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शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

महिमामयी.......कविता ...डा श्याम गुप्त ...

कितनी  गरिमामयी हो गयी हो, तुम ,
कितनी महिमामयी होगई हो, तुम ;
नारीत्व का उच्चतम रूप पाकर |
मातृत्व की महान पदवी,
नारी जीवन की चिर आकांक्षा ,          
विश्व की किसी भी-
"पद्मश्री"   से बढ़ कर है |

यह उपनिषद् के  महान मन्त्र  को ,
जीवन के  महान सत्य को,
सबसे उज्जवलतम रूप में,
प्रस्तुत करती है,  जहां--
आत्म से आत्म मिलकर,
आत्ममय होजाता है ; और--
पुनः आत्म से --
नए आत्म का जन्म होता है ;
आत्म फिर भी आत्म रहता है |
यथा --पूर्ण से पूर्ण मिलकर ,
पूर्ण ही रहता है |
पूर्ण  से पूर्ण घटने पर भी-
पूर्ण ही शेष रहता है |

ब्रह्म सदैव पूर्ण है  |
आत्म सदैव पूर्ण है |
जीव से मिलने से पहले भी,
जीव से मिलने के बाद भी ;
जीव स्वयं पूर्ण है |

अतः --पूर्णाहुति के बाद भी ,
वही पूर्ण रहकर,
कितनी गरिमामयी होगई हो तुम |
कितनी महिमामयी होगई हो तुम |
कितनी  सम्पूर्ण  होगई  हो तुम  ||               (---काव्य दूत से )