बुधवार, 20 अगस्त 2025

16 साल की मुस्लिम लड़की को वैध विवाह का अधिकार -सुप्रीम कोर्ट

 


(Shalini kaushik law classes)

सुप्रीम कोर्ट जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने मंगलवार (19 अगस्त) को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज कर दिया गया। याचिका द्वारा पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के 2022 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें कहा गया था कि 16 साल की मुस्लिम लड़की किसी मुस्लिम पुरुष से वैध विवाह कर सकती है और दंपति को धमकियों से सुरक्षा प्रदान की गई थी। 

     जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने निर्णय में कहा कि 

 "राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) इस मुकदमे से अनजान है और उसे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।"

खंडपीठ ने पूछा कि-

"राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को धमकियों का सामना कर रहे दंपति के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करने वाले हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती क्यों देनी चाहिए?" 

खंडपीठ ने कहा,

 "NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है... अगर दो नाबालिग बच्चों को हाईकोर्ट द्वारा संरक्षण प्राप्त है तो NCPCR ऐसे आदेश को कैसे चुनौती दे सकता है... यह अजीब है कि NCPCR, जो बच्चों की सुरक्षा के लिए है, उसने ऐसे आदेश को चुनौती दी।"

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के वकील ने दलील दी कि

 "वे कानून का सवाल उठा रहे थे कि क्या 18 साल से कम उम्र की लड़की को सिर्फ़ पर्सनल लॉ के आधार पर कानूनी तौर पर शादी करने की योग्यता रखने वाला माना जा सकता है?"

जिस पर सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ की जस्टिस नागरत्ना ने कहा,

 "कानून का कोई सवाल ही नहीं उठता, कृपया आप किसी उचित मामले में चुनौती दें।" 

याचिका खारिज करते हुए खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा: 

"हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि NCPCR ऐसे आदेश से कैसे व्यथित हो सकता है। अगर हाईकोर्ट, अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए दो व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करना चाहता है तो NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है। याचिका खारिज की जाती है।"

खंडपीठ ने कहा-

"ऐसे मामलों को आपराधिक मामलों की तरह न देखें। हमें आपराधिक मामलों और इस मामले में अंतर करना होगा।"

 जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा, 

"देखिए, अगर लड़की किसी लड़के से प्यार करती है और उसे जेल भेज दिया जाता है तो उस लड़की को कितनी पीड़ा होती है, क्योंकि उसके माता-पिता भागने को छिपाने के लिए POCSO का मामला दर्ज करा देते हैं।" 

Case Details : 

NATIONAL COMMISSION FOR PROTECTION OF CHILD RIGHTS (NCPCR) Versus GULAAM DEEN AND ORS.| SLP(Crl) No. 10036/2022, NCPCR vs JAVED AND ORS Diary No. 35376-2022, NCPCR vs FIJA AND ORS SLP(Crl) No. 1934/2023

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प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 11 अगस्त 2025

पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी -इलाहाबाद हाईकोर्ट

 

shalini kaushik law classes)

इलाहाबाद हाई कोर्ट का मानना है कि जो पुरुष और महिला एक लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो पत्नी का भरण-पोषण का हक बनता है। इसलिए भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है।

भरण पोषण के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 

" भरण-पोषण के मामले में पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी है। पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो भरण-पोषण का हक बनता है। लिहाजा, भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है। कानून का मकसद न्याय है न कि ऐसे रिश्तों को नकारना जो समाज में पति-पत्नी की तरह माने जाते है।"

इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की अदालत ने देवरिया निवासी याची की पुनरीक्षण याचिका स्वीकार कर ली। कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय का आदेश रद्द कर नए सिरे से मामले की सुनवाई करने के लिए वापस भेज दिया। साथ ही कांस्टेबल पति को मामले के निस्तारण होने तक याची को 8,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का आदेश दिया है।

