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मंगलवार, 29 मई 2012

द्रोपदी के पत्र.... डा श्याम गुप्त


१.
 हे  धर्म राज !
वह  बंधन में थी 
समाज व संस्कार के लिए 
दिनरात खटती थी-
गृह-कार्य में 
परिवार पति पुरुष की सेवा में |
आज वह मुक्त है ,
बड़ी कम्पनी की सेवा में नियुक्त है ,
स्वेच्छा से दिन-रात खटती है,
कंपनी के लिए,
अन्य पुरुषों के साथ या मातहत रहकर,
कंपनी की सेवा में |


२.
 हे भीम !
वह बंधन में थी परिवार के,
पारिवारिक शोषण ,हिंसा व,
 शिकार के लिए |
आज वह मुक्त है ,
मदरसों, बाज़ारों, क्लबों ,
दफ्तरों व राजनैतिक गलियारों में 
शोषण, हिंसा व बलात्कार के लिए |


३.
हे बृहन्नला !
वह दिन रात खटती थी ,
पति-पुरुष की गुलामी में ;
आज वह मुक्त है,
सिनेमा, टीवी आर्टिस्ट है ;
दिन देखती है न् रात
हाड़ तोड़ श्रम करती है ,
अंग प्रदर्शन करती है 
पैसे की/ पुरुष की गुलामी में |


४.
हे नकुल !
वह बंधन में थी,
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों की-
धारक का चोला ओढकर ;
अब वह मुक्त है,
लाज व शर्मोहया के वस्त्रों का,
चोला छोडकर |


५.
हे सहदेव !
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के परिधान,
कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष कपडे उतारकर |


६.
 माते कुंती !
आपकी बहू बंधन में थी ,
बंटकर -
माँ  पुत्री  पत्नी के रिश्तों में ;
अब वह स्वतंत्र है ,
बांटने के लिए किश्तों में |


७-
हे दुर्योधन !
ठगे रह गए थे तुम, देखकर-
" सारी बीच नारी है, या-
  नारी बीच सारी है |"
 इस युग  भी सफल नहीं हो पाओगे ,
साड़ी हीन नारी देख 
ठगे रह जाओगे |


८.
सखा कृष्ण !
द्वापर में एक ही दुर्योधन था ,
द्रोपदी को बचा पाए थे ;
आज कूचे-कूचे, वन-बाग, गली-चौराहे 
दुर्योधन खड़े हैं ,
किस किस को साड़ी पहनाओगे ?
सोचती हूँ , इस बार -
अवतार का जन्म लेकर नहीं आना;
जन जन के मानस में ,
संस्कार बन कर उतर जाना |