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शनिवार, 7 दिसंबर 2013

ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ ....भाव अरपन ..दस -द्रौपदी की पतियाँ .. ....डा श्याम गुप्त....



            ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ .......डा श्याम गुप्त ...
              
                     मेरे शीघ्र प्रकाश्य  ब्रजभाषा काव्य संग्रह ..." ब्रज बांसुरी " ...की ब्रजभाषा में रचनाएँ  गीत, ग़ज़ल, पद, दोहे, घनाक्षरी, सवैया, श्याम -सवैया, पंचक सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, अगीत, नवगीत आदि  मेरे अन्य ब्लॉग .." हिन्दी हिन्दू हिंदुस्तान " ( http://hindihindoohindustaan.blogspot.com ) पर क्रमिक रूप में प्रकाशित की जायंगी ... .... 
          कृति--- ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में विभिन्न काव्यविधाओं की रचनाओं का संग्रह )
         रचयिता ---डा श्याम गुप्त 
                       ---सुषमा गुप्ता 
प्रस्तुत है .....भाव अरपन ..दस ...द्रौपदी की पतियाँ .....


 




सुमन १-
हे धरमराज !
मैं बंधन में हती ,
समाज औ संस्कार के हित 
दिनरात खटति रही 
गेह-कारज हेतु,
परिवार पति पुरुष की सेवा में |
आजु मैं स्वतंत्र हूँ-
बड़ी कंपनी  की सेवा में नियुक्त हूँ ,
आपुनि इच्छा ते दिन रात खटति हूँ 
कंपनी के लें ,
अन्य पुरुषन  के संग या अधीन
कंपनी सेवा के हित में |


सुमन २.
हे भीम !
मैं बंधन में हती , परिवार के,
परवार के शोसन औ हिंसा के 
सिकार के हेतु|
आजु मैं मुक्त हूँ 
पाठसालाओं,  क्लब, बाजारनि  में ,
दफ्तर औ राजनीति की गलियन में -
शोषण, हिंसा और वलात्कार के लें |


सुमन-३ ..
हे बृहन्नला !
मैं बंधन में हती,
दिन राति खटति रही,
पति-पुरुष की गुलामी मैं |
अब मैं स्वाधीन हूँ,
सिनेमा, टीवी कलाकार हूँ,
दिना देखूं न रात 
हाड़ तोड़ श्रम करूं हूँ,
अंग प्रदर्शन हू,
पैसा -पुरुष की गुलामी में |


सुमन -४ 
हे नकुल !
मैं बंधन में हती,
धर्म, संसकृति, सुसंसकार की
धारक कौ चोला ओढि कें,
आजु मैं सुतंत्र हूँ -
लाजु औ हया के बसननि कौ
चोला छोडि कें |

सुमन-५..
हे सहदेव !
मैं बंधन में हती,
संस्कृति, संस्कार, सुरुचि के -
परिधान कंधा पै धारिकें |
अब मैं स्वाधीन हूँ,
हंसी-खुशी वस्त्र उतारि कें |


सुमन ६-..
माते कुंती !
तिहारी  बहू बंधन में हती,
बंटिकें -
माता, बिटिया ,पत्नी के रिस्तनि  में |
अब वो सुतंत्र है ,
बंटिवे के लें किश्तन में|


सुमन-७...
दुर्योधन!
ठगे रहि  गए हते, तुम, देखिकें -
'नारी बीच सारी है,
कि सारी बीच नारी है |'
आजु कलजुग में हू ,
सफल नहीं है पाओगे ...
सारी हीन नारी देखि-
ठगे रहि जाओगे |


सुमन-८ ..
सखा कन्हैया !
द्वापर में एक ही दुरजोधन हतो,
द्रोपदी की लाजु बचाय पाए |
आजु डगर-डगर, वन-बाग़, चौराहेनि पै,
दुरजोधन ठाड़े हैं ,
कौन-कौन कों सारी पहिराओगे ?
सोचूँ हूँ - अब की बेरि-
अवतार कौ जनमु लैकें न आऔ,
मानुष के मानस में ,
संस्कार बनिकें ,
उतरि जाऔ |
                       

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

श्याम स्मृति- ......बंधन ही स्वतन्त्रता है .....डा श्याम गुप्त.....



 श्याम स्मृति- ......बंधन ही स्वतन्त्रता है .....