मामले में याची ने 2017 में पति के निधन के बाद कांस्टेबल देवर संग शादी होने का दावा किया । देवरिया के पारिवारिक न्यायालय में याची ने आरोप लगाया कि हिंदू रीति से विवाह होने के बाद देवर (पति ) दहेज की मांग करने लगा और दहेज़ न मिलने पर दूसरी शादी रचाकर याची व याची के बच्चों को घर से निकाल दिया। वहीं, विपक्षी ने शादी होने से इन्कार कर दिया। 

इस पर पारिवारिक न्यायालय ने याची की भरण-पाेषण की मांग यह कहते हुए खारिज कर दी कि वह वैध शादी के प्रमाण नहीं दे सकी। लिहाजा, वह विपक्षी की पत्नी नहीं है। इसके खिलाफ याची ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 

      याची के अधिवक्ता ने आधार कार्ड, बैंक रिकॉर्ड और गवाहों के बयान पेश कर दलील दी कि दोनों लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह रहे हैं और पहले पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी वैध है। याची का दूसरा पति यूपी पुलिस में कांस्टेबल है, वेतन के अलावा खेती से भी उसकी आमदनी है जबकि याची बेसहारा है। लिहाजा, वह भरण-पोषण की हकदार है। 

     विपक्षी के अधिवक्ता ने दलील दी कि विपक्षी कभी शादीशुदा नहीं था, बच्चे भाई की संतान हैं और याची पैतृक संपत्ति से पहले ही लाभ ले रही है। 

इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की एकल पीठ ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और निर्णय देते हुए कहा कि अदालत ने विवाह का प्रमाण न होने के तकनीकी आधार पर अर्जी खारिज कर कानूनी व तथ्यात्मक गलती की है।

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प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 21 जुलाई 2025

पिता की मृत्यु के बाद मां ही बच्चे की प्राकृतिक अभिभावक-बॉम्बे हाई कोर्ट

  


एक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा-

" हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत वैधानिक योजना, यह प्रदान करती है कि मां पिता के बाद प्राकृतिक अभिभावक बन जाती है, और कानून उसे प्राथमिकता देता है जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह अयोग्य है"

न्यायालय ने आगे कहा-

 "धारा 6 (a) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अविवाहित लड़की के मामले में, पिता और उसके बाद, मां नाबालिग की प्राकृतिक अभिभावक है , कानूनी रूप से बोलते हुए, नाबालिग लड़की को मां की हिरासत में दिया जाना चाहिए जब तक कि यह स्थापित न हो जाए कि उसके पास नाबालिग के कल्याण को सुरक्षित करने के लिए प्रतिकूल हित या अक्षमता है।"

न्यायालय ने कहा कि 

" नाबालिग का कल्याण सर्वोच्च विचार है, हालांकि विशेष विधियों के प्रावधान माता-पिता या अभिभावकों के अधिकारों को नियंत्रित करते हैं। "

 न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि

" केवल इसलिए कि दादा-दादी ने कुछ वर्षों तक बच्चे का पालन-पोषण किया था, उन्हें प्राकृतिक अभिभावक पर बेहतर अधिकार नहीं देता है। यह देखा गया है कि केवल इसलिए कि दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों ने कुछ अवधि के लिए बच्चे का पालन-पोषण किया था, प्राकृतिक अभिभावक को बच्चे की कस्टडी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि नाबालिग का कल्याण खतरे में पड़ जाएगा।"

अदालत ने कहा कि

" मां अब व्यवसाय में लगी हुई है और उसके पास अपना और अपने बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त कमाई है। "

   किन्तु बच्ची और उसके दादा-दादी के बीच भावनात्मक बंधन को पहचानते हुए, अदालत ने याचिकाकर्ता को जिला न्यायाधीश के समक्ष सप्ताहांत और त्योहारों और छुट्टियों के दौरान नियमित पहुंच की अनुमति देने के लिए एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। तदनुसार, याचिका की अनुमति दी गई, और मां को बेटी की अंतरिम कस्टडी दी गई।

