मायके वाले ससुराल से तिरस्कृत बेटियों को  बार-बार धक्का देकर  उसी नारकीय ससुराल में न धकेलते ; जो उन्हें साँस तक लेने की इज़ाज़त नहीं देता .'' मंजू आस्तिक की की बात पर बिफरते हुए बोली -'' मैं कुछ नहीं जानती .मेरे पेट में तो हॉल हो रही है ...पता नहीं पूजा कैसी होगी वहां  ? मैंने कहा था उससे -बेटा पहुँचते ही फोन कर देना पर ....साँझ ढलने आ गयी और उसका फोन अब तक नहीं आया .मैं भी फोन नहीं मिला सकती .पूजा के ससुराल का मामला है क्या पता शुभम को पसंद न आये ? हे भगवान ! मेरी बच्ची के रक्षा करना .''
मंजू के भगवान के आगे हाथ जोड़ते ही आस्तिक भड़क उठा -'' अब ये सब रहने दो .मैं चाहता था कि पूजा किसी अच्छी नौकरी में लग जाये तभी ब्याह करूंगा पर तुम्हारी जिद के कारण पूजा की बी.एस.सी  पूरी होते ही उसके लिए लड़के देखने शुरू कर दिए और अब भी तुम्हारी ही जिद पर शुभम जैसे दामाद के साथ भेजा है उसे ....पर एक बात याद रखना यदि इस बार शुभम ने पूजा पर हाथ उठाया तो अपनी बेटी को हमेशा के लिए यही ले आऊंगा ...भाड़ में जाये तुम्हारा समाज और तुम्हारी बिरादरी .'' अपनी इकलौती बिटिया की चिंता में फुंकारता  हुआ आस्तिक मंजू को लगभग घूरता हुआ उस कमरे से दुसरे कमरे की ओर बढ़ लिया . मंजू बेमन से रसोईघर में चली गयी .मन में विचारों की आँधियाँ चलने लगी मंजू के . उसके मन में आया - क्या गलती मेरी ही है ? जब मैं ब्याह कर आई थी तब सासू माँ के ताने मैंने भी सहे थे .इनसे जुबान लड़ाने  पर थप्पड़ मैंने भी खाया था .ससुर जी ने पिता जी से बहुत ज्यादा दहेज़ की आस पाली थी पर मेरे पिता जी तो कम्युनिस्ट पार्टी  से विधायक बने थे .उनका ऊँचा रुतबा था पर नकद पैसा , जमीन-जायदाद ...ये सब कहाँ था पिता जी पर ! मैं भी मायके गयी थी यहाँ से गुस्से में पर तब माँ ने ही समझाया था कि बिटिया घर-गृहस्थी में ये सब चलता रहता है .रोज़ नाक कटती है और रोज़ जुड़ती है फिर पूजा के मामले में एकदम दहेज़-हत्या तक की सोचकर क्या शुभम से उसका तलाक करवा दूँ . ना मेरे संस्कार नहीं हैं ऐसे .'' मंजू के ये सोचते -सोचते ही उसका मोबाइल बज उठा .पूजा का ही फोन था .पूजा की आवाज़ घबराई हुई सी आ रही  थी पूजा ने बताया कि ससुराल पहुँचते ही शुभम ने बैडरूम में ले जाकर उसकी बेल्टों से पिटाई की और बोला -'' अपने घर में बड़ी लम्बी जुबां निकलती है तेरी .चार लाख लाने  को कहा था लाने को..एक कौड़ी भी नहीं लाई ...और हाँ क्या कह रही अपने बाप से ..मैंने थप्पड़ मारा था तेरे .....ले अब बेल्टें खा ..बोल करेगी शिकायत हमारी ..फूंक के डाल दूंगा तुझे ..इकलौती संतान है तू ..उनकी सारी संपत्ति -पैसा मेरा है ..