लघु कथा-----विकास या पतन ---डा श्याम गुप्त....
“यहाँ
लड़कियां, स्त्रियाँ सब खाए-पिए, हैवी बदन वाली, भारी बेडौल शरीर व नितम्बों वालीं,
अनियमित चाल वालीं, जो टाईट जींस-पेंट टॉप में और अधिक उभरकर आती है, दिखाई देती
हैं|,” मल्टी-स्टोरी रेजिडेंन्शियल बिल्डिंग के भ्रमण–पथ पर स्थानीय मित्रों के
साथ घूमते हुए मैंने कहा |
‘हाँ,
सभी आधुनिका, पढी-लिखी नारी हैं | अच्छी पगार-पैकेज पाने वालीं या पाने वाले या
बिजनेस वाले अपेक्षाकृत अमीर लोगों की पत्नी, बहू-बेटियाँ हैं | ठाठ-बाट से रहने
वालीं, लिपी-पुती, पेंट-जींस में रहने वालीं |’ शुक्ला जी बोले |
‘भई,
अब वो कम खाने वाली, बचा-खुचा खानेवाली, गम खाने वाली स्त्रियाँ थोड़े ही रह गयी
हैं | तरक्की पर है समाज | अब नारी वो पतली-दुबली, कृशकाय अबला नहीं रही|’ जोशीजी
कहने लगे |
‘ हाँ
सही है, परन्तु कहाँ है वह ग्लेमर, सहज-प्राकृतिक सौन्दर्य जो साधारण वस्त्रों में,
रूखा-सूखा खाकर भी प्रसन्न रहने वाली सामान्य महिला में होता है | कवि की कल्पना
की उस ‘कनक छरी सी कामिनी...’ में होता है | जिसके लिए मजनूँ, फरहाद,
सदाबृक्ष, रांझा जीवन वार देते थे |’ मैंने प्रश्न किया, शायद स्वयं से ही |
‘वस्तुतः
अति-अभिजात्यता, अत्याधुनिकता सदैव ही स्त्रैण-भाव की कमी व नारी में पुरुषत्व-भाव
लाती है | अप्राकृतिकता व नारी के सहज आकर्षण की कमी उत्पन्न करती है| यह सदा से
ही होता आया है | पहले भी राजकुमार प्रायः राजकुमारियों को छोड़कर किसी दासी,
दासी-पुत्री या सामान्य ग्रामीण बाला को पसंद करने लगता था, रानी बनाने हेतु |
जाने कितनी गाथाएँ हैं|’ मैंने कहा |
आज भी
तो,’ शुक्ला जी कहने लगे, ‘साहब प्रायः घरेलू नौकरानी, मातहत, कामगार, सेक्रेटरी
के आकर्षण में बह जाते हैं| पश्चिम-समाज में तो यह काफी सामान्य बात है, साहब का, मालिक
का, सेविका से, घर की व्यवस्थापिका से, मातहत से शादी कर लेना | आज अभिजात्य में
प्रेम, प्रेम के त्याग भाव आदि के न रह जाने से स्त्रियोचित लावण्य-सौन्दर्य नहीं
दिख रहा है| कमाऊ पत्नी देर रात तक बाहर
रहने वाली पत्नी युग एवं फैशन, चमक-धमक के युग में, केवल शारीरिक आकर्षण व
आवश्यकता ही प्रधान रह गयी है| विवाह भी आज बस सहजीवन रह गया है, एक सौदा,
कांट्रेक्ट....|
‘
‘सही
कह रहे हैं शुक्ला जी’, मैंने कहा, ‘कहाँ
रहा वह अटूट बंधन, प्रेम, भक्ति, त्याग का आकर्षण-बंधन | अतः पुरुष भी भ्रमित भाव
, शारीरिक आकर्षण में बह जाता है , कहीं भी | स्त्री-पुरुष अहं, ईगो, झगड़े, तलाक व
पुनर्विवाह के मामले सामान्य होते जा रहे हैं|’
‘पर
यह उन्नति-प्रगति का दौर है, बौद्धिकता के विकास का, कब तक वहीं पड़े रहेंगे’,
सुराना जी कहने लगे, ‘कि नारी पुरुष की अभ्यर्थना में खड़ी रहे| अरे, अच्छा कमाते
हैं तो सुख क्यों न उठायें| लड़कियां किसी से कम थोड़े ही हैं, बराबरी का दौर है |’
हाँ
वह तो है, मैं सोचते हुए बोला, ‘पर इसमें नारी, स्त्री, पत्नी, रानी न रहकर सिर्फ
भोग्या ही रह गयी है | यह विकास है या पतन |