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प्रस्तुति

शालिनी कौशिक

एडवोकेट

कैराना (शामली)


शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान दिया उत्तराधिकार का अधिकार,

 


 अपने हाल ही के एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य के उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में आदिवासी परिवार की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -

"कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी महिलाएं स्वतः ही उत्तराधिकार से वंचित हो जाती हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई प्रचलित प्रथा मौजूद है, जो पैतृक संपत्ति में महिला आदिवासी हिस्सेदारी के अधिकार को प्रतिबंधित करती है।"

       प्रस्तुत मामले में पक्षकार ऐसी किसी प्रथा का अस्तित्व स्थापित नहीं कर सके, जिसमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया गया हो। न्यायालय ने कहा,

 " रीति-रिवाज भी समय के बंधन में नहीं रह सकते। दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" न्यायालय ने कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है।"

न्यायालय ने आगे कहा 

" कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विशिष्ट आदिवासी रीति-रिवाज या संहिताबद्ध कानून के अभाव में न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करना केवल लैंगिक विभाजन और भेदभाव को बढ़ाता है, जिसे कानून को समाप्त करना चाहिए।" 

➡️ मौजूदा मामले में विवाद-

      प्रस्तुत मामले में अपीलकर्ता धैया एक अनुसूचित जनजाति की महिला थी जिसके कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते उसके परिजन धैय्या के नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग रहे हैं। जिस दावे का परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों द्वारा विरोध किया गया और कहा गया कि आदिवासी रीति-रिवाजों के तहत महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर रखा गया है.अधीनस्थ अदालत, प्रथम अपीलीय जिला अदालत और हाईकोर्ट तीनों ने अपीलकर्ताओं के दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चूंकि अपीलकर्ता महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में विफल रहे, इसलिए आदिवासी महिला हिस्से की हकदार नहीं है। 

➡️ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई-

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की,समवर्ती निष्कर्षों को दरकिनार करते हुए जस्टिस करोल द्वारा लिखित निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि 

" किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समानता कायम रहनी चाहिए। किसी आदिवासी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित करना असंवैधानिक है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं से महिलाओं द्वारा उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की अपेक्षा करने में गलती की, बजाय इसके कि विरोधी पक्ष को ऐसी उत्तराधिकार पर रोक साबित करने की आवश्यकता हो।"

न्यायालय ने कहा,

 “वर्तमान मामले में यदि निचली अदालत के विचार मान्य होते हैं तो किसी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को इस प्रथा में ऐसी विरासत के सकारात्मक दावे के अभाव के आधार पर संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। हालांकि, प्रथाएं भी कानून की तरह समय के बंधन में नहीं रह सकतीं। दूसरों को प्रथाओं की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” 

न्यायालय ने आगे टिप्पणी की,

यह सच है कि अपीलकर्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, लेकिन फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी ज़रा भी सिद्ध नहीं की जा सकी, और न ही उसे सिद्ध किया जा सका। ऐसी स्थिति में धैया (आदिवासी महिला) को उसके पिता की संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित करना, जब प्रथा मौन हो, उसके अपने भाइयों या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के अपने चचेरे भाई के साथ समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।” निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला आदिवासी को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। 

अदालत ने कहा, 

"ऐसा प्रतीत होता है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार प्रदान किया गया है और महिलाओं को नहीं किया गया है, उसके लिए कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है, खासकर उस स्थिति में जब कानून के अनुसार इस तरह का कोई निषेध प्रचलित नहीं दिखाया जा सकता। अनुच्छेद 15(1) में कहा गया कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ संविधान के सामूहिक लोकाचार की ओर इशारा करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो।" 

 इस प्रकार अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए धैया के कानूनी उत्तराधिकारी अपीलकर्ताओं को संपत्ति में समान हिस्सा प्रदान किया। 

Case Title: 

RAM CHARAN & ORS. VERSUS SUKHRAM & ORS.