समझी ...'' और सास व् ससुर चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे . किसी तरह बैडरूम से भागकर वो पाखाने में घुस गयी और उसका किवाड़ अंदर से बंद कर लिया .मोबाइल उसने ब्लाउज में छिपा रखा था जिससे वो फोन कर पाई . मंजू पूजा की बातें सुनकर बस इतना ही दिलासा उसे दे पाई -'' तू डर मत  पूजा ..मैं और तेरे पापा आ रहे हैं .'' ये कहकर मंजू रसोईघर से धड़धड़ाते हुए निकली और आस्तिक को पुकारते हुए बोली -'' अजी सुनते हो जी .....गाड़ी निकालो ..अब एक मिनट की भी देर ठीक नहीं ....वे मार डालेंगें मेरी बच्ची को .'' मंजू की घबराई हुई आवाज़  सुनकर आस्तिक हड़बडाता हुआ मंजू के पास वहीँ आया  और सारी बात जानकर उसका खून खौल उठा .उसने तुरंत कार की चाबी उठाई और मंजू से बोला -'' मैं कार निकलता हूँ गैरेज से तुम घर बंद करो .'' मंजू ने झटाझट सब बंद किया और आस्तिक के मेन  गेट से कार बाहर निकालते ही उस पर भी ताला ठोंक दिया .मंजू के कार में बैठते ही आस्तिक ने कार स्टार्ट की और दोनों अपनी बच्ची के सलामती की दुआ मनाते हुए पास के ही शहर में उसकी ससुराल के लिए रवाना हो लिये .एक घंटे का  सफर तय कर मंजू व् आस्तिक जब पूजा की ससुराल पहुंचे तब रात के आठ बजने आ गए थे और बेटी के ससुराल के घर के बाहर काफी भीड़ जमा थी .उस भीड़ को देखकर बेटी के अशुभ का विचार कर मंजू और आस्तिक का दिल बैठ गया.वे भीड़ को चीरते हुए घर की भीतर पहुंचे .इकठ्ठा भीड़ में से कोई चिल्लाया -'' अरे किवाड़ तोड़ दो पाखाने का .....बेचारी पागल बहू वहीं बंद है !'' आस्तिक ने देखा शुभम और उसके पिता जी पाखाने का किवाड़ पीट रहे हैं और पूजा की सास वहीं जमीन पर नीचे बैठ कर सिर पकड़कर तमाशा कर रही है .आस्तिक ने आगे बढ़कर शुभम  को धक्का देकर हटाया और चीखते हुए बोला -'' हरामजादो ...पागल मेरी बेटी नहीं तुम हो ..पूजा ..पूजा बेटा बाहर आ जा ..मैं आ गया हूँ बेटा ....अब तेरे खरोंच तक नहीं लगने  दूंगा. अब तेरी माँ की भी  बात नहीं सुनूंगा ...तू बाहर आ जा पूजा !'' आस्तिक के ये कहते ही पाखाने के किवाड़ खुले और बेल्टों से लहूलुहान देह के साथ बेसुध पूजा उससे आकर लिपट गयी .मुंह से बस इतना निकला -'' पापा मुझे यहाँ से ले चलो !'' ये कहते-कहते ही बेहोश होकर पूजा आस्तिक की बाँहों में झूल गयी . मंजू ने आगे बढ़कर उसे संभाला तभी भीड़ से निकल कर एक सज्जन आये और बोले -'' मैं डॉक्टर हूँ ..पास ही मेरी क्लीनिक है आप बिटिया को वहीं ले चलिए !'' आस्तिक ने वहां उपस्थित भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा -'' भाइयो ..माताओं  ..मैं अपनी बिटिया को जरा इलाज के लिये लेकर जा रहा हूँ ..आप ध्यान रखें ये अपराधी कहीं भाग न पाएं !'' उस भीड़ में से एक युवक ने आगे बढ़ कर कहा -'' आप चिंता न करें ..