पर्दे में घुटती औरत ! |
वो घुट रही है ,
मर रहे हैं उसके
चिंतनशील अंतर्मन
के विचार,
और सिमट रहे हैं
अभिलाषाओं के फूल ,
जो कभी खिले थे
ह्रदय के उपवन में ,
कि दे पाऊँगी
इस विश्व को नूतन कुछ
और हो जाउंगी
मरकर भी अमर !!
शिखा कौशिक 'नूतन'
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4 टिप्पणियां:
कि दे पाउंगी इस विश्व को नूतन कुछ
और हो जाउंगी मर के भी अमर।
पर्दे में ऱहने वाली और त कोई अलग कहां होती है वह भी भरन चाहती है उडान।
दुनिया के ऐसे अनछुए हिस्से हैं जहाँ पर्दे के पीछे जाने कितनी सिसकियाँ दम तोड़ देती हैं...बेचैन कर देने वाली रचना...
यदि उड़ान की इच्छा है तो परदे के पीछे जाना ही नहीं चाहिए ....उड़ान वाले कहाँ पर्दों को मानते हैं ....
परदे सिर्फ शरीर तक सीमित रहें तो अच्छा हैं।
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