सोमवार, 19 जून 2017

आहार से उपजे विचार ही शिशु के व्यक्तित्व को बनाते हैं

आहार से उपजे  विचार ही  शिशु के व्यक्तित्व को बनाते हैं


क्या मनुष्य केवल देह है या फिर उस देह में छिपा व्यक्तित्व?
यह व्यक्तित्व क्या है और कैसे बनता है?

भारत सरकार के आयुष मन्त्रालय द्वारा हाल ही में गर्भवती महिलाओं के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं जिसमें कहा गया है कि गर्भावस्था के दौरान गर्भवती महिलाओं को माँस के सेवन एवं सेक्स से दूर रहना चाहिए।
इस विषय पर जब आधुनिक विज्ञान के डाक्टरों से उनके विचार माँगे गए तो उनका कहना था कि  गर्भावस्था में महिला अपनी उसी दिनचर्या के अनुरूप जीवन जी सकती है जिसका पालन वह गर्भावस्था से पूर्व करती आ रही थी। अगर शारीरिक रूप से वह स्वस्थ है तो गर्भावस्था उसके जीवन जीने में कोई पाबंदी या बंदिशें लेकर नहीं आती।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की सबसे बड़ी समस्या यह ही है कि वह इस मानव शरीर के केवल भौतिक स्वरूप को ही स्वीकार करता है और इसी कारण  चिकित्सा भी केवल भौतिक शरीर की ही करता है।
जबकि भारतीय चिकित्सा पद्धति ही नहीं भारतीय दर्शन में भी मानव शरीर उसके भौतिक स्वरूप से कहीं बढ़कर है।  जहाँ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में स्वास्थ्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है, वह रोग के आभाव को ही स्वास्थ्य मानता है उसके अनुसार स्वस्थ व्यक्ति वह है जिसके शरीर में बीमारियों का आभाव है और शायद इसीलिए  अभी भी ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर वैज्ञानिक आज तक खोज रहे हैं।
लेकिन भारतीय चिकित्सा पद्धति की अगर बात करें तो आयुर्वेद में स्वास्थ्य के विषय में कहा गया है,
समदोषा: समाग्निश्च समधातु मलक्रिय: ।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: स्वस्थ इत्यभिधीयते ।।
अर्थात जिस मनुष्य के शरीर में सभी दोष अग्नि धातु मल एवं  शारीरिक क्रियाएँ समान रूप से संचालित हों तथा उसकी आत्मा शरीर तथा मन प्रसन्नचित्त हों इस स्थिति को स्वास्थ्य कहते हैं और ऐसा मनुष्य स्वस्थ कहलाता है।
1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी स्वास्थ्य या आरोग्य की  परिभाषा देते हुए कहा है कि,
" दैहिक,मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ होना ही स्वास्थ्य है"
कुल मिलाकर सार यह है कि मानव शरीर केवल एक भौतिक देह नहीं है वह उससे बढ़कर बहुत कुछ है क्योंकि आत्मा और मन के अभाव में इस शरीर को शव कहा जाता है             
और जब एक स्त्री शरीर में नवजीवन का अंकुर फूटता है तो माँ और बच्चे का संबंध केवल शारीरिक नहीं होता।
आज विभिन्न अनुसंधानों के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि हम जो भोजन करते हैं उससे हम न सिर्फ शारीरिक पोषण प्राप्त करते हैं अपितु हमारे विचारों को भी खुराक इसी भोजन से मिलती है।
जैसा आहार हम ग्रहण करते हैं वैसा ही व्यक्तित्व हमारा बनता है।
इसलिए चूँकि गर्भावस्था के दौरान शिशु माता के ही द्वारा पोषित होता है जो भोजन माँ खाएगी शिशु के व्यक्तित्व एवं विचार उसी भोजन के अनुरूप हो होंगे।
इसी संदर्भ में महाभारत का एक  महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख यहाँ उचित होगा कि किस प्रकार महाभारत में अभिमन्यु को चक्रव्यूह के भीतर जाने का रास्ता तो पता था लेकिन बाहर निकलने का नहीं क्योंकि जब अर्जुन सुभद्रा को चक्व्यूह की रचना और उसे भेदने की कला समझा रहे थे तो वे अन्त में सो गई थीं।
इसलिए माँ गर्भावस्था के दौरान कैसा आहार विहार रखती है कौन सा साहित्य पढ़ती है या फिर किस प्रकार के विचार एवं आचरण रखती है वो शिशु के ऊपर निश्चित ही प्रभाव डालते हैं।
जिस प्रकार माता पिता के रूप और गुण बालक में जीन्स के द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते हैं उसी प्रकार गर्भावस्था में माँ का आहार विहार भी शिशु के व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
प्रकृती में भी किसी  बीज के अंकुरित होने में मिट्टी में पाए जाने वाले पोषक तत्वों एवं जलवायु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इसलिए गर्भावस्था किसी महिला के लिए कोई पाबंदी या बंदिशें बेशक लेकर नहीं आती
हाँ लेकिन (अगर वह समझें  तो) एक अवसर और जिम्मेदारी निश्चित रूप से लेकर आती है कि अपने भीतर पोषित होने वाले जीव के व्यक्तित्व निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका और उसकी गंभीरता को समझें। क्योंकि यह जीव जब इस दुनिया में प्रवेश करेगा तो न सिर्फ उसके जीवन का अपितु उस समाज का, इस देश का भी हिस्सा बनेगा।
भरत को एक ऐसा वीर बालक बनाने में जिसके नाम से इस देश को नाम मिला उनकी माँ शकुन्तला का ही योगदान था।
शिवाजी की वीर छत्रपति शिवाजी बनाने वाली जीजाबाई ही थीं।
तो ईश्वर ने स्त्री को सृजन करने की शक्ति केवल एक शिशु के भौतिक शरीर की नहीं उसके व्यक्तित्व के सृजन की भी दी है।
आवश्यकता स्त्री को अपनी शक्ति पहचानने की है।
डॉ नीलम महेंद्र

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