ये औरत ही है !
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पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती है जननी
औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .
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बना न ले कहीं अपना वजूद औरत
कायदों की कस दी नकेल जाती है .
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मजबूत दरख्त बनने नहीं देते
इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .
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हक़ की आवाज जब भी बुलंद करती है
नरक की आग में धकेल दी जाती है
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फिर भी सितम सहकर वो मुस्कुराती है
ये औरत ही है जो हर ज़लालत झेल जाती है .
शिखा कौशिक
[vikhyaat ]
1 टिप्पणी:
sundar
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