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प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

खेती की जमीन और बेटी

 


बेटियों के अधिकारों लिए आरम्भ से लेकर आज तक बहुत से संघर्ष किये गए और बहुत से फैसले लिए गए. उन सभी को देखते हुए 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में जो बदलाव का निर्णय देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया उसे मील का पत्थर, यदि कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया गया। जिसके अंतर्गत बेटियों को पिता की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने का प्रावधान किया गया। इससे पहले बेटियों को शादी के बाद पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं होता था. किन्तु अब बेटी को विवाह के बाद भी बेटे जितना हक सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रदान कर दिया गया है.

➡️ अब खेती पर भी बेटियों का अधिकार-

 खेती की जमीन पर बेटियों का कोई अधिकार नहीं होता था. भारत के कई राज्यों में खेती की जमीन में बेटियों को अधिकार नहीं दिया जाता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2020 और फिर 2024 में बेटियों को खेती की जमीन में भी बेटों के बराबर हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को भी इस भेदभाव को खत्म करने का निर्देश जारी किया है.

➡️ विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020) केस में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला-

विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत बेटियों के सहदायिक अधिकारों से संबंधित एक ऐतिहासिक मामला था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक (coparcener) होंगी. 

यह मामला 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम की व्याख्या से संबंधित था, जो बेटियों को बेटों के समान सहदायिक अधिकार देता है. विशेष रूप से, यह सवाल था कि क्या संशोधन से पहले जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त कर सकती हैं. 

सर्वोच्च न्यायालय ने 11 अगस्त, 2020 को फैसला सुनाया कि संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा, जिसका अर्थ है कि यह 1956 में अधिनियम के लागू होने की तारीख से लागू होगा. इसका मतलब है कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त करेंगी. 

इस फैसले का हिंदू परिवारों में लैंगिक समानता और संपत्ति के अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है. 

✒️ विनीता शर्मा केस का पूर्वव्यापी प्रभाव:-

🌑 2005 का संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा. 

🌑 बेटियों को सहदायिक अधिकार:

🌑 संशोधन के बाद, बेटियां बेटों के समान सहदायिक होंगी. 

🌑 समान अधिकार:

बेटियों को बेटों के समान संपत्ति पर अधिकार प्राप्त होंगे. 

इस फैसले ने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 2020 में विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में जन्म से ही बराबर का हक मिलेगा, भले ही पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो या बाद में। इस फैसले ने बेटियों के अधिकार को और मजबूत किया.यह मामला भारत के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, क्योंकि इसने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 

( बेटियों को अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से क्या कदम उठाने होंगे, ये जानने के लिए जुड़े रहिये कानूनी ज्ञान ब्लॉग से और यदि और कोई भी कोई समस्या या जिज्ञासा हो तो ब्लॉग के कमेंट सेक्शन में जाकर टिप्पणी करें ) 

धन्यवाद 🙏🙏

द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 9 जून 2025

सशक्त नारी -बिगड़ता समाज



आख़िरकार वही हुआ जो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए था. आज तक पुरुष पर दरिंदगी के आरोप लगते रहे किन्तु आज की भारतीय नारी ने पिछले कुछ समय से यह साबित करके दिखा ही दिया है कि वह पुरुषो से किसी भी मामले मे पीछे नहीं है. अपने सकारात्मक स्वरुप से नारी देवी का स्वरुप तो सृष्टि के आरम्भ से ही दिखाती आ रही थी किन्तु वह राक्षसी भी हो सकती है, चुड़ैल भी हो सकती है यह आधुनिकता की ओर बढ़ते नये भारत में ही नजर आया है.