हमने पुलिस को फोन कर दिया है वे आते ही होंगें .हमें तो पहले ही शक था था कि ये पूजा बहन को प्रताड़ित करते हैं पर आस-पड़ोस के लिहाज़ के कारण हम बोलते नहीं थे .आज ये बच नहीं पायेंगें .'' उस युवक के ये कहते ही कितने ही युवक शुभम  ,उसके पिता को पकड़ कर सड़क पर ले आये और जूतो-चप्पलों से उनकी मरम्मत करने लगे .तभी पुलिस का साइरन सुनाई दिया और पुलिस की जीप रुकते ही भीड़ तितर-बितर होनी शुरू हो गयी .कुछ युवकों ने पुलिस को सारा मामला समझाया तो पुलिस शुभम  और उसके माता-पिता को गिरफ्तार कर थाने ले गयी .
                 उधर आस्तिक व् मंजू पूजा को लेकर क्लीनिक पहुंचे .पूजा का सारा शरीर बेल्ट से पिटाई के कारण नीला पड़ा हुआ था .डॉक्टर साहब के इंजेक्शन लगाने के थोड़ी देर बाद पूजा को होश आया .पूजा के होश में आते ही मंजू उसके आगे हाथ जोड़ते हुए बोली -'' बिटिया मुझे माफ़ कर दे ..मैंने ही तेरे पापा से जिद कर तुझे वापस ससुराल भेजने की विनती की थी ...मैंने ही कहा था तेरे पापा से कि पूजा को ससुराल भेज दो वरना  बिरादरी में बेइज्जती होगी .मैं समझ नहीं पाई कि ससुरालिये पैसे के लालच में मेरी बेटी को जान से मारने पर ही उतारू हो जायेंगें .ब्याह के पांच महीनों में ही इन्होनें अपना राक्षसी रूप दिखा दिया . जिस बच्ची पर मैंने माँ होकर भी हाथ नहीं उठाया उसे इतनी बुरी तरह मारा ....पर  चिंता  न कर लाडो ....तेरे पापा की ही चलेगी अब .तू अपने पैरो पर खड़ी होगी ..आज से ही मैं अपने दकियानूसी विचारों को स्वाहा करे देती हूँ ..और अगर बिरादरी का कोई कुछ कहेगा तब मैं पूछूंगी उससे कि यदि मेरी बेटी को ससुरालिये जलाकर मार देते ..फांसी पर चढ़ा देते तब तुम दो शब्द सहानुभूति के जता कर चले जाते पर उससे मेरी लाडो वापस आ जाती क्या ? औरत का धर्म निभाना है ,सहना है पर हर बात की एक सीमा होती है ,जब कोई दूसरा उस सीमा को पार करने के लिए विवश कर दे तब हमारे संस्कार भी हमें विद्रोह की आज्ञा देते हैं .'' मंजू की ये बातें सुन बैड पर लेटी हुई पूजा ने आस्तिक की ओर देखा तो आस्तिक पूजा के सिर  पर स्नेह से हाथ फेरते हुए बोला -'' तेरी माँ की सोच बदल गयी बस ये समझ सारी दुनिया बदल गयी .बेटी का विवाह कर देने से बेटी के माता-पिता का कर्तव्य पूर्ण नहीं हो जाता. यदि ससुराल में वो परेशान की जाती है तब उसका हक़ है कि वो मायके में आकर रहे ..उसी गरिमा के साथ जैसे विवाह के पूर्व रहती थी ....अब तू मजबूत बनकर जीवन में आने वाली सारी चुनौतियों से कह दे कि -मैं तैयार हूँ तुमसे लड़ने के लिए क्योंकि मेरे माँ-पापा मेरे साथ हैं .'' आस्तिक के ये कहते ही पूजा की आँखें भर आई और मंजू ने झुककर उसका माथा चूम लिया .

