स्त्री –पुरुष विमर्श – मेरी अपनी बात... ....
समकालीन
साहित्य में महिला विमर्श एक अत्यन्त लोकप्रिय विषय है। महिला-विमर्श पर
विवेचना साहित्यकारों को खूब भा रही है, यद्यपि इसकी जड़ें पुराकाल से ही भारतीय दर्शन में मिलती
हैं। यजुर्वेद के राष्ट्रीय प्रार्थना के मंत्र
में कहा गया है कि -पुरन्धिर्योषा आ जायताम् , अर्थात् नारी ही राष्ट्र के जीवन का सुदृढ आधार है।
ऋग्वेद 1/79/1 में ऋषि
उद्धोष करते हैं—
‘शुचिभ्राजा उपसो नवेदा यशस्वतीर पस्युतो न सत्य: | ‘
---श्रद्धा, प्रेम,
भक्ति, सेवा, समानता की प्रतीक नारी पवित्र, निष्कलंक, आचार के प्रकाश से सुशोभित, प्रातःकाल के सामान ह्रदय को पवित्र करने वाली,
लौकिक, कुटिलता से अनभिज्ञ, निष्पाप, उत्तम, यशमुक्त, नित्य, उत्तम कार्य की इच्छा करने वाली, संकर्मण्य और सत्य व्यवहार करने वाली देवी है।
मानव इतिहास
में प्रारम्भ से ही नारी परिवार का केन्द्र बिन्दु रही है। उन दिनों परिवार मातृसत्तात्मक था। खेती की शुरूआत तथा एक जगह बस्ती बनाकर रहने की शुरूआत नारी ने ही की थी इसीलिए सभ्यता और
संस्कृति के प्रारम्भ में नारी है | कालान्तर में धीरे धीरे सभी समाजों में
सामाजिक-व्यवस्था मातृसत्तात्मक से पितृसत्तात्मक होती गयी और
नारी समाज के हाशिये पर होती गयी |
नारी
शब्द की व्युत्पत्ति नृ धातु से हुई है। ऋग्वेद में नृ धातु का प्रयोग नेतृत्व के
रूप में हुआ है। ऋग्वेद में स्त्री को
ब्रह्मा भी कहा गया है- स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ। इसका अभिप्राय यह है कि वह बालकों को
शिक्षण देने के अतिरिक्त यज्ञ में भी ब्रह्मा का स्थान ग्रहण कर सकती है और
विभिन्न संस्कारों को करा सकती है।
ऋग्वेद के अनुसार माता सर्वाधिक घनिष्ट और
प्रिय सम्बन्धी है। भक्त परमात्मा को
पिता की अपेक्षा माँ कहकर अधिक सन्तुष्ट होता है। यही कारण है कि प्रारम्भिकतम काल
में ईश्वर के रूप में सर्वप्रथम मातृदेवी की अवधारणा की गयी तथा उन्हें
सम्मान प्रदान करते हुए प्रथम पूज्य ईश्वर के रूप में माना गया। अनेक ग्रंथों
में सृष्टि की सर्जक के रूप में आदि शक्ति का प्रत्याख्यान आता है, जिससे स्पष्ट है कि सर्वप्रथम ईश्वर के रूप में महिला
का ही अंकन कल्पित किया गया।
माता-पिता का समास- माता को प्रथम स्थान
देता है। वेद ने माता को गुरु की संज्ञा दी है| शिशु की प्रथम गुरु माँ ही होती है |
ऋग्वेद के देवी
सूक्त १०.१४५ में ब्रह्माण्ड के सृष्टि व लय के बारे में वर्णन है |
आर्यों /सनातन भारतीय ऋषियों ने अनादिकाल से ही मातृशक्ति के दैवीय प्रभाव के
मातृत्व की आराधना की है जो अदिति, देवों की माता के रूप में है, जो अखंड
ऊर्जा का रूप भी है | यह मातृशक्ति त्रिविध रूप में प्राकट्य में है –इला, सरस्वती व भारती | इला, अन्न अर्थात पृथ्वी के पोषण की
अधिष्ठात्री; सरस्वती अर्थात आद्यात्मिक व बौद्धिक अधिष्ठात्री एवं भारती,
अर्थात भारतमाता,
राष्ट्र की अधिष्ठात्री| राष्ट्र के लिए यह माता का भाव पश्चिम
