बुधवार, 31 जुलाई 2019

ऐसे भी कहर - वैसे भी कहर - तीन तलाक

 सायरा बानो केस पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 2017 में तीन तलाक को गैर-कानूनी करार दिया था। अलग-अलग धर्मों वाले 5 जजों की बेंच ने 3-2 से फैसला सुनाते हुए सरकार से तीन तलाक पर छह महीने के अंदर कानून लाने को कहा था। दो जजों ने इसे असंवैधानिक कहा था, एक जज ने पाप बताया था। इसके बाद दो जजों ने इस पर संसद को कानून बनाने को कहा था।
        इसी क्रम में सरकार ने इसके लिए कानून तैयार किया और लोकसभा में इसे पास कराया. राज्यसभा में संख्या बल कम होने के चलते इसे पास कराने में दिक्कत थी किन्तु विपक्ष के एकजुट न होने व सदन से बहिर्गमन के चलते तीन तलाक विधेयक मंगलवार को राज्यसभा में भी पास हो गया राज्यसभा में तीन तलाक विधेयक पर करीब चार घंटे चली बहस के बाद यह पारित हुआ।  राष्ट्रपति की सहमति के बाद तीन तलाक का विधयेक कानून बन जाएगा।
*क्या हैं तीन तलाक विधेयक के प्रावधान
*तलाक-ए-बिद्दत यानी एक बार में तीन तलाक देना गैर कानूनी
*तीन तलाक संज्ञेय अपराध मानने का प्रावधान, यानी पुलिस बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है, लेकिन तब जब महिला खुद शिकायत करेगी
*खून या शादी के रिश्ते वाले सदस्यों के पास भी केस दर्ज करने का अधिकार
*पड़ोसी या कोई अनजान शख्स इस मामले में केस दर्ज नहीं कर सकता है
*मौखिक, लिखित, इलेक्ट्रॉनिक (एसएमएस, ईमेल, वॉट्सऐप) पर तलाक को अमान्य करार दिया गया
*आरोपी पति को तीन साल तक की सजा का प्रावधान
मजिस्ट्रेट आरोपी को जमानत दे सकता है
*आरोपी को जमानत तभी दी मिलेगी, जब पीड़ित महिला का पक्ष सुना जाएगा
*पीड़ित महिला के अनुरोध पर मजिस्ट्रेट समझौते की अनुमति दे सकता है
*पीड़ित महिला पति से गुजारा भत्ते का दावा कर सकती है
महिला को कितनी रकम दी जाए यह जज तय करेंगे
*पीड़ित महिला के नाबालिग बच्चे किसके पास रहेंगे इसका फैसला भी मजिस्ट्रेट ही करेगा
           मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को देखते हुए यह कहा जा रहा है कि अब उनकी स्थिति मजबूत होगी किन्तु अगर हम विधेयक की गहराई में जाते हैं तो साफ तौर पर पाते हैं कि ये मजबूती मुस्लिम विवाह को बुरी तरह से हिला देगी क्योंकि विपक्ष का विरोध जिस मुद्दे को लेकर था वह अब भी जस का तस है.
. विपक्षी दल कांग्रेस ने कहा कि एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को आपराधिक कृत्य बनाने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इस प्रथा को उच्चतम न्यायालय ‘शून्य एवं अमान्य’ करार दे चुका है।
     दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर की पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती ने कहा कि तीन तलाक को लेकर कानून बनाने की क्या जरूरत थी, जब सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही इसे अवैध करार दिया है।