शिखा कौशिक 'नूतन'

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

''दर्शन-प्रवचन -सेवा''-लघु कथा

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''दर्शन-प्रवचन -सेवा''-लघु कथा 



चलने फिरने से लाचार सुशीला ने अपने  कमरे में पलंग पर पड़े-पड़े ही आवाज़ लगाईं -'' बिट्टू .....बिट्टू '' इस पर छह साल का प्यारा सा बच्चा दौड़कर आया और चहकते हुए बोला -''..हाँ दादी माँ !''  सुशीला कराहते हुए बोली -''बेटा तेरी माँ कहाँ है ?उससे बोल बेटा कि दादी को चक्कर आ रहे हैं .'' बिट्टू दादी की बात सुनकर '' मम्मी..मम्मी !!'' चिल्लाता हुआ माँ के कमरे की ओर दौड़ा .बिट्टू की मम्मी नई साड़ी पहनकर कहीं जाने की तैयारी कर रही थी .बिट्टू मम्मी का हाथ पकड़ते हुए बोला -'' मम्मी दादी माँ को चक्कर आ रहे हैं .'' ये सुनते ही बिट्टू की मम्मी ने जैसे-तैसे साड़ी को लपेटा और सासू माँ के पास पहुँच गयी .सासू माँ के हाथ-पैर ठंडे देख वो फटाफट एक गिलास दूध गर्म कर लायी और अपने सहारे बैठाकर सासू माँ को धीरे-धीरे गिलास उनके होठों से लगाकर दूध पिलाने लगी .थोड़ी देर में सुशीला की तबीयत में सुधार हुआ और चक्कर आने बंद हो गए .बहू को नई साड़ी में देख सुशीला हौले से बोली - बहू कहीं जाने के लिए तैयार हो रही थी क्या ?'' इस पर बिट्टू की मम्मी सासू माँ के सिर की मालिश करते हुए बोली - ''हाँ माँ जी ..वो आज परम श्रद्धेय ज्ञानार्णव जी महाराज पैदल यात्रा करते हुए हमारे नगर में आगमन कर रहे हैं .उनके स्वागत हेतु समाज के लोग चौराहे पर पहुँचने के लिए कह गए थे पर आपकी तबीयत ठीक न देखकर मैंने जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया .महाराज जी भी तो कहते हैं हमारे दर्शन -प्रवचन से बढ़कर है -घर में बड़ों की सेवा करना .मैंने ठीक किया ना माँ जी ?'' सुशीला के चेहरे पर संतोष के भाव आ पसरे और वो बहू की हथेली अपनी  हथेली में लेते हुए बोली -''बिलकुल ठीक किया बेटा !''

शिखा कौशिक 'नूतन'

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

लड़की के जन्म पर ..उदास हो जाते हैं .


लड़की के जन्म पर .. 

लड़की के जन्म पर 
उदास क्यों हो जाते हैं 
परिवारीजन ?
क्यों उड़ जाती है 
रौनक चेहरों की
और क्यों हो जाती है 
नए मेहमान के आने की ख़ुशी कम ?
शायद सबसे पहले मन 
में आता है ये 
हमसे जुदा होकर 
चली जाएगी पराए घर ,
फिर एकाएक घेर लेती 
है दहेज़ की फ़िक्र ;
याद आने लगती हैं 
बहन बुआ ,पड़ोस की 
पूनम-छवि के साथ घटी 
अमानवीय घटनाएँ !
ससुराल के नाम पर 
दिखने लगती है 
काले पानी की सजा ;
फिर शायद ह्रदय में यह 
भय भी आता है कि
हमारी बिटिया को भी 
सहने होंगे समाज के 
कठोर ताने -''सावधान 
तुम एक लड़की हो ''
किशोरी बनते ही तुम एक देह 
मात्र रह जाओगी ,
पास से गुजरता पुरुष 
तुम पर कस सकता है तंज 
''यू आर सेक्सी ''
इतने पर भी तुम गौर न करो तो 
एक तरफ़ा प्यार के नाम पर 
तुम्हे हासिल करना चाहेगा ,
और हासिल न कर सका तो 
पराजय की आग में स्वयं 
जलते हुए तुम पर तेजाब 
फेंकने से भी नहीं हिचकिचाएगा ;
इतने भय तुम्हारे जन्म के साथ 
ही जुड़ जाते हैं इसीलिए 
शायद लड़की के जन्म पर 
परिवारीजन 
उदास हो जाते हैं .
                                 शिखा कौशिक 

