कोख में ही क़त्ल होने से बची कलियाँ हैं हम ,
खिल गयी हैं इस जगत में झेलकर ज़ुल्मो सितम ,
मांगती अधिकार स्त्री भीख नहीं चाहिए ,
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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पितृसत्ता ने इशारों पर नचाई स्त्री ,
देह की ही कोठरी में बंद कर दी स्त्री ,
पितृसत्ता की नौटंकी बंद होनी चाहिए ,
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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है पुरुष को ये अहम नीच स्त्री उच्च हम ,
साथ साथ फिर भला कैसे बढ़ा सकती कदम ,
'आइटम' कहते हुए लज्जा तो आनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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चौखटों को पार कर आई है जो भी स्त्री ,
पितृ सत्ता को नहीं भायी है ऐसी स्त्री ,
चीरहरण की भुजायें अब तो कटनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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तुम जलाकर देख लो सीता नहीं जलती कोई ,
न अहल्या न शकुंतला छल से ही डरती कोई ,
स्त्री को चैन की अब श्वांस मिलनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
शिखा कौशिक 'नूतन'
6 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-04-2016) को "मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ" (चर्चा अंक-2324) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही बेहतरीन ।
बहुत ही बेहतरीन ।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 28 अप्रैल 2016 को में शामिल किया गया है।
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमत्रित है ......धन्यवाद !
thanks everyone for appreciation .
स्त्री को चैन की अब श्वांस मिलनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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