को ज्ञात नहीं है | भारत से अन्यथा सभी विश्व में राष्ट्र को पितृभूमि कहा जाता
है| तो यह है नारी की महत्ता की गाथा विश्व की सर्वश्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था, भारत
में |
भारतीय
सभ्यता और संस्कृति के प्रारम्भिक काल में महिलाओं
की
स्थिति बहुत सुदृढ़ थी। ऋग्वेद काल में स्त्रियां उस समय की
सर्वोच्च
शिक्षा अर्थात् बृह्मज्ञान प्राप्त कर सकतीं थीं। ऋग्वेद
में सरस्वती को
वाणी की देवी कहा गया है जो उस समय की नारी की शास्त्र एवं
कला के क्षेत्र
में निपुणता का परिचायक है।
भारत में सदा
ही नारी को अत्यन्त उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया गया, उसे लक्ष्मी, देवी, साम्राज्ञी, महिषी आदि
सम्मानसूचक नामों से अभिहित किया जाता रहा है। भारतीय समाज ‘यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र
देवता’ सिद्धान्त का अुनगामी रहा है। अथर्ववेद में नारी के
सम्मान प्रदर्शक एक श्लोक प्रस्तुत है -
अनुव्रतः पितुः पुत्रो माता भवतु सम्मनाः।
जाया परये मतुमतीं वाचं यददु शान्तिवाम्।।1
---अर्थात--पुत्र पिता का अनुव्रती,
अर्थात अनुकूल कर्म करने वाला आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने
वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।
अर्द्धनारीश्वर की कल्पना, स्त्री और पुरूष के समान अधिकारों तथा उनके संतुलित संबंधों का परिचायक है। वैदिक काल में परिवार के सभी कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। नारियां शिक्षा ग्रहण करने के अलावा पति के
साथ यज्ञ का सम्पादन भी करतीं थीं। वेदों में अनेक स्थलों पर घोषा,
सूर्या, अपाला, विलोमी, सावित्री, यमी, श्रद्धा, कामायनी, विश्वम्भरा, देवयानी आदि विदुषियों
के नाम प्राप्त होते हैं। पौराणिक आख्यान कहते हैं कि नारी को अनादिकाल से नैसर्गिक अधिकार स्वत: ही
प्राप्त हैं। कभी मांगने नहीं पड़े हैं। वह सदैव देने वाली है। अपना सर्वस्व
देकर भी वह पूर्णत्व के भाव से भर उठती है।
शास्त्रों में कहा है कि- शुद्धाः पूताः पोषिता यज्ञिया इमाः
अर्थात् स्त्रियां शुद्ध हैं पवित्र हैं पूजनीय है और यज्ञ में पुरूष की
अर्धांगिनी है। वैदिक काल में ‘परिवार’ नामक संस्था अत्यधिक विकसित एवं पल्लवित थी | भारतीय एक परिवार के रूप में इकाई बनकर रहते थे, सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा
थी।
पूनीया महा भागाः पुण्याश्च गृहदीप्रयः।
स्त्रियः श्रियःगृहस्योक्तास्तस्माद् रक्ष्या।।
महर्षि मनु के इस श्लोक का
स्पष्ट अभिप्राय है कि स्त्रियाँ पूजनीय हैं, भाग्यशालिनी हैं, पवित्र हैं, घर का प्रकाश हैं, गृहलक्ष्मी हैं, अतः उनकी रक्षा विशेष प्रयत्न से करने
योग्य है। नारी के महत्व को अन्य श्लोक द्वारा इस प्रकार से घोषित किया
गया है।
उपाध्यायदशाचार्य, आचार्यणां
शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृमाता,गौरवेणातिरिच्यते।। ---अर्थात् दश उपाध्यायों के बराबर आचार्य है, और सौ आचार्यों के बराबर पिता है, तथा एक सहस्र पिताओं से अधिक माता है अतः माता या नारी का महत्व सर्वाधिक है।
देवी भागवत
के अनुसार - 'समस्त
विधाएँ,
कलाएँ, ग्राम्य देवियाँ और सभी नारियाँ इसी आदिशक्ति की अंशरूपिणी
हैं।
देवी कहती हैं -
'अहं राष्ट्री संगमती बसूना, अहं
रूद्राय धनुरातीमि'
अर्थात् - 'मैं ही राष्ट्र को बांधने और ऐश्वर्य देने वाली शक्ति हूं । मैं
ही रूद्र के
धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। धरती,
आकाश में व्याप्त हो मैं ही मानव त्राण के लिए संग्राम करती हूँ।' विविध अंश रूपों में यही आदिशक्ति सभी देवताओं की परम शक्ति कहलाती हैं, जिसके बिना वे सब अपूर्ण हैं, अकेले हैं, अधूरे हैं। इस प्रकार शील, शक्ति और शौर्य का विलक्षण
संगम है भारतीय नारी ।
महाभारत काल
में भी पुत्र एवं कन्याओं में बहुत अन्तर नहीं माना जाता था--- 'यथैवात्मा
तथा पुत्र पुत्रेण दुहिता समा।‘ एवँ नारी
को बहुत प्रशंसा करते
हुए कहा गया है -
‘अर्द्ध भार्या मनुष्यस्य भार्या
श्रेष्ठतमः सखा।
भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मूलं
तरिष्यतः। ‘
---- भार्या ही मनुष्य का आधा अंग है, श्रेष्ठ
सखी है, धर्म
अर्थ एवं काम ये तीनों भार्या के अधीन है, हर कार्य में भार्या पुरूष की सहायिका है।
यह
भाव भारतीय नारी में आज भी उपस्थित है इसीलए ‘पश्चिमी समाज की महिलाओं को आश्चर्य होता है कि भारत की महिलाएँ पति में इतनी आस्था
कैसे रखती हैं? उनके प्रति इतना विश्वास उनमें क्यों होता है कि वे उनकी पूजा तक करती हैं।
भारत में विवाह जन्म-जन्म का पवित्र रिश्ता होता है जबकि पश्चिम में यह एक समझौता । अतः जो जन्म-जन्म का रिश्ता है वह स्थित दीर्घजीवी
बल्कि अमर होता है। वह अनेक जन्मों तक चलता रहता है। इसलिए उसके प्रति गहरी आस्था विश्वास
होना स्वाभाविक है और इसलिए पति परमेश्वर भी हो जाता है। हालांकि रिश्ता दो तरफा है
| इसलिए पत्नी का भी इतना ही महत्त्व
होना चाहिए, जितना पति का होता है, यानी पति अगर परमेश्वर है तो पत्नी को भी देवी होना चाहिए। यूँ तो भारतीय नारी
को देवि का दर्जा प्राप्त है | अतः भारतीय समाज में दाम्पत्य की गहरी नींव का श्रेय महिलाओं को ही जाता है।'' स्त्रियों का ही
यह दायित्व भी है कि
पुत्र पैदा
करके उनके
अंदर यह
संस्कार भी
डालें कि
वह देश, राष्ट्र, संस्कृति व स्त्रियों का सम्मान
करना सीखें।
मुस्लिम आक्रमण के पश्चात भारतीय समाज में सामयिक परिस्थितियों व कालानुसार विभिन्न कुरीतियाँ आईं | विभिन्न कारणों से बाल विवाह की कुरीति को समाज ने अपना लिया जिससे न केवल ब्रहमचर्य आश्रम लुप्त हो गया बल्कि शरीर का सही ढंग से विकास न होने के कारण एवं छोटी उम्र में माता पिता बन जाने से संतान भी कमजोर पैदा होती गयी जिससे हिन्दू समाज दुर्बल से दुर्बल होता गया | नारी की स्थिति भी असहाय व दुर्बल होती गयी |
आज से लगभग सवा सौ