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

''स्वयं निर्णय लो ''


 

 ''स्वयं निर्णय लो ''-लघु कथा

''जूली बेटा ये क्या पहना है ?''  माँ ने मिनी स्कर्ट-टॉप पहनकर कॉलेज  जाती सत्रह वर्षीय बिटिया को टोकते हुए कहा . ''मॉम आजकल यही फैशन है .कल मैं सलवार कुरता पहनकर गयी तो मेरी सब फ्रेंड्स मुझसे बोली-आज बहन जी बनकर क्यों आई हो ?......हाउ बैकवर्ड लुकिंग ! '' जूली की माँ उसके कंधें पर हाथ रखते हुए बोली -''बेटा जब मैं पढ़ती थी तब मेरे रहन-सहन पर भी मेरे  साथी छात्र-छात्राएं फब्तियां कसा करते थे पर मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की क्योंकि तुम्हारी नानी ने मुझे समझाया था कि आधुनिक हम फैशन के कपड़ों से नहीं बल्कि अपनी सोच व् विचारों से बनते हैं .मैंने सदैव मर्यादित वस्त्र धारण किये .अब तुम स्वयं निर्णय लो कि तुम्हे क्या पहनना  चाहिए ?''ये कहकर जूली की  माँ अपना स्टेथोस्कोप लेकर अपने क्लिनिक के लिए निकल गयी !
                              शिखा कौशिक 'नूतन'

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

औरत



ये औरत ही है !


पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती  है जननी 
औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .
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बना न ले कहीं अपना वजूद औरत 
कायदों की कस दी  नकेल जाती है .

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मजबूत दरख्त बनने नहीं देते  
इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .
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हक़ की  आवाज जब भी  बुलंद करती है 
नरक की आग में धकेल दी जाती है 
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फिर भी सितम  सहकर  वो   मुस्कुराती  है 
ये औरत ही है जो हर  ज़लालत  झेल  जाती  है .



                                          शिखा कौशिक 
                           [vikhyaat  ]







शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

लघु कथा ....नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ... डा श्याम गुप्त....



                                       लघु कथा ....नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ...

                    रसोई घर में प्रवेश करते ही मुझे अपनी बेटी राशिका की बरबस याद आजाती है और साथ में उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा | जाने कितने शो रूम्स डिजायनें देखकर चुनाव किया था बिटिया ने इन विशेष एब्सोल्यूट डिजायन वाली टाइल्स का | मकान बनाने की प्रक्रिया में किचिन, बाथरूम, फर्श आदि हेतु टाइल्स आदि का कितने धैर्य,लगन, रूचि, ममत्व अधिकार से चयन किया था राशिका ने, जिन्हें त्याग कर एक दिन उसे जाना ही था, सभी की भांति|

          मैं सोचने लगा कैसा त्याग, तप, साधना, धैर्य, धर्म, जिजीविषा कर्म पूर्ण जीवन है नारी का| और उस सबके साथ युक्त होता है...उन सब में अनुप्राणित होता है, प्रेम..... जाने कितने रूपों में, जो जड़ को चेतन बनाने में सक्षम है | क्या यह काम्यता के साथ साथ अकाम्य जीवन-भाव नहीं है |

          विचार आगे बढ़ता है ... बचपन से युवावस्था तक के अति-महत्वपूर्ण काल में माता-पिता के घर में जाने कितनी काम्यता, ममत्व, मनोयोग, रूचि, धैर्य से सभी की सेवा, सहयोग से एक-एक वस्तु के चुनाव, सजावट से. सर्जनात्मकता से घरोंदों का निर्माण करती है नारी | और फिर सब कुछ त्यागकर, जिसका उसे सदा अहसास भी रहता ही है, एक पल में चल देती है एक अनजान डगर पर, एक अन्य भाव के प्रेम की चाह विश्वास में, परन्तु वैश्विक परमार्थ, नव-सृजन एवं प्रकृति प्रवाह हेतु | त्याज्य जानकर भी ममत्व से यथोचित कर्म ही तो निष्काम्यता, तप, साधना है, विराग है, योग है | और यदि इसी चाह में उसे छला जाता है, उसके विश्वास, आशा आस्था को छला जाता है, तो कितनी आत्म-व्यथा, उत्प्रीडन पीड़ा को आत्मसात करना होता होगा, इसकी कल्पना कहाँ की जा सकती है | 

           स्मृति में राष्ट्रकवि और उनकी पंक्तियाँ तैरने लगती हैं....

