आख़िरकार वही हुआ जो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए था. आज तक पुरुष पर दरिंदगी के आरोप लगते रहे किन्तु आज की भारतीय नारी ने पिछले कुछ समय से यह साबित करके दिखा ही दिया है कि वह पुरुषो से किसी भी मामले मे पीछे नहीं है. अपने सकारात्मक स्वरुप से नारी देवी का स्वरुप तो सृष्टि के आरम्भ से ही दिखाती आ रही थी किन्तु वह राक्षसी भी हो सकती है, चुड़ैल भी हो सकती है यह आधुनिकता की ओर बढ़ते नये भारत में ही नजर आया है.
लड़कियों के लिए तो आधुनिक सामाजिक संस्कृति के आरम्भ से ही विवाह मौत का द्वार बनता रहा है दहेज़ के दानव के कारण, किन्तु लड़कों को नहीं पता था कि एक दिन शादी करना उनके लिए भी मृत्यु के घाट उतरने के समान ही हो जायेगा. अभी तो भारतीय संस्कृति मुस्कान द्वारा किये गए सौरभ के टुकड़ों पर ही आंसू बहाकर शांत नहीं हुई थी कि भारतीय संस्कृति को धक्का पहुँचाने वाली सोनम और निकल आई.
भारतीय संस्कृति में पत्नी हमेशा पति की प्रेरणा, जीवन रक्षक रही है. पति की मंगलकामना के लिए पत्नियों ने हर कष्ट को सहा है, हर संकट का सामना किया है. सोनम और राजा रघुवंशी की शादीशुदा जिंदगी की शुरुआत जिस माह में हुई वह एक ऐसा पवित्र माह है जिसकी अमावस्या को सुहागन नारियां सावित्री द्वारा अपने पति सत्यवान के प्राण यमराज तक से ले आने की कथा कहते हुए वट सावित्री व्रत रखती हैँ और अपने पति के दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हैं, ऐसे पवित्र ज्येष्ठ मास में सोनम ने सावित्री के आदर्श को तोड़ा है, वह पति जो पत्नी की बात और उसका मन रखते हुए बिना किसी पूर्व योजना के हनीमून पर जाता है, माँ उमा रघुवंशी की सीख को एक ओर रख पत्नी सोनम की भावना की कदर करते हुए उसके कहने पर सोने की चेन पहनकर जाता है. उसे इस तरह से धोखे में रखकर, सुपारी देकर उसकी हत्या को अंजाम देकर भारतीय नारी की सृष्टि के आरम्भ से चली आ रही
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता."
के सत्य को मिथक साबित किया है. यही नहीं सोनम ने गलत साबित कर दिया है उस सोच को, जिसे केरल हाई कोर्ट की खंडपीठ ने एक निर्णय में पत्नी के देवी स्वरुप को ऊपर रखते हुए सम्मान देते हुए कहा कि
"पति को बचाते हुए पत्नी द्वारा केस वापस लेना असामान्य नहीं."
केरल हाई कोर्ट के जस्टिस देवन रामचंद्रन और जस्टिस एम. बी. स्नेहलता की खंडपीठ ने पत्नी की महानता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, "एक स्त्री अपने वैवाहिक जीवन और परिवार की रक्षा के लिए क्षमा करती है और सहन करती है। यह क्षमा कोई निष्क्रिय क्रिया नहीं, बल्कि एक सक्रिय और परिवर्तनकारी कार्य है, जो भावनात्मक घावों को भरने और आंतरिक शांति प्राप्त करने का माध्यम बनता है। यह महिला की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी आंतरिक शक्ति का प्रमाण है, जिससे वह कटुता और प्रतिशोध की श्रृंखला को तोड़ती है।"
बहुत गहरे हैँ वे घाव जो आज की ये बेटियां- सूर्पनखा का रूप धारण कर अपने परिवार को, पति को, बेटे बेटियों को पहुंचा रही हैँ. ये आधुनिक शिक्षा द्वारा भरे जा रहे वे कुसंस्कार ही कहे जा सकते हैँ जो भारतीय नारी को सीता की जगह सूर्पनखा बना रहे हैँ. एक तरफ सीता ने अपने पति का साथ देने के लिए राजसी ठाठ बाट तक त्यागकर वनों की कंटीली धरती पर नंगे पैर चलना स्वीकार किया और एक सूर्पनखा थी जिसने अपनी कलुषित वासना के लिए अपने भाई रावण, कुम्भकर्ण और भाई के एक लाख पूत, सवा लाख नातियों को युद्ध की भेंट चढ़वा कर सोने की लंका नगरी को श्मशान मे तब्दील करा दिया. ऐसे मे आज की शिक्षा व्यवस्था पर यह कलंक आएगा ही आएगा कि वह हमारी बेटियों को क्या पढ़ा रही है जो भारतीय नारी के दैवीय संस्कार छीन कर उन्हें राक्षसी स्वरूप में ढाल रही है. आज यह भारतीय शिक्षा की कमियां ही हैँ जो मुस्कान और सोनम के रूप में कातिल पत्नियां उभरकर सामने आ रही हैँ और हिंदी फ़िल्म के इस गाने की पंक्ति को सत्य साबित कर रही हैँ -
"शादी से पहले करती हैँ अक्सर प्रेम कँवारियाँ,
चक्कर खा गए हम तो रे भईया देख शहर की नारियाँ.
रामा ओ रामा!
द्वारा
शालिनी कौशिक
एडवोकेट
कैराना (शामली )