            बंधन क्या है, मुक्ति क्या है, स्वतन्त्रता क्या है ? क्या सांसारिक कर्तव्य, कृतित्व, दायित्व बंधन हैं ? गृहस्थी, पारिवारिक सम्बन्ध, आपसी संवंध या स्त्री-पुरुष के प्रेम व विवाह या दाम्पत्य संवंध बंधन हैं ? क्या इन बंधनों से मुक्त व स्वतंत्र होकर जीवन-संगीत का आनंद लिया जा सकता है | क्या स्त्री-पुरुष आपसी बंधनों से मुक्त होकर जीवन-सुख का वास्तविक आनंद उठा सकते हैं|
           नहीं .....जिस प्रकार वीणा के तारों का दोनों छोरों पर बंधन एवं आवश्यक व उपयुक्त कसाव मधुर संगीत के लिए आवश्यक है अन्यथा तारों का कसाव या तनाव अधिक होगा तो टूटने का अवसर रहेगा, तार ढीले होंगे तो संगीत उत्पन्न ही नहीं होगा| उसी प्रकार जीवन है, जीवन व्यवहार, दाम्पत्य-जीवन, स्त्री-पुरुष संवंध के संगीतमय व मधुमय होने हेतु दोनों छोरों पर समुचित बंधन व समुचित दृडता आवश्यक है तभी मानव उन्मुक्त जीवन व्यतीत कर सकता है |

           मुक्ति प्राप्ति की इच्छा या योग व अनुशासन भी तो एक बंधन ही है | योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं जीवन भर कर्म व पारिवारिक, सांसारिक बंधनों में बंधे रहे ....हाँ लिप्त नहीं रहे जो बंधन व मुक्ति दोनों के लिए ही अत्यावश्यक है ....और योगेश्वर का ही आदेश है गीतामृत रूप में|

           अतः बंधन आवश्यक है, हाँ तारों को दोनों छोरों पर समुचित रूप से कसे हुए होने चाहिए ताकि जीवन पूर्ण स्वतन्त्रता व उन्मुक्तता से जिया जा सके| यही बंधन मानव को अनिर्बन्धित–बंधित करता है, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है |   



मंगलवार, 29 मई 2012

द्रोपदी के पत्र.... डा श्याम गुप्त


१.
 हे  धर्म राज !
वह  बंधन में थी 
समाज व संस्कार के लिए 
दिनरात खटती थी-
गृह-कार्य में 
परिवार पति पुरुष की सेवा में |
आज वह मुक्त है ,
बड़ी कम्पनी की सेवा में नियुक्त है ,
स्वेच्छा से दिन-रात खटती है,
कंपनी के लिए,
अन्य पुरुषों के साथ या मातहत रहकर,
कंपनी की सेवा में |


२.
 हे भीम !
वह बंधन में थी परिवार के,
पारिवारिक शोषण ,हिंसा व,
 शिकार के लिए |
आज वह मुक्त है ,
मदरसों, बाज़ारों, क्लबों ,
दफ्तरों व राजनैतिक गलियारों में 
शोषण, हिंसा व बलात्कार के लिए |


३.
हे बृहन्नला !
वह दिन रात खटती थी ,
पति-पुरुष की गुलामी में ;
आज वह मुक्त है,
सिनेमा, टीवी आर्टिस्ट है ;
दिन देखती है न् रात
हाड़ तोड़ श्रम करती है ,
अंग प्रदर्शन करती है 
पैसे की/ पुरुष की गुलामी में |


४.
हे नकुल !
वह बंधन में थी,
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों की-
धारक का चोला ओढकर ;
अब वह मुक्त है,
लाज व शर्मोहया के वस्त्रों का,
चोला छोडकर |


५.
हे सहदेव !
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के परिधान,
कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष कपडे उतारकर |


६.
 माते कुंती !
आपकी बहू बंधन में थी ,
बंटकर -
माँ  पुत्री  पत्नी के रिश्तों में ;
अब वह स्वतंत्र है ,
बांटने के लिए किश्तों में |


७-
हे दुर्योधन !
ठगे रह गए थे तुम, देखकर-
" सारी बीच नारी है, या-
  नारी बीच सारी है |"
 इस युग  भी सफल नहीं हो पाओगे ,
साड़ी हीन नारी देख 
ठगे रह जाओगे |


८.
सखा कृष्ण !
द्वापर में एक ही दुर्योधन था ,
द्रोपदी को बचा पाए थे ;
आज कूचे-कूचे, वन-बाग, गली-चौराहे 
दुर्योधन खड़े हैं ,
किस किस को साड़ी पहनाओगे ?
सोचती हूँ , इस बार -
अवतार का जन्म लेकर नहीं आना;
जन जन के मानस में ,
संस्कार बन कर उतर जाना |