                                अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
                                  आँचल में है दूध और आँखों में पानी |”

            मैं सोचने लगा कि गुप्तजी ने एसा क्यों कहा होगा, शायद समकालीन अशिक्षा, अत्याचार, उत्प्रीणन, प्रतारणा, अनाचरण  अंधविश्वासों का दंश झेलती नारी के परिप्रेक्ष्य में जो बहुत कुछ आज भी है |  परन्तु मैं सोचता हूँ कि इसे यदि हम इस प्रकार सोचें कि ...माँ के ममत्व दुग्धामृत रूपी संसार की सृजन, पालन तारतम्यता, क्रमिकता की शक्ति स्वयं में समाये हुए, बचपन युवावस्था की प्रेमिल कर्ममयी स्मृतियों रूपी एवं भविष्य की आशा, आकांक्षा, कल्पना रूपी नीर को नयनों में बसाए हुए...सब कुछ प्राप्त करके फिर उसे त्याग करके चल देने वाला नारी जीवन क्या कर्ममय तप साधना योग पूर्ण जीवन नहीं है |  पति गृह जाकर फिर वही ईंट-ईंट जुटा कर नवीन घरोंदा तैयार करती है और पुनः एक दिन वह सब  कुछ भी छोड़कर बेटे को, एक अन्य स्त्री ..पुत्र-वधू को सोंप देती है | यही नारी का जीवन-क्रम है| यद्यपि यह संस्कारित क्रम है...समाज द्वारा सृजित और चलता  सृष्टि-क्रम की भाँति है...परन्तु नारी के प्रेम से अनुप्राणित तप, त्याग, साधना के बल पर ही तो |

            विचार क्रम आगे बढ़ता है ..क्या नारी जीवन सच्चे अर्थों में ईशोपनिषद में दिए हुए भारतीयता के मूल मन्त्र  तेन त्यक्तेन भुंजीथा  एवं " विद्या सह अविद्या यस्तत वेदोभय सह " अथवा " सम्भूतिं असम्भूतिं यस्तद्वेदोभय सह " को चरितार्थ नहीं करता ...संसार, अर्थ, काम,ममत्व के साथ-साथ ज्ञान,धर्म ,नैष्काम्य कर्म ..तप और त्याग का जीवन | तो फिर हम क्यों नहीं जयशंकर प्रसाद के उद्घोष ..”नारी तुम केवल श्रृद्धा हो का  स्मरण कर उसे श्रृद्धा-रूप स्वीकार करके उसे मानव के, संसार के स्वयं उसके अपने जीवन के सुन्दर समतल में पीयूष श्रोत के समान बहने में उसकी तप-साधना में सहयोगी होते हैं | क्यों  अत्याचार, अनाचार दुष्कर्मों द्वारा उसके जीवन की बाधा बनते हैं, बन रहे हैं.... आखिर हम कब  ....... |

        अरे ! इतनी देर से बेसिन के सामने खड़े हुए दीवार को क्या घूरे जारहे हो | क्या सोच रहे हो .... अचानक श्रीमती जी आवाज से मैं चौंक पड़ता हूँ, फिर मुस्कुराकर पूछता हूँ ..

       ये टाइल्स राशिका सिलेक्ट कर के लाई थी ?

      ओह! तो यह बात है, बेटी की याद आरही है | कह देते हैं कि दोनों कुछ दिन के लिए यहाँ आकर रह जायं |