साल पहले स्त्री विमर्श पर माने गए प्रथम
उपन्यास श्रद्धाराम फिल्लौरी का ‘भाग्यवती’ से लेकर आज तक स्त्री विमर्श ने लगातार आगे कदम बढ़ाया है | आज स्त्री सशक्तिकरण के जो भी प्रश्न समाज में प्रकट हो रहे हैं, साहित्य उनसे निरपेक्ष नहीं रह सकता। यद्यपि हर काल में
स्त्रियों के सशक्तीकरण के प्रश्न बदलते रहे है।
नवजागरण काल से साहित्य में विविध
नारी पात्रों की रचना हुई है जो नारी के शोषण, अन्याय अत्याचार, विभिन्न समस्याएँ, उनसे मुक्ति व
अपने स्व की खोज को व्यक्त करते
हैं। स्त्री के प्रति पुरुष की सोच का प्रस्तुतीकरण एवं पश्चिम के अति-नारीवाद के प्रभाव से बाजारवाद
के युग में स्त्री का एक वस्तु मात्र रह
जाना आदि का भी प्रस्तुतीकरण हुआ है |
महिला लेखकों की स्त्री विषयक पुस्तकेँ काफी चर्चित होरही हैं तो स्त्री विषयों पर पुरुष लेखक भी रचनारत हैं|
स्त्रियों को समाज की अग्रगामी धारा में जोड़ने में इन महिला आंदोलन ने प्रमुख
भूमिका निभाई है।
यद्यपि यह अति-नारीवाद भी खतरों से खाली
नहीं है, यदि इस सशक्तीकरण को सामंजस्यपूर्ण तरीके से नहीं निभाया गया| जैसा उपन्यास इन्द्रधनुष की उदात्त गुणों युत
नायिका का कथन है -- स्त्री स्वतन्त्रता सिर्फ पुरुषों के साथ कार्य करना,
पुरुषों की नक़ल करना, पुरुषों की भाँति पेंट शर्ट पहन लेना भर नहीं । क्या कभी पुरुष, पायल, बिछुआ, कंकण, ब्रा आदि पहनते हैं ? सिन्दूर लगाते हैं । क्या कोई महिला पुरुषों के साथ नहाने, धोने,कपडे बदलने
में सहज रह सकती है? तो क्यों हम पुरुषों की नक़ल करें ? समानता होनी चाहिए, अधिकारों व कर्तव्यों के पालन में । एक व्यक्तित्व को दूसरे व्यक्तित्व
को
सहज रूप से आदर व समानता देनी चाहिये |
स्त्री विमर्श के संपूर्ण इतिहास पर
दृष्टिपात से विचार विवेचना करने पर यह स्पष्ट होता है कि स्त्री या पुरुष, उनके
विमर्श, उनके सामाजिक व्यापार व व्यवहार कभी एक दूसरे से पृथक नहीं रहे, न रह सकते
हैं अतः मेरे विचार से अब इसे
स्त्री-विमर्श नहीं अपितु स्त्री-पुरुष विमर्श का नाम का नाम देना चाहिए |
अपने
उपन्यास इन्द्रधनुष की भूमिका में उपन्यास के विषय पर विवेचना करते हुए मैंने कहा
है कि “नारी के विषय पर साहित्य को
प्राय: साहित्यकार व हम सब “नारी-विमर्श” का नाम देते हैं जो उनके विचार से अपूर्ण शब्द है | वास्तव
में स्त्री व पुरुष कभी पृथक-पृथक देखे, सोचे, समझे, सुने,कहे व लिखे नहीं जा सकते | जहां पुरुष है वहां नारी
अवश्य है, एक दूसरे से अन्यथा किसी का कोइ अस्तित्व नहीं | अतः वे इसे “स्त्री-पुरुष विमर्श “ का नाम देते हैं |”
उसी को
आगे बढाते हुए मैंने स्त्री, पुरुष व समाज विषयक विविध आलेखों से युक्त प्रस्तुत
कृति को ‘स्त्री-पुरुष विमर्श’ का नाम दिया है | आशा व विश्वास है कि जन मन व
गण को यह कृति कुछ नवीन विचारों पर विवेचन की पृष्ठभूमि प्रदान करेगी और मेरा
प्रयास सार्थक होगा |
---- डॉ.श्याम गुप्त
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