      लड़कियों के लिए तो आधुनिक सामाजिक संस्कृति के आरम्भ से ही विवाह मौत का द्वार बनता रहा है दहेज़ के दानव के कारण, किन्तु लड़कों को नहीं पता था कि एक दिन शादी करना उनके लिए भी मृत्यु के घाट उतरने के समान ही हो जायेगा. अभी तो भारतीय संस्कृति मुस्कान द्वारा किये गए सौरभ के टुकड़ों पर ही आंसू बहाकर शांत नहीं हुई थी कि भारतीय संस्कृति को धक्का पहुँचाने वाली सोनम और निकल आई.

        भारतीय संस्कृति में पत्नी हमेशा पति की प्रेरणा, जीवन रक्षक रही है. पति की मंगलकामना के लिए पत्नियों ने हर कष्ट को सहा है, हर संकट का सामना किया है. सोनम और राजा रघुवंशी की शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत जिस माह में हुई वह एक ऐसा पवित्र माह है जिसकी अमावस्या को सुहागन नारियां सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज तक से ले आने की कथा कहते हुए वट सावित्री व्रत रखती हैँ और अपने पति के दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हैं, ऐसे पवित्र ज्येष्ठ मास में सोनम ने सावित्री के आदर्श को तोड़ा है, वह पति जो पत्नी की बात और उसका मन रखते हुए बिना किसी पूर्व योजना के हनीमून पर जाता है, माँ उमा रघुवंशी की सीख को एक ओर रख पत्नी सोनम की भावना की कदर करते हुए उसके कहने पर सोने की चेन पहनकर जाता है. उसे इस तरह से धोखे में रखकर, सुपारी देकर उसकी हत्या को अंजाम देकर भारतीय नारी की सृष्टि के आरम्भ से चली आ रही 

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता." 

      के सत्य को मिथक साबित किया है. यही नहीं सोनम ने गलत साबित कर दिया है उस सोच को, जिसे केरल हाई कोर्ट की खंडपीठ ने एक निर्णय में पत्नी के देवी स्वरुप को ऊपर रखते हुए सम्मान देते हुए कहा कि 

"पति को बचाते हुए पत्नी द्वारा केस वापस लेना असामान्य नहीं."

केरल हाई कोर्ट के जस्टिस देवन रामचंद्रन और जस्टिस एम. बी. स्नेहलता की खंडपीठ ने पत्नी की महानता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, "एक स्त्री अपने वैवाहिक जीवन और परिवार की रक्षा के लिए क्षमा करती है और सहन करती है। यह क्षमा कोई निष्क्रिय क्रिया नहीं, बल्कि एक सक्रिय और परिवर्तनकारी कार्य है, जो भावनात्मक घावों को भरने और आंतरिक शांति प्राप्त करने का माध्यम बनता है। यह महिला की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी आंतरिक शक्ति का प्रमाण है, जिससे वह कटुता और प्रतिशोध की श्रृंखला को तोड़ती है।"

     बहुत गहरे हैँ वे घाव जो आज की ये बेटियां- सूर्पनखा का रूप धारण कर अपने परिवार को, पति को, बेटे बेटियों को पहुंचा रही हैँ. ये आधुनिक शिक्षा द्वारा भरे जा रहे वे कुसंस्कार ही कहे जा सकते हैँ जो भारतीय नारी को सीता की जगह सूर्पनखा बना रहे हैँ. एक तरफ सीता ने अपने पति का साथ देने के लिए राजसी ठाठ बाट तक त्यागकर वनों की कंटीली धरती पर नंगे पैर चलना स्वीकार किया और एक सूर्पनखा थी जिसने अपनी कलुषित वासना के लिए अपने भाई रावण, कुम्भकर्ण और भाई के एक लाख पूत, सवा लाख नातियों को युद्ध की भेंट चढ़वा कर सोने की लंका नगरी को श्मशान मे तब्दील करा दिया. ऐसे मे आज की शिक्षा व्यवस्था पर यह कलंक आएगा ही आएगा कि वह हमारी बेटियों को क्या पढ़ा रही है जो भारतीय नारी के दैवीय संस्कार छीन कर उन्हें राक्षसी स्वरूप में ढाल रही है. आज यह भारतीय शिक्षा की कमियां ही हैँ जो मुस्कान और सोनम के रूप में कातिल पत्नियां उभरकर सामने आ रही हैँ और हिंदी फ़िल्म के इस गाने की पंक्ति को सत्य साबित कर रही हैँ -

"शादी से पहले करती हैँ अक्सर प्रेम कँवारियाँ,

चक्कर खा गए हम तो रे भईया देख शहर की नारियाँ.