      और ऐसा इसलिए क्योंकि साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने शायरा बानो केस में फैसला देते हुए तुरंत तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया और जब कोई कार्य असंवैधानिक है तो वह किसी भी कानून द्वारा मान्य नहीं है ऐसे में उसके किए जाने पर क्या मान्यता मिलना या क्या अपराध हो जाना किन्तु केंद्र सरकार ने इस असंवैधानिकता को अपराध के दायरे में रखा और मुस्लिम परिवार को तोड़ने का और मुस्लिम महिलाओं के दर दर भटकने का पूरा इंतजाम कर दिया.
       अब राष्ट्रपति की मंजूरी मिलते ही यह कानून बन जाएगा कि जैसे ही कोई मुस्लिम पति अपनी पत्नी को तलाक तलाक तलाक कहता है और मुस्लिम पत्नी इसकी शिकायत कर देती है तो यह एक संज्ञेय अपराध होगा और पुलिस मुस्लिम पति को बिना वारंट गिरफ्तार कर सकेगी और वह तीन साल की सज़ा के अधीन होगा मतलब ये कि उस मुस्लिम पत्नी को उसका पति तीन तलाक दे तो वह बेसहारा और वह इसकी शिकायत करे तो भी बेसहारा क्योंकि पति अगर जेल गया तो कौनसा पुलिस थाना या कौनसी कोर्ट उसके व उसके बच्चों के लिए रोटी कपड़ा मकान का इंतज़ाम कर रही है और उस पर जुमले ये कि
    "राज्यसभा से तीन तलाक बिल पास होने पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि नारी गरिमा की रक्षा के लिए तीन तलाक बिल का पास होना जरूरी था।"
     पीएम ने कहा कि तीन तलाक बिल का पास होना महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम है. तुष्टिकरण के नाम पर देश की करोड़ों माताओं-बहनों को उनके अधिकार से वंचित रखने का पाप किया गया. मुझे इस बात का गर्व है कि मुस्लिम महिलाओं को उनका हक देने का गौरव हमारी सरकार को प्राप्त हुआ है.पीएम ने कहा कि एक पुरातन और मध्यकालीन प्रथा आखिरकार इतिहास के कूड़ेदान तक ही सीमित हो गई है.
    अब इन्हें कौन बताए कि महिला गरिमा व अस्मिता की रक्षा के लिए पहले ज़रूरी ये है कि उसका व उसके बच्चों का पेट भरा हो और वह अपने दम पर पारिवारिक रूप से सशक्त हो क्योंकि कोई भी लड़ाई तभी मजबूती से लडी जा सकती है जब वह मजबूत आधार से लडी जाए, फिर विवाह के बाद पत्नी का जीवन आधार पति ही होता है और तीन तलाक मुस्लिम पत्नी के जीवन में जो शून्यता उत्पन्न करता है वह शून्यता तो सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अमान्य व असंवैधानिक घोषित करके ही भर दी थी केंद्र सरकार द्वारा तो तीन तलाक से मुस्लिम पति द्वारा खोदी गई खाई को और चौड़ी करने का ही काम किया गया है पाटने का नहीं और यह भारतीय संस्कृति के भी खिलाफ है क्योंकि भारतीय संस्कृति परिवार को बसाने मे विश्वास रखती है उजाड़ने मे नही और अब की यह केंद्र सरकार मुस्लिम पुरातन व मध्यकालीन प्रथा को कूड़ेदान मे सीमित करने के नाम पर मुस्लिम परिवार को ही कूड़ेदान में सीमित करने लग गई है. इसलिए अब मुस्लिम परिवार का स्थायित्व खुदा के ही भरोसे है.
शालिनी कौशिक एडवोकेट
(कौशल)

