बुधवार, 20 अगस्त 2025

16 साल की मुस्लिम लड़की को वैध विवाह का अधिकार -सुप्रीम कोर्ट

 


(Shalini kaushik law classes)

सुप्रीम कोर्ट जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने मंगलवार (19 अगस्त) को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज कर दिया गया। याचिका द्वारा पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के 2022 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें कहा गया था कि 16 साल की मुस्लिम लड़की किसी मुस्लिम पुरुष से वैध विवाह कर सकती है और दंपति को धमकियों से सुरक्षा प्रदान की गई थी। 

     जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने निर्णय में कहा कि 

 "राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) इस मुकदमे से अनजान है और उसे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है।"

खंडपीठ ने पूछा कि-

"राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को धमकियों का सामना कर रहे दंपति के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा प्रदान करने वाले हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती क्यों देनी चाहिए?" 

खंडपीठ ने कहा,

 "NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है... अगर दो नाबालिग बच्चों को हाईकोर्ट द्वारा संरक्षण प्राप्त है तो NCPCR ऐसे आदेश को कैसे चुनौती दे सकता है... यह अजीब है कि NCPCR, जो बच्चों की सुरक्षा के लिए है, उसने ऐसे आदेश को चुनौती दी।"

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के वकील ने दलील दी कि

 "वे कानून का सवाल उठा रहे थे कि क्या 18 साल से कम उम्र की लड़की को सिर्फ़ पर्सनल लॉ के आधार पर कानूनी तौर पर शादी करने की योग्यता रखने वाला माना जा सकता है?"

जिस पर सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ की जस्टिस नागरत्ना ने कहा,

 "कानून का कोई सवाल ही नहीं उठता, कृपया आप किसी उचित मामले में चुनौती दें।" 

याचिका खारिज करते हुए खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा: 

"हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि NCPCR ऐसे आदेश से कैसे व्यथित हो सकता है। अगर हाईकोर्ट, अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए दो व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करना चाहता है तो NCPCR के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है। याचिका खारिज की जाती है।"

खंडपीठ ने कहा-

"ऐसे मामलों को आपराधिक मामलों की तरह न देखें। हमें आपराधिक मामलों और इस मामले में अंतर करना होगा।"

 जस्टिस नागरत्ना ने आगे कहा, 

"देखिए, अगर लड़की किसी लड़के से प्यार करती है और उसे जेल भेज दिया जाता है तो उस लड़की को कितनी पीड़ा होती है, क्योंकि उसके माता-पिता भागने को छिपाने के लिए POCSO का मामला दर्ज करा देते हैं।" 

Case Details : 

NATIONAL COMMISSION FOR PROTECTION OF CHILD RIGHTS (NCPCR) Versus GULAAM DEEN AND ORS.| SLP(Crl) No. 10036/2022, NCPCR vs JAVED AND ORS Diary No. 35376-2022, NCPCR vs FIJA AND ORS SLP(Crl) No. 1934/2023

आभार 🙏👇


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

सोमवार, 11 अगस्त 2025

पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी -इलाहाबाद हाईकोर्ट

 

shalini kaushik law classes)

इलाहाबाद हाई कोर्ट का मानना है कि जो पुरुष और महिला एक लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो पत्नी का भरण-पोषण का हक बनता है। इसलिए भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है।

भरण पोषण के एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि 

" भरण-पोषण के मामले में पत्नी की परिभाषा दस्तावेज से बड़ी है। पुरुष और महिला लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहे हैं तो भरण-पोषण का हक बनता है। लिहाजा, भरण-पोषण के लिए विवाह को साबित करना जरूरी नहीं है। कानून का मकसद न्याय है न कि ऐसे रिश्तों को नकारना जो समाज में पति-पत्नी की तरह माने जाते है।"

इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की अदालत ने देवरिया निवासी याची की पुनरीक्षण याचिका स्वीकार कर ली। कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय का आदेश रद्द कर नए सिरे से मामले की सुनवाई करने के लिए वापस भेज दिया। साथ ही कांस्टेबल पति को मामले के निस्तारण होने तक याची को 8,000 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का आदेश दिया है।

मामले में याची ने 2017 में पति के निधन के बाद कांस्टेबल देवर संग शादी होने का दावा किया । देवरिया के पारिवारिक न्यायालय में याची ने आरोप लगाया कि हिंदू रीति से विवाह होने के बाद देवर (पति ) दहेज की मांग करने लगा और दहेज़ न मिलने पर दूसरी शादी रचाकर याची व याची के बच्चों को घर से निकाल दिया। वहीं, विपक्षी ने शादी होने से इन्कार कर दिया। 

इस पर पारिवारिक न्यायालय ने याची की भरण-पाेषण की मांग यह कहते हुए खारिज कर दी कि वह वैध शादी के प्रमाण नहीं दे सकी। लिहाजा, वह विपक्षी की पत्नी नहीं है। इसके खिलाफ याची ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 

      याची के अधिवक्ता ने आधार कार्ड, बैंक रिकॉर्ड और गवाहों के बयान पेश कर दलील दी कि दोनों लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह रहे हैं और पहले पति की मृत्यु के बाद दूसरी शादी वैध है। याची का दूसरा पति यूपी पुलिस में कांस्टेबल है, वेतन के अलावा खेती से भी उसकी आमदनी है जबकि याची बेसहारा है। लिहाजा, वह भरण-पोषण की हकदार है। 

     विपक्षी के अधिवक्ता ने दलील दी कि विपक्षी कभी शादीशुदा नहीं था, बच्चे भाई की संतान हैं और याची पैतृक संपत्ति से पहले ही लाभ ले रही है। 

इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की एकल पीठ ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया और निर्णय देते हुए कहा कि अदालत ने विवाह का प्रमाण न होने के तकनीकी आधार पर अर्जी खारिज कर कानूनी व तथ्यात्मक गलती की है।

आभार 🙏👇


प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )