सोमवार, 21 जुलाई 2025

पिता की मृत्यु के बाद मां ही बच्चे की प्राकृतिक अभिभावक-बॉम्बे हाई कोर्ट

  


एक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा-

" हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 के तहत वैधानिक योजना, यह प्रदान करती है कि मां पिता के बाद प्राकृतिक अभिभावक बन जाती है, और कानून उसे प्राथमिकता देता है जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह अयोग्य है"

न्यायालय ने आगे कहा-

 "धारा 6 (a) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अविवाहित लड़की के मामले में, पिता और उसके बाद, मां नाबालिग की प्राकृतिक अभिभावक है , कानूनी रूप से बोलते हुए, नाबालिग लड़की को मां की हिरासत में दिया जाना चाहिए जब तक कि यह स्थापित न हो जाए कि उसके पास नाबालिग के कल्याण को सुरक्षित करने के लिए प्रतिकूल हित या अक्षमता है।"

न्यायालय ने कहा कि 

" नाबालिग का कल्याण सर्वोच्च विचार है, हालांकि विशेष विधियों के प्रावधान माता-पिता या अभिभावकों के अधिकारों को नियंत्रित करते हैं। "

 न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि

" केवल इसलिए कि दादा-दादी ने कुछ वर्षों तक बच्चे का पालन-पोषण किया था, उन्हें प्राकृतिक अभिभावक पर बेहतर अधिकार नहीं देता है। यह देखा गया है कि केवल इसलिए कि दादा-दादी या अन्य रिश्तेदारों ने कुछ अवधि के लिए बच्चे का पालन-पोषण किया था, प्राकृतिक अभिभावक को बच्चे की कस्टडी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है जब तक कि यह नहीं दिखाया जाता है कि नाबालिग का कल्याण खतरे में पड़ जाएगा।"

अदालत ने कहा कि

" मां अब व्यवसाय में लगी हुई है और उसके पास अपना और अपने बच्चे का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त कमाई है। "

   किन्तु बच्ची और उसके दादा-दादी के बीच भावनात्मक बंधन को पहचानते हुए, अदालत ने याचिकाकर्ता को जिला न्यायाधीश के समक्ष सप्ताहांत और त्योहारों और छुट्टियों के दौरान नियमित पहुंच की अनुमति देने के लिए एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। तदनुसार, याचिका की अनुमति दी गई, और मां को बेटी की अंतरिम कस्टडी दी गई।

आभार 🙏👇



प्रस्तुति

शालिनी कौशिक

एडवोकेट

कैराना (शामली)


शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान दिया उत्तराधिकार का अधिकार,

 


 अपने हाल ही के एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं को पुरुषों के समान उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. राम चरण एवं अन्य बनाम सुखराम एवं अन्य के उत्तराधिकार से संबंधित विवाद में आदिवासी परिवार की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा -

"कि महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुचित और भेदभावपूर्ण है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी महिलाएं स्वतः ही उत्तराधिकार से वंचित हो जाती हैं। न्यायालय ने आगे कहा कि यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोई प्रचलित प्रथा मौजूद है, जो पैतृक संपत्ति में महिला आदिवासी हिस्सेदारी के अधिकार को प्रतिबंधित करती है।"

       प्रस्तुत मामले में पक्षकार ऐसी किसी प्रथा का अस्तित्व स्थापित नहीं कर सके, जिसमें महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया गया हो। न्यायालय ने कहा,

 " रीति-रिवाज भी समय के बंधन में नहीं रह सकते। दूसरों को रीति-रिवाजों की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।" न्यायालय ने कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। केवल पुरुष उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है।"

न्यायालय ने आगे कहा 

" कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाले किसी विशिष्ट आदिवासी रीति-रिवाज या संहिताबद्ध कानून के अभाव में न्यायालयों को "न्याय, समता और सद्विवेक" का प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा "महिला (या उसके) उत्तराधिकारी को संपत्ति में अधिकार से वंचित करना केवल लैंगिक विभाजन और भेदभाव को बढ़ाता है, जिसे कानून को समाप्त करना चाहिए।" 

➡️ मौजूदा मामले में विवाद-

      प्रस्तुत मामले में अपीलकर्ता धैया एक अनुसूचित जनजाति की महिला थी जिसके कानूनी उत्तराधिकारी होने के नाते उसके परिजन धैय्या के नाना की संपत्ति में हिस्सा मांग रहे हैं। जिस दावे का परिवार के पुरुष उत्तराधिकारियों द्वारा विरोध किया गया और कहा गया कि आदिवासी रीति-रिवाजों के तहत महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर रखा गया है.अधीनस्थ अदालत, प्रथम अपीलीय जिला अदालत और हाईकोर्ट तीनों ने अपीलकर्ताओं के दावा यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि चूंकि अपीलकर्ता महिला उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने में विफल रहे, इसलिए आदिवासी महिला हिस्से की हकदार नहीं है। 

➡️ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई-

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय करोल और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई की,समवर्ती निष्कर्षों को दरकिनार करते हुए जस्टिस करोल द्वारा लिखित निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि 

" किसी भी निषेधात्मक प्रथा के अभाव में समानता कायम रहनी चाहिए। किसी आदिवासी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को केवल लिंग के आधार पर संपत्ति में हिस्सेदारी से वंचित करना असंवैधानिक है। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि निचली अदालत ने अपीलकर्ताओं से महिलाओं द्वारा उत्तराधिकार की अनुमति देने वाली प्रथा को साबित करने की अपेक्षा करने में गलती की, बजाय इसके कि विरोधी पक्ष को ऐसी उत्तराधिकार पर रोक साबित करने की आवश्यकता हो।"

न्यायालय ने कहा,

 “वर्तमान मामले में यदि निचली अदालत के विचार मान्य होते हैं तो किसी महिला या उसके उत्तराधिकारियों को इस प्रथा में ऐसी विरासत के सकारात्मक दावे के अभाव के आधार पर संपत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। हालांकि, प्रथाएं भी कानून की तरह समय के बंधन में नहीं रह सकतीं। दूसरों को प्रथाओं की शरण लेने या उनके पीछे छिपकर दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” 

न्यायालय ने आगे टिप्पणी की,

यह सच है कि अपीलकर्ता-वादी द्वारा महिला उत्तराधिकार की ऐसी कोई प्रथा स्थापित नहीं की जा सकी, लेकिन फिर भी यह भी उतना ही सत्य है कि इसके विपरीत कोई प्रथा भी ज़रा भी सिद्ध नहीं की जा सकी, और न ही उसे सिद्ध किया जा सका। ऐसी स्थिति में धैया (आदिवासी महिला) को उसके पिता की संपत्ति में उसके हिस्से से वंचित करना, जब प्रथा मौन हो, उसके अपने भाइयों या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों के अपने चचेरे भाई के साथ समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।” निषेधात्मक प्रथा के अभाव में महिला आदिवासी को उत्तराधिकार से वंचित करना अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है। 

अदालत ने कहा, 

"ऐसा प्रतीत होता है कि केवल पुरुषों को ही अपने पूर्वजों की संपत्ति पर उत्तराधिकार प्रदान किया गया है और महिलाओं को नहीं किया गया है, उसके लिए कोई तर्कसंगत संबंध या उचित वर्गीकरण नहीं है, खासकर उस स्थिति में जब कानून के अनुसार इस तरह का कोई निषेध प्रचलित नहीं दिखाया जा सकता। अनुच्छेद 15(1) में कहा गया कि राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यह अनुच्छेद 38 और 46 के साथ संविधान के सामूहिक लोकाचार की ओर इशारा करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं के साथ कोई भेदभाव न हो।" 

 इस प्रकार अदालत ने अपील को स्वीकार करते हुए धैया के कानूनी उत्तराधिकारी अपीलकर्ताओं को संपत्ति में समान हिस्सा प्रदान किया। 

Case Title: 

RAM CHARAN & ORS. VERSUS SUKHRAM & ORS.

आभार 🙏👇



प्रस्तुति 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

खेती की जमीन और बेटी

 


बेटियों के अधिकारों लिए आरम्भ से लेकर आज तक बहुत से संघर्ष किये गए और बहुत से फैसले लिए गए. उन सभी को देखते हुए 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में जो बदलाव का निर्णय देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया उसे मील का पत्थर, यदि कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया गया। जिसके अंतर्गत बेटियों को पिता की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा देने का प्रावधान किया गया। इससे पहले बेटियों को शादी के बाद पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं होता था. किन्तु अब बेटी को विवाह के बाद भी बेटे जितना हक सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रदान कर दिया गया है.

➡️ अब खेती पर भी बेटियों का अधिकार-

 खेती की जमीन पर बेटियों का कोई अधिकार नहीं होता था. भारत के कई राज्यों में खेती की जमीन में बेटियों को अधिकार नहीं दिया जाता था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2020 और फिर 2024 में बेटियों को खेती की जमीन में भी बेटों के बराबर हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार दे दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को भी इस भेदभाव को खत्म करने का निर्देश जारी किया है.

➡️ विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा (2020) केस में सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला-

विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा, हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के तहत बेटियों के सहदायिक अधिकारों से संबंधित एक ऐतिहासिक मामला था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक (coparcener) होंगी. 

यह मामला 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम की व्याख्या से संबंधित था, जो बेटियों को बेटों के समान सहदायिक अधिकार देता है. विशेष रूप से, यह सवाल था कि क्या संशोधन से पहले जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त कर सकती हैं. 

सर्वोच्च न्यायालय ने 11 अगस्त, 2020 को फैसला सुनाया कि संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा, जिसका अर्थ है कि यह 1956 में अधिनियम के लागू होने की तारीख से लागू होगा. इसका मतलब है कि संशोधन से पहले या बाद में जन्मी बेटियां, बेटों के समान, संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक अधिकार प्राप्त करेंगी. 

इस फैसले का हिंदू परिवारों में लैंगिक समानता और संपत्ति के अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है. 

✒️ विनीता शर्मा केस का पूर्वव्यापी प्रभाव:-

🌑 2005 का संशोधन पूर्वव्यापी रूप से लागू होगा. 

🌑 बेटियों को सहदायिक अधिकार:

🌑 संशोधन के बाद, बेटियां बेटों के समान सहदायिक होंगी. 

🌑 समान अधिकार:

बेटियों को बेटों के समान संपत्ति पर अधिकार प्राप्त होंगे. 

इस फैसले ने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 2020 में विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में जन्म से ही बराबर का हक मिलेगा, भले ही पिता की मृत्यु 2005 से पहले हुई हो या बाद में। इस फैसले ने बेटियों के अधिकार को और मजबूत किया.यह मामला भारत के कानूनी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, क्योंकि इसने हिंदू कानून में लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. 

( बेटियों को अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए कानूनी रूप से क्या कदम उठाने होंगे, ये जानने के लिए जुड़े रहिये कानूनी ज्ञान ब्लॉग से और यदि और कोई भी कोई समस्या या जिज्ञासा हो तो ब्लॉग के कमेंट सेक्शन में जाकर टिप्पणी करें ) 

धन्यवाद 🙏🙏

द्वारा 

शालिनी कौशिक 

एडवोकेट 

कैराना (शामली )