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

नारी की दुनिया व सोच

Indian Village Women Royalty Free Stock Photo

      हमारी संविधान व्यवस्था ,कानून व्यवस्था हम सबके लिए गर्व का विषय हैं और समय समय पर इनमे संशोधन कर इन्हें बदलती हुई परिस्थितयों के अनुरूप भी बनाया जाता रहा है किन्तु हमारा समाज और उसमे महिलाओं की स्थिति आरम्भ से ही शोचनीय रही है .महिलाओं को वह महत्ता समाज में कभी नहीं मिली जिसकी वे हक़दार हैं .बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक उसके लिए ऐसे पल कम ही आते हैं जब वह अपने देश के कानून व् संविधान पर गर्व कर सके इसमें देश के कानून की कोई कमी नहीं है बल्कि कमी यहाँ जागरूकता की है इस देश की आधी आबादी लगभग एक तिहाई प्रतिशत में नहीं जानती कि कानून ने उसकी स्थिति कितनी सुदृढ़ कर रखी है .
         आज गर्व होता है जब हम लड़कियों को भी स्कूल जाते देखते हैं हालाँकि मैं जिस क्षेत्र की निवासी हूँ वहाँ लड़कियों के लिए डिग्री कॉलिज तक की व्यवस्था है और वह भी सरकारी इसलिए लड़के यहाँ स्नातक हों या न हों लड़कियां आराम से एम्.ए.तक पढ़ जाती हैं और संविधान में दिए गए समान शिक्षा के अधिकार के कारण आज लड़कियां तरक्की के नए पायदान चढ़ रही हैं .
              शिक्षा का स्थान तो नारी के जीवन में महत्वपूर्ण है ही किन्तु सर्वाधिक ज़रूरी जो कहा जाता है और जिसके बिना नारी को धरती पर बोझ कहा जाता है वह उसकी जीवन की सबसे बड़ी तकलीफ भी बन जाता है कभी दहेज़ के रूप में तो कभी मारपीट ,कभी तलाक और पता नहीं क्या क्या ,घरेलू हिंसा से संरक्षण विधेयक द्वारा कानून ने सभी महिलाओं की सुरक्षा का इंतज़ाम किया है और ऐसे ही महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा तलाक के ज्यादा अधिकार देकर उन्हें, जबर्दस्ती के सम्बन्ध को जिसे जनम जनम का नाता कहकर उससे ढोने की पिटने की अपेक्षा की जाती है ,मुक्ति का रास्ता भी दिया है महिलाओं को अबला जैसी संज्ञा से मुक्ति दिलाने की हमारे कानून ने बहुत कोशिश की है किन्तु कुछ सामाजिक स्थिति व् कुछ अज्ञानता के चलते वे सहती रहती हैं और इस सम्बन्ध को अपनी बर्दाश्त की हद से भी बाहर तक निभाने की कोशिश करती हैं किन्तु जहाँ शिक्षा का उजाला होगा और कानून का साथ वहाँ ऐसी स्थिति बहुत लम्बे समय तक चलने वाली नहीं है और ऐसे में जब हद पार हो जाती है तो कहीं न कहीं तो विरोध की आवाज़ उठनी स्वाभाविक है और यही हुआ अभी हाल ही में हमारे क्षेत्र की एक युवती ने पारिवारिक प्रताड़ना का शिकार होने पर अपने पति से हिन्दू विधि की धारा १३ -बी में दिए गए पारस्परिक सहमति से तलाक के अधिकार का प्रयोग किया और अपनी ज़िंदगी को रोज रोज की घुटन से दूर किया .
        साथ ही आज बहुत सी महिलाएं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के तहत भरण पोषण के वाद दायर कर भी अपने पतियों से अपने व् अपने बच्चों के लिए कानून की छाँव में एक सुन्दर व् सार्थक आशियाना का सपना अपनी संतान की आँखों में पाल रही हैं .
         भारतीय कानून व् संविधान महिलाओं की समाज में बेहतर स्थिति के लिए प्रयासरत हैं और इसका उदाहरण दामिनी गैंगरेप कांड के बाद इस तरह के मामलों में उठाये गए कानूनी  कदम हैं .ऐसे ही विशाखा बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान के मामले से भी सुप्रीम कोर्ट ने कामकाजी महिलाओं की स्थिति बहुत सुदृढ़ की है जिसके कारण तरुण तेजपाल जैसे सलाखों के पीछे हैं और रिटायर्ड जस्टिस अशोक गांगुली जैसी हस्ती पर कानून की तलवार लटकी।
        पर जैसी कि रोज की घटनाएं सामने आ रही हैं उन्हें देखते हुए कानून में अभी बहुत बदलावों की ज़रुरत है इसके साथ ही महिलाओं की आर्थिक सुदृढ़ता की कोशिश भी इस दिशा में एक मजबूत कदम कही जा सकती है क्योंकि आर्थिक सुदृढ़ता ही वह सम्बल है जिसके दम पर पुरुष आज तक महिलाओं पर राज करते आ रहे हैं समाज में स्वयं देख लीजिये जो महिलाएं इस क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं उनके आगे पुरुष दयनीय स्थिति में ही नज़र आते हैं .और जैसे कि पंचायतों में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित किये गए हैं ऐसे ही अब संसद व् विधान सभाओं में भी ३३% आरक्षण हो जाना चाहिए साथ ही सरकारी नौकरियों में भी उनके लिए स्थानों का आरक्षण बढ़ाये जाने की ज़रुरत है .



शालिनी कौशिक

[कौशल ]

सोमवार, 29 जुलाई 2019

ट्रिपल तलक आस्था नही, अधिकारों की लड़ाई है ।


ट्रिपल तलक  आस्था नही, अधिकारों की लड़ाई है ।
ट्रिपल तलाक पर रोक लगाने का बिल लोकसभा से तीसरी बार पारित होने के बाद  एक बार फिर चर्चा में है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में ही इसे असंवैधानिक करार दे दिया था लेकिन इसे एक कानून का रूप लेने के लिए अभी और कितना इंतज़ार करना होगा यह तो समय ही बताएगा। क्योंकि बीजेपी सरकार भले ही अकेले अपने दम पर  इस बिल को लोकसभा में  82 के मुकाबले 303 वोटों से पास कराने में आसानी से सफल हो गई हो लेकिन इस बिल के प्रति विपक्षी दलों के रवैये को देखते हुए इसे राज्यसभा से  पास कराना ही उसके लिए असली चुनौती है। यह वाकई में समझ से परे है कि कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार क्यों नहीं है। अपनी वोटबैंक की राजनीति की एकतरफा सोच में  विपक्षी दल इतने अंधे हो गए हैं कि  यह भी नहीं देख पा रहे कि उनके इस रवैये से उनका दोहरा आचरण ही देश के सामने आ रहा है। क्योंकि जो विपक्षी दल राम मंदिर और सबरीमाला जैसे मुद्दों पर यह कहते हैं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है और उसके फैसले को स्वीकार करने की बातें करते हैं वो ट्रिपल तलाक पर उसी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध खड़े हो कर उसे चुनौती दे रहे हैं। 
दरअसल ट्रिपल तलाक जैसा मुद्दा जो एक स्त्री के जीवन की नींव को पल भर में हिला दे, उसकी हंसती खेलती गृहस्थी को पल भर में उजाड़ दे, उसे संभलने का एक भी मौका दिए बिना उसके सपनों को क्षण भर में रौंद दे, ऐसे मुद्दे पर राजनीति होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि न तो यह कोई मजहबी चश्मे से देखने वाला मुद्दा है और ना ही राजनैतिक नफा नुकसान की नज़र से। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज इस मुद्दे पर विपक्ष ओछी राजनीति के अलावा और कुछ नहीं कर रहा। कारण, इस बिल की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बिल में "तलाक" को नहीं केवल तलाक के एक अमानवीय तरीके, "ट्रिपल तलाक" को ही कानून के दायरे में लाया जा रहा है। जाहिर है इससे पुरुषों का तलाक देने का अधिकार खत्म नहीं हो रहा बल्कि समुदाय विशेष की स्त्रियों के हितों की  रक्षा करने का प्रयास किया जा रहा है इसलिए इसे "मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक" नाम दिया गया। इतना ही नहीं, इस्लाम में 9 तरीकों से तलाक दिया जा सकता है। तो अगर उसमें से एक तरीका कम कर भी दिया जाए तो तलाक देने के आठ अन्य तरीके फिर भी शेष हैं, तो इसका इतना विरोध क्यों? खास तौर पर तब जब कुरान में "तलाक ए बिद्दत" यानी तीन तलाक का स्पष्ट संहिताकरण नहीं किया गया हो बल्कि उलेमाओं द्वारा इसकी मनमाफिक व्याख्या की जाती रही हो। दरअसल मुल्ला मौलवियों की मिली भगत से ट्रिपल तलाक और फिर उसके बाद हलाला जैसी   कुप्रथाओं ने समय के साथ एक ईश्वरीय रूप ले लिया और पाक कुरान के प्रति आस्था के नाम पर मजहबी भय का माहौल बन गया जिससे अज्ञानतावश लोग इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। अपने फैसले में न्यायालय ने भी यह स्पष्ट कहा है कि "तलाक-ए- बिद्दत"  इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है इसलिए इसे अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का सरंक्षण प्राप्त नहीं