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शुभकामनाओं के साथ
शिखा कौशिक
करवा : विवाह संस्था की नई सीख
शिखा कौशिक
करवा : विवाह संस्था की नई सीख
-प्रेम प्रकाश
परंपरा जब आधुनिकता से गलबहियां डालकर डग भरती है तो जो "फ्यूजन' क्रिएट होता है, उसकी स्वीकार्यता आश्चर्यजनक रूप से काफी बढ़ जाती है। बात नवरात्र के गरबा रास की हो या करवा चौथ की, नए दौर में पुरानी परंपराओं से जुड़ने वालों की कमी नहीं है। करवा चौथ की कथा पारंपरिक पतिव्रता पत्नियों की चाहे जैसी भी छवि पेश करती रही हो, इस व्रत को करने वाली नई दौर की सौभाग्यवतियों ने न सिर्फ इस पुराकथा को बदला है बल्कि इस पर्व को मनाने के नए औचित्य भी गढ़े हैं। विवाह नाम की संस्था आज दांपत्य निर्वाह का महज संकल्प भर नहीं है, जहां स्त्री-पुरुष संबंध के तमाम स्तरों और सरोकारों को महज संतानोत्पत्ति के महालक्ष्य के लिए तिरोहित कर दिए जाएं। संबंधों के स्तर पर व्यावहारिकता और व्यावहारिकता के स्तर पर एक-दूसरे के मुताबिक होने-ढलने की ढेर सारी हसरतें, नए दौर में विवाह संस्था के ईंट-गारे हैं।
करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी शामिल हैं। दो साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली प्रेरणा इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दोनों हैं, यानी ई·ार से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फख्र है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद।
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब लिव-इन और समलैंगिक जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में तलाक के मामले जहां 54-55 फीसद हैं, वहीं अपने देश में यह फीसद आज भी बमुश्किल 1.1 फीसद है। जाहिर है कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने "उनके' लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां मेड फॉर इच अदर के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं। परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करते हैं। यह फिनोमिना गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेंहदी सजे, इसकी खुशी पति में भी दिखती है, पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी से साथ बाजार निकलती है। यही नहीं अब तो बच्चे पर प्यार उडे़लने में भी मां-पिता की भूमिका बंटी-बंटी नहीं बल्कि समान होती जा रही है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ भाजपा नेता सुषमा स्वराज कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिंदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी जब व्रत की थाली सजाए टीवी पर दिखती हैं तो वहीं देश के सबसे ज्यादा चर्चित और गौरवशाली परिवार का दर्जा पाने वाले बच्चन परिवार में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। साफ है कि नया परिवार संस्कार अपनी-अपनी तरह से परंपरा की गोद में दूध पी रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है। नए दौर की जरूरतों और मान्यताओं को आत्मसात कर बदलती तो है पर बिगड़ती नहीं। करवा चौथ का बदला स्वरूप ही ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। अब यह पर्व कर्मकांडीय आस्था के बजाय उसी तरह सेलिब्रोट किया जा रहा है जैसे मदर्स-फादर्स और वेलेंटाइन डे। यह अलग बात है कि बदलाव के इस झोंके में बाजार ने अपनी भूमिका तलाश ली है, सबके साथ वह भी हमारी खुशियों में शामिल है।
करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी शामिल हैं। दो साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली प्रेरणा इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दोनों हैं, यानी ई·ार से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फख्र है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद।
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब लिव-इन और समलैंगिक जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में तलाक के मामले जहां 54-55 फीसद हैं, वहीं अपने देश में यह फीसद आज भी बमुश्किल 1.1 फीसद है। जाहिर है कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने "उनके' लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां मेड फॉर इच अदर के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं। परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करते हैं। यह फिनोमिना गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेंहदी सजे, इसकी खुशी पति में भी दिखती है, पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी से साथ बाजार निकलती है। यही नहीं अब तो बच्चे पर प्यार उडे़लने में भी मां-पिता की भूमिका बंटी-बंटी नहीं बल्कि समान होती जा रही है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ भाजपा नेता सुषमा स्वराज कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिंदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी जब व्रत की थाली सजाए टीवी पर दिखती हैं तो वहीं देश के सबसे ज्यादा चर्चित और गौरवशाली परिवार का दर्जा पाने वाले बच्चन परिवार में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। साफ है कि नया परिवार संस्कार अपनी-अपनी तरह से परंपरा की गोद में दूध पी रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है। नए दौर की जरूरतों और मान्यताओं को आत्मसात कर बदलती तो है पर बिगड़ती नहीं। करवा चौथ का बदला स्वरूप ही ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। अब यह पर्व कर्मकांडीय आस्था के बजाय उसी तरह सेलिब्रोट किया जा रहा है जैसे मदर्स-फादर्स और वेलेंटाइन डे। यह अलग बात है कि बदलाव के इस झोंके में बाजार ने अपनी भूमिका तलाश ली है, सबके साथ वह भी हमारी खुशियों में शामिल है।
-प्रेम प्रकाश
वरिष्ठ उप संपादक
राष्ट्रीय सहारा
वरिष्ठ उप संपादक
राष्ट्रीय सहारा
6 टिप्पणियां:
दो साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली प्रेरणा इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए।
यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है।
धन्यवाद |
बहुत अच्छी प्रस्तुति ।
सुन्दर विवेचन.
PATI PATNI K AAPSI SAMBANDHO KO MAZBOOT BANANE KA EK SUNDER UTSAV...NARIYAN AMAR RAHEN.
करवा चौथ के बदलते स्वरूप का बेहतर तरीके से विश्लेषण।
पाश्चायत्य सभ्यता के इस दौर में इस त्यौहार ने जीवन साथियों के एक दूसरे के प्रति समर्पण और स्नेह-प्यार को इस त्यौहार ने जिंदा रखा है और अब तो यह व्रत न सिर्फ महिलाएं रख रही हैं बल्कि पुरूष भी अपने जीवन साथी के व्रत में साथ दे रहे हैं।
अच्छी प्रस्तुति।
आभार.......
पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने "उनके' लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। ----
---नहीं शिखा जी ...एक या दो मामलों में यह हो सकता है ...वास्तव में तब भी नारी की यही पति-प्रेम - आकांक्षा-भाव था और अब भी ---सही तो वही है कि भारतीय परम्पराएँ समय के साथ समन्वय-समायोजन करना जानती हैं ...जो वैज्ञानिकता, सामाजिकता, व्यवहारिकता के साथ आस्था पर आधारित है ...इसीलिये आज की कम्प्युटर युग की नारी भी थाल सजाकर निकल पडती है ....एसी ही है यह संस्कृति...जमाने से निराली....
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