रामा ओ रामा!

द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 19 मई 2025

महिलाओं की सखी -वन स्टॉप सेंटर


(वन स्टॉप सेंटर-कानूनी ज्ञान)

वन स्टॉप सेंटर (OSC) हिंसा से प्रभावित महिलाओं को एक ही जगह पर विभिन्न सहायता सेवाएं प्रदान करने के लिए स्थापित एक एकीकृत केंद्र है। यह केंद्र महिलाओं को तत्काल और गैर-आपातकालीन दोनों प्रकार की सहायता प्रदान करता है, जिसमें चिकित्सा, कानूनी, मनोवैज्ञानिक परामर्श और आश्रय शामिल हैं. 

➡️ OSC के उद्देश्य:-
1️⃣ हिंसा से प्रभावित महिलाओं और बालिकाओं को तत्काल और गैर-आपातकालीन सहायता प्रदान करना।
2️⃣ पीड़ित महिलाओं को एक ही छत के नीचे चिकित्सा, कानूनी, मनोवैज्ञानिक और परामर्श सहायता प्रदान करना। 
3️⃣ हिंसा से प्रभावित महिलाओं को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाना।
4️⃣ हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए न्याय और सुरक्षा सुनिश्चित करना।

➡️ OSC में प्रदान की जाने वाली सेवाएं:-
1️⃣ आश्रम (अस्थायी आश्रय): 
पीड़ित महिलाओं को तत्काल सुरक्षित आश्रय प्रदान किया जाता है।
2️⃣ पुलिस डेस्क: 
पीड़ित महिलाएं पुलिस को अपनी शिकायत दर्ज करा सकती हैं।
3️⃣ कानूनी सहायता: 
पीड़ित महिलाओं को कानूनी परामर्श और सहायता प्रदान की जाती है।
4️⃣ चिकित्सा सहायता: 
पीड़ित महिलाओं को चिकित्सा परामर्श और उपचार प्रदान किया जाता है।
5️⃣ मनोवैज्ञानिक परामर्श: 
पीड़ित महिलाओं को मनोवैज्ञानिक परामर्श और समर्थन प्रदान किया जाता है।
6️⃣ सामाजिक परामर्श:
पीड़ित महिलाओं को सामाजिक परामर्श और सहायता प्रदान की जाती है।
7️⃣ सहायता समूहों का संचालन: 
पीड़ित महिलाओं को अपने अनुभवों को साझा करने और एक-दूसरे का समर्थन करने के लिए सहायता समूह प्रदान किए जाते हैं।
8️⃣ प्रशिक्षण और विकास कार्यक्रम:
पीड़ित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रशिक्षण और विकास कार्यक्रम प्रदान किए जाते हैं।

OSC भारत सरकार द्वारा हिंसा से प्रभावित महिलाओं की सहायता के लिए शुरू की गई एक योजना है. इस योजना का उद्देश्य महिलाओं को सशक्त बनाना, उन्हें न्याय दिलाना और उनके जीवन को सुरक्षित बनाना है

 इस प्रकार किसी भी प्रकार की हिंसा से पीड़ित महिलाएं 181 हेल्पलाइन नंबर पर कॉल कर वन स्टॉप सेंटर की मदद ले सकती हैँ.

प्रस्तुति 
शालिनी कौशिक 
एडवोकेट 
 कैराना (शामली )