कोई बला जब हम पर आई ,
माँ को खुद पर लेते देखा !
हुआ हादसा साथ हमारे ,
माँ को बहुत तड़पते देखा !
......................................
हो तकलीफ हमें न कोई ,
साँझ-सवेरे खटते देखा !
कभी नहीं संकट के आगे ,
हमनें माँ को झुकते देखा !
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ऊपर-नीचे अंदर-बाहर ,
माँ को फिरकी बनते देखा !
नहीं आखिरी दिन तक हमने ,
माँ को थककर सोते देखा !
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जब जब ठोकर खाई हमने ,
माँ को हमें उठाते देखा !
माँ से बढ़कर इस सृष्टि में ,
हमनें नहीं किसी को देखा !
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साँस थामकर हमने माँ को ,
दूर बहुत है जाते देखा !
पूजे जाते भगवानों में ,
माँ का रूप समाते देखा !
शिखा कौशिक 'नूतन'
12 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को शनिवार, २३ मई, २०१५ की बुलेटिन - "दी रिटर्न ऑफ़ ब्लॉग बुलेटिन" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद ।
बहुत सुन्दर मनोभावों की खूबसूरत शब्दों से सजी कृति।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-05-2015) को "माँगकर सम्मान पाने का चलन देखा यहाँ" {चर्चा - 1985} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुंदर रचना ।
बहुत सुन्दर शब्द संयोजन
उत्तर दो हे सारथि !
ऐसी ही होती है माँ
अति सुन्दर रचना।
अति सुन्दर रचना।
हो तकलीफ हमें न कोई ,
साँझ-सवेरे खटते देखा !
कभी नहीं संकट के आगे ,
हमनें माँ को झुकते देखा !
क्या खूब कहा है........वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें. हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
maa shabd me poora sansaar samaya hai .. bahut sunder rachana
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