Rukhmabai का विवाह 11 साल की उम्र में दादा जी भिकाजी उनकी बिना मर्जी के करवा दिया गया था जिसके वो सख्त खिलाफ थीं। भारत में उस समय बाल विवाह एक आम प्रथा थी। उनके माता-पिता ने हमेशा उनकी पढ़ाई को पूरा करने में सहयोग दिया लेकिन उनके पति दादाजी भिकाजी Rukhmabai को अपने साथ रहने के लिए मजबूर करते रहते थे। 1884 में दादाजी ने बंबई हाई कोर्ट में अपनी पत्नी पर हक के लिए याचिका दायर की, जिसमें कोर्ट ने फैसला लिया कि Rukhmabai को अपने पति के साथ रहना होगा नहीं तो उन्हें सजा के तौर पर जेल भेज दिया जाएगा। Rukhmabai ने कहा कि वो जेल जाना पसंद करेंगी पर इस तरह के विवाह बंधन में नहीं रहेगीं और इस केस की डिबेट इंग्लैंड तक पहुंची।
Rukhmabai के इस कदम के 68 सालों बाद 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट पास किया गया जिसमें इस बात को रखा गया कि विवाह के बंधन में रहने के लिए पति-पत्नी दोनों की मंजूरी होना आवश्यक है। अपने पेन नेम ‘ए हिंदू लेडी’ के अंतर्गत उन्होनें कई अखबारों के लिए लेख लिखे और कई लोगों ने उनका साथ दिया। एक बार अपने लेख में उन्होनें मेडिकल की पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर की, इसके बाद कई लोगों ने फंड करके उन्हें इंग्लैंड भेजा और लंडन स्कूल ऑफ मेडिसिन से उनकी पढ़ाई का इंतजाम किया। लंडन से डॉक्टर बनकर आने के बाद उन्होंने कई वर्षों तक राजकोट में महिलाओं के अस्पताल में अपनी सेवाएं दी। इसके साथ उन्होंने बाल विवाह और महिलाओं के मुद्दे पर बहुत ही बेबाकी से लिखा। 25 सितम्बर 1955 को 91 की उम्र में Rukhmabai की मृत्यु हुई। रुखमाबाई ने शिक्षा और अपनी निडरता से अपने साथ आगे आने वाली महिलाओं की पीढ़ी के लिए शिक्षा के रास्ते तो खोले और उन्हें बाल विवाह और पर्दा प्रथा जैसी कुरितियों से मुक्त करवाया।[जनसत्ता से साभार ]
नारी सम्मान के लिए एक बार फिर गूगल का आभार
शालिनी कौशिक
2 टिप्पणियां:
नमन
गूगल की प्रेरक प्रस्तुति
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