हो सकता। इसके साथ ही न्यायालय ने शरीयत कानून 1937 की धारा 2 में दी गई एक बार में तीन तलाक की मान्यता को भी रद्द कर दिया। शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिज़वी का भी कहना है कि ट्रिपल तलाक का किसी मजहब या कुरान से कोई वास्ता नहीं है। इसके बावजूद कुछ राजनैतिक दलों द्वारा मजहबी आस्था के नाम पर तीन तलाक का विरोध साबित करता है कि यह वोटबैंक की राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि यह आस्था नहीं अधिकारों का मामला है। 
क्योंकि निकाह इस्लाम में दो लोगों के बीच एक कॉन्ट्रैक्ट जरूर है लेकिन जब इसमें स्त्री और पुरूष दोनों की रजामंदी जरूरी होती है तो इस कॉन्ट्रैक्ट से अलग होने का फैसला एक अकेला कैसे ले सकता है? जब यह कॉन्ट्रैक्ट यानी  निकाह अकेले में नहीं किया जा सकता, दो गवाह और एक वकील की मौजूदगी जरूरी होती है तो इस कॉन्ट्रैक्ट का अंत यानी तलाक  अकेले में ( कभी कभी तो पत्नी को भी नहीं पता होता)  या व्हाट्सएप पर या फ़ेसबुक पर बिना गवाह और वकील के कैसे जायज हो सकता है? और जो मजहब के नाम पर इसे जायज ठहरा भी रहे हैं क्या वो यह बताने का कष्ट करेंगे कि दुनिया का कौन सा  मजहब आस्था के नाम पर किसी  मनुष्य तो छोड़िए किसी अन्य जीव  के प्रति असंवेदनशील होने की सीख  देता हैवैसे भी दुनिया के 20 इस्लामिक मुल्कों में ट्रिपल तलाक पूर्णतः प्रतिबंधित है।लेकिन ओवैसी जी का कहना है कि हमें इस्लामिक मुल्कों से मत मिलाइए नहीं तो कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलेगा। तो अगर वे वाकई में कट्टरपंथ के खिलाफ हैं तो उन्हें भारत के मुसलमानों को मुस्लिम पर्सनल लॉ  को त्याग कर पूर्ण रूप से भारत के संविधान को ही मानने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे भारत में कट्टरपंथ की जड़ ही खत्म हो जाएगी। सच तो यह है कि ये राजनैतिक दल अगर स्वार्थ नहीं देश हित  की राजनीति कर रहे होते तो जो  लड़ाई 1978 में शाहबानों ने शुरू की थी वो 2019 तक जारी नहीं रहती। रही बात इसे एक क्रिमिनल ऑफ्फेन्स यानी आपराध की श्रेणी में लाने की, तो जनाब,
कत्ल केवल वो नहीं होता जो खंजर  से किया जाए और 
ज़ख्म केवल वो नहीं होते जो जिस्म के लहू  को बहाए,
कातिल वो भी होता है जो लफ़्ज़ों के तीर चलाए और
ज़ख्म वो भी होते हैं जो रूह का नासूर बन जाए।
जो तीन शब्द एक हंसती खेलती ख्वातीन को पलभर में एक जिंदा लाश में तब्दील कर दें उनका इस्तेमाल करने वाला शख्स यकीनन सज़ा का हकदार होना चाहिए।
डॉ नीलम महेंद्र


http://www.media.ind.in/triple-talaq.html

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

सांसद या गुंडे?

ये किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में नहीं  कहा गया. ये किसी रागिनी के मंच पर भी नहीं कहा गया. ये किसी फिल्मी कार्यक्रम में भी नहीं कहा गया. ये किसी मसखरे, नचनचिये, नादान, बावले व्यक्ति ने नहीं कहा. ये कहा है भारतीय जनता के प्रतिनिधि आजम खां साहब? ने पवित्रता व मर्यादा की मिसाल भारतीय संसद में. किसी अभिनेत्री, नृत्यांगना के प्रति नहीं वरन् महिला सांसद के प्रति. क्या संदेश जाता है? संसद तक में सशक्त नारी के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है तब गली मोहल्ले के शोहदों पर क्या लगाम कसेगी! लोकसभा अध्यक्ष महोदय को तुरंत आजम खां जैसे बीमार सांसदों को लोकसभा से निष्कासित कर देना चाहिए.
-डॉ शिखा कौशिक नूतन