शनिवार, 29 अप्रैल 2017

समीक्षा - '' ये तो मोहब्बत नहीं ''-समीक्षक शालिनी कौशिक

समीक्षा -  '' ये तो मोहब्बत नहीं ''-समीक्षक शालिनी कौशिक

Ye To Muhabbat Nahiउत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ द्वारा प्रकाशित डॉ.शिखा कौशिक 'नूतन' का काव्य-संग्रह 'ये तो मोहब्बत नहीं ' स्त्री-जीवन के यथार्थ चित्र को प्रस्तुत करने वाला संग्रह है .आज भी हमारा समाज पितृ-सत्ता की ज़ंजीरों में ऐसा जकड़ा हुआ है कि वो स्त्री को पुरुष के समान सम्मान देने में हिचकिचाता है .त्रेता-युग की 'सीता' हो अथवा कलियुग की 'दामिनी' सभी को पुरुष -अहम् के हाथी के पैरों द्वारा कुचला जाता है .
             कवयित्री डॉ. शिखा कौशिक काव्य-संग्रह में संग्रहीत अपनी कविता 'विद्रोही सीता की जय'' के माध्यम  इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयास करती हैं कि सीता का धरती में समां जाना उनका पितृ-सत्ता के विरूद्ध विद्रोह ही था ; जो अग्नि-परीक्षा के पश्चात् भी पुनः शुचिता-प्रमाणम के लिए सीता को विवश कर रही थी -

'जो अग्नि-परीक्षा पहले दी उसका भी मुझको खेद है ,
ये कुटिल आयोजन बढ़वाते नर-नारी में भेद हैं ,
नारी-विरूद्ध अन्याय पर विद्रोह की भाषा बोलूंगी ,
नारी-जाति  सम्मान हित अपवाद स्वयं मैं सह लूंगी !''

          कवयित्री इस तथ्य पर भी विशेष प्रकाश डालती हैं हैं कि लोकनायक-कवियों ने अपने पुरुष-नायकों  के चरित्रों को उज्जवल बनाये रखने के लिए उनके द्वारा स्त्री-पत्रों के साथ किये गए अन्याय को छिपाने का कुत्सित प्रयास किया है .''मानस के रचनाकार में भी पुरुष अहम् भारी '' कविता में वे लिखती हैं -
'सात काण्ड में लिखी तुलसी ने मानस ,
आठवां लिखने का क्यों कर न सके साहस ?
युगदृष्टा- लोकनायक  ग़र  ऐसे    मौन ,
शोषित का साथ देने को हो अग्रसर कौन ?''

        भले ही आधुनिक नारी-विमर्श के चिंतक एंगेल्स ने 1884 ईस्वी में आई अपनी पुस्तक ' परिवार,निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति ' में ये स्पष्ट घोषणा कर दी हो कि 'ये बिलकुल बेतुकी धारणा है जो हमें 18 वीं सदी के जागरण काल से विरासत में मिली है कि समाज के आदिकाल में नारी पुरुष की दासी थी .'' किन्तु 21वीं शताब्दी तक के पुरुष इस कुंठित सोच से आज़ाद नहीं हो पा रहे हैं. कवयित्री पुरुष की इसी सोच को अपनी कविता ''इसी हद में तुम्हें रहना होगा '' में प्रकट करते हुए लिखती हैं -
''सख्त लहज़े में कहा शौहर ने बीवी से
देखो लियाकत से तुम्हें रहना होगा,
***मिला ऊँचा रुतबा मर्द को औरत से ,
बात दीनी ही नहीं दुनियावी भी ,
मुझको मालिक खुद को समझना बांदी
झुककर मेरे आगे तुम्हें रहना होगा !''

     न केवल औरत को दासी माना  जाता है बल्कि उच्च-शिक्षित पुरुष तक स्त्री को एक 'आइटम' की संज्ञा देते हुए लज्जित होने के स्थान पर प्रफुल्लित नज़र आते हैं .कवयित्री पुरुष की इसी सोच को लक्ष्य कर अपनी कविता '' अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए '' में लिखती हैं -
'है पुरुष को ये अहम् नीच स्त्री उच्च हम ,
साथ-साथ फिर भला कैसे बढ़ा सकती कदम ?
'आइटम कहते हुए लज्जा तो आनी चाहिए ,
अपने हिस्से की हमे भी अब इमरती चाहिए !''

       फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों के पुरुष-प्रधान जगत में पुरुषों की ही भांति जीवन व्यतीत करने वाली , स्त्री-विमर्श की बाइबिल कहे जाने वाली पुस्तक 'द सेकेण्ड सैक्स '' की रचनाकार सीमोन द  बोउवार ने इस पुस्तक में ये घोषणा की थी कि '' स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनायीं जाती है .'' इसी तथ्य को कवयित्री ने संग्रह  की कविता   ''सच कहूँ ...अच्छा नहीं लगता '' में परखते हुए लिखा है -
  'जब कोई टोकता है
  इतनी उछल-कूद
 मत मचाया कर
 तू लड़की है
ज़रा तो तमीज सीख ले ,
 क्यों लड़कों की तरह
 घूमती-फिरती है ,
 सच कहूँ
  मुझे अच्छा नहीं लगता !!''

    काव्य -संग्रह के शीर्षक रूप में विद्यमान गीति-तत्व से युक्त कविता ''ये तो मोहब्बत नहीं '' भी पुरुष की उस वर्चस्ववादी सोच को उजागर करती है जो मोहब्बत जैसी पवित्र-भावना को भी मात्र स्त्री-देह के उपभोग तक सीमित कर देती है-
'हुए हो जो मुझपे फ़िदा ,
भायी  है मेरी अदा ,
रही हुस्न पर ही नज़र ,
दिल की सुनी ना सदा ,
तुम्हारी नज़र घूरती
मेरे ज़िस्म पर आ टिकी ,
ये तो मोहब्बत नहीं !
ये तो मोहब्बत नहीं !''

  पुरुष द्वारा  स्त्री के विरूद्ध किये जाने वाले सबसे जघन्य अपराध 'बलात्कार' को लक्ष्य कर कवयित्री ने अपनी कविता ' वो लड़की' के माध्यम से स्त्री के अंतहीन उस दर्द को बयान किया है ,जो बलात्कृत स्त्री को आजीवन कचोटता रहता है भीतर ही भीतर -
''छुटकारा नहीं मिलता उसे
मृत्यु-पर्यन्त इस मानसिक दुराचार से ,
वो लड़की
रौंद दी जाती है अस्मत जिसकी !''

      काव्य-संग्रह की यूँ तो सभी कवितायेँ स्त्री-जीवन के विभिन्न पक्षों को सहानुभूति के साथ प्रस्तुत करने में सफल रही हैं किन्तु ''करवाचौथ जैसे त्यौहार क्यों मनाये जाते है , तोल-तराजू इस दुनिया में औरत बेचीं जाती है ,वो लड़की ..ठंडे ज़ज़्बात तपा देती है '' आदि मस्तिष्क को झनझना देने वाली , पुरुष-वर्ग को आईना दिखाने वाली कवितायेँ हैं .
 
         आकर्षक कवर-पृष्ठ से युक्त 80  पृष्ठों वाले डॉ शिखा कौशिक नूतन की  इस काव्य-संग्रह में सशक्त भाषा -शैली वाली 52  कवितायेँ संग्रहीत है . मूल्य है मात्र -100  रू . स्त्री-विमर्श की दिशा में ये काव्य-संग्रह  'ये तो मोहब्बत नहीं' एक मील का पत्थर साबित होगा ऐसा मेरा दृढ विश्वास है .लेखिका डॉ शिखा कौशिक नूतन व् उत्कर्ष  -प्रकाशन,मेरठ  को ऐसे सार्थक प्रयास हेतु हार्दिक बधाई व् शुभकामनायें  .





   


      

3 टिप्‍पणियां:

डा श्याम गुप्त ने कहा…

वास्तव में पुरुष वर्ग को आइना दिखाने की आवश्यकता नहीं है ......यह आधा-अधूरा प्रयास एवं सदैव से की जाने वाली त्रुटि होगी .... एवं प्रतिक्रियाएं भी ......समस्त समाज को आइना दिखाने की आवश्यकता है प्रत्येक वर्ग दोषी होता है किसी भी सामाजिक अन्याय में .....

Shikha Kaushik ने कहा…

शालिनी जी मेरे काव्य संग्रह की समीक्षा हेतु हार्दिक आभार स्वीकार करें

Shikha Kaushik ने कहा…

सर नारी का शोषण करना पुरूष ने अपना अधिकार समझ लिया था. यही कारण है कि पुरूष वर्ग को आईना दिखाने की आवश्यकता अनुभव की गई. शोषण करने वाले वर्ग को इस आधार पर बरी नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक अन्याय में हर वर्ग दोषी होता है.