कांधला से कैराना और पानीपत ,एक ऐसी बस यात्रा जिसे भुला पाना शायद भारत के सबसे बड़े घुमक्कड़ व् यात्रा वृतांत लिखने वाले राहुल सांकृत्यायन जी के लिए भी संभव नहीं होता यदि वे इधर की कभी एक बार भी यात्रा करते .
कोई भी बात या तो किसी अच्छे अनुभव के लिए याद की जाती है या किसी बुरे अनुभव के लिए ,लेकिन ये यात्रा एक ऐसी यात्रा है जिसे याद किया जायेगा एकमात्र इसलिए कि इसमें महिलाओं की और वह भी ऐसी महिलाओं की बहुतायत है जिसके पास देश की जनसँख्या को बढ़ाने वाले बच्चे बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं और सारा देश भले ही नारी सशक्तिकरण के लिए तरस रहा हो किन्तु इस सफर में नारी की सशक्तता देखते ही बनती है और पुरुष सशक्त होने के लिए तड़पता दिखाई देता है .
कांधला से कैराना जाने वालों में एक बड़ी संख्या उस वर्ग की है जिन्हें कैराना पहुंचकर डग्गामार की सवारी द्वारा पानीपत जाना होता है ,डग्गामार वे वाहन हैं जो वैन या जीप में सीट से अधिक ही क्या बहुत अधिक संख्या में यात्रियों को बैठाकर या कहूं ठूसकर पानीपत ले जाते हैं और ठीक यही स्थिति कांधला से कैराना यात्रामार्ग की है जिसमे लगभग एक सीट के हिसाब से चार या पांच लोग भर लिए जाते हैं और उन्हें जैसे तैसे कैराना पहुंचना होता है और कैराना पहुंचकर डग्गामार की सवारी द्वारा पानीपत जाना होता है और यही एक सबसे दुखद परिस्थिति है जिसमे कैराना आना कांधले के सामान्य जन के लिए ,अधिवक्ताओं के लिए ,वादकारियों के लिए जी का जंजाल बन जाता है . बस में बच्चे लिए हुए लगभग १०-१२ महिलाएं उसमे रोज चढ़ेंगी और वे चाहे कांधला से कैराना तक पड़ने वाले किसी भी अड्डे चाहे गढ़ी कौर, चाहे असदपुर जिद्दाना ,चाहे आल्दी या चाहे ऊँचा गांव हो ,बस में पहले से सीट ग्रहण किये आदमी से खड़े होने की इच्छा लिए ही बस में चढ़ती हैं और बस में चढ़ते ही यही कहती नज़र आने लगती हैं कि ''हमारे आदमी तो बस में कोई भी औरत चढ़े उसके लिए फ़ौरन सीट छोड़ देते हैं .''
ऐसा नहीं है कि आदमी इतना सीधा-सादा है कि औरत के लिए एकदम सीट छोड़ दे लेकिन क्या करें आदमियों को उनकी ही जात-बिरादरी के अन्य लोग जिन्हे इन अबलाओं के कारण सीट नहीं मिली वे दया-धर्म के नाम पर अपनी सीट छोड़ने को मजबूर कर देते हैं और तब ये बेचारी अबला उस सीट पर आसानी से विराजमान हो जाती हैं उस आदमी के अपने से उम्र में बहुत बड़ा होने पर या बीमार कमजोर होने पर भी उसके द्वारा सीट छोड़ने पर कोई दुःख भी जताना इन सशक्त होने की चाह रखने वाली या कहूं देश में समानता के अधिकार की चाह रखने वाली यहाँ असमानता की सोच को अपने पर हावी नहीं होने देती .ऐसे में कभी कभी तो ऐसी स्थिति भी देखी जाती है कि बेचारा आदमी ये सोचकर कि अब ये औरतें उतर गयी हैं जैसे ही सीट पर बैठता है तभी पता नहीं कहाँ से एक अन्य और अबला वहां प्रकट हो जाती है और उस बेचारे की बैठने की इच्छा सारे रास्ते मन ही मन में धरी रह जाती है .
अब ऐसे में बेचारे आदमियों का क्या किया जाये जिन्हे इस देश में समानता के अधिकार की बात कह-कहकर बार-बार हाशिये पर धकेल दिया जाता है .अब या तो प्रशासन यहाँ ज्यादा बसें चलवायें ,पर उससे भी पूरा फायदा इस क्षेत्र को होने वाला नहीं है क्योंकि तब भी जितना आवागमन इस रुट पर है उसे देखते हुए ये बसें कम रह जाएँगी ऐसे में अच्छा ये है कि बच्चों वाली औरतों के लिए अलग बसों का इंतज़ाम किया जाये जिससे किसी को किसी के लिए सीट छोड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़े ,या फिर आदमियों के लिए अलग बसों का इंतज़ाम किया जाये .
अब कहने को तो सब कुछ आदमियों के हाथ में है किन्तु ये रुट ऐसा है जहाँ लगाम औरतों के हाथ में नज़र आती है और आदमी बेचारा नज़र आता है .बसों के ऐसे हाल देखते हुए बेचारे आदमियों का अनुभव हमें तो बस ऐसा ही नज़र आता है -
''बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ,
बहुत निकले मेरे अरमान ,लेकिन फिर भी कम निकले .''
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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