अगर बिन दर्द के अपने मुझे तू क़त्ल कर देता ,
खुदा अपने ही हाथों से ये तेरी सांसें ले लेता ,
जन्म मेरा ज़मीं पर चाहा कब कभी किसने
जुनूनी कोई भी बढ़कर कलम ये सर ही कर देता .
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दिलाओ मुझको हर तालीम हवाले फिर कहीं कर दो ,
भला अपने जिगर का टुकड़ा कोई ऐसे दे देता ,
तड़प जाती हैं रूहें भी हकीकत सोच कर ऐसी
मोहब्बत तेरी बेटी को कोई तुझसी नहीं देता .
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लुटाकर के जहाँ अपना हैं तुमने बेटियां पाली ,
लुटे वो और घर जाकर ये कैसे देख तू लेता ,
जमाना कितना ज़ालिम है ये जाने हैं जहाँ वाले
नहीं ऐसे में बेटी को जनम का दर्द है देता .
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खिलाया अपने आँगन में जिसे नन्हीं चिरैया सी ,
उसे वो बाज़ के हाथों परोसकर नहीं देता ,
तेरी आँखों का जो तारा ,तेरी जो गोद की गुड़िया
वो तड़पे एक-एक दाने को सहन तू कैसे कर लेता .
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ज़माने ने भरे हैं दर्द गहरे जिसके जीवन में ,
उसे इस धरती पर लाकर नहीं तू और दुःख देता ,
तभी तो ''शालिनी''जाने तुम्हारी बात मन की ये
खुदा से पहले ही उसको तू बढ़कर क़त्ल कर देता .
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शालिनी कौशिक
[कौशल]
4 टिप्पणियां:
बहुत सटीक व सार्थक अभिव्यक्ति. हार्दिक आभार
हार्दिक धन्यवाद शिखा कौशिक जी
हार्दिक धन्यवाद शिखा कौशिक जी
बहुत सुन्दर.....
सटीक...
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