'भारतीय नारी'-क्या होना चाहिए यहाँ जो इस ब्लॉग को सार्थकता प्रदान करे ? आप साझा करें अपने विचार हमारे साथ .यदि आप बनना चाहते हैं 'भारतीय नारी ' ब्लॉग पर योगदानकर्ता तो अपनाE.MAIL ID प्रेषित करें इस E.MAIL ID PAR-shikhakaushik666@hotmail.com
माँ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
माँ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सोमवार, 14 अगस्त 2023
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015
माँ - ग़ज़ल---ड़ा श्याम गुप्त
माँ का वंदन..श्राद्ध पर्व पर ---ग़ज़ल---ड़ा श्याम गुप्त
श्राद्ध पर्व पर ---

माँ का वंदन..

माँ का वंदन..
फिर आज माँ की याद आई सुबह सुबह |
शीतल पवन सी घर में आयी सुबह सुबह |
वो लोरियां, वो मस्तियाँ, वो खेलना खाना,
ममता की छाँह की सुरभि छाई सुबह सुबह |
वो चाय दूध नाश्ता जबरन ही खिलाना,
माँ अन्नपूर्णा सी छवि भाई सुबह सुबह |
परिवार के सब दर्दो-दुःख खुद पर ही उठाये,
कदमों में ज़न्नत जैसे सिमट आयी सुबह सुबह |
अब श्याम क्या कहें माँ औ ममता की कहानी,
कायनात सारी कर रही वंदन सुबह सुबह ||
शीतल पवन सी घर में आयी सुबह सुबह |
वो लोरियां, वो मस्तियाँ, वो खेलना खाना,
ममता की छाँह की सुरभि छाई सुबह सुबह |
वो चाय दूध नाश्ता जबरन ही खिलाना,
माँ अन्नपूर्णा सी छवि भाई सुबह सुबह |
परिवार के सब दर्दो-दुःख खुद पर ही उठाये,
कदमों में ज़न्नत जैसे सिमट आयी सुबह सुबह |
अब श्याम क्या कहें माँ औ ममता की कहानी,
कायनात सारी कर रही वंदन सुबह सुबह ||
शनिवार, 30 मई 2015
मेरी पहली दोस्त
जब हुआ मेरा सृजन,
माँ की कोख से|
मैं हो गया अचंभा,
यह सोचकर||
कहाँ आ गया मैं,
ये कौन लोग है मेरे इर्द-गिर्द|
इसी परेशानी से,
थक गया मैं रो-रोकर||
तभी एक कोमल हाथ,
लिये हुये ममता का एहसास|
दी तसल्ली और साहस,
मेरा माथा चूमकर||
माँ की कोख से|
मैं हो गया अचंभा,
यह सोचकर||
कहाँ आ गया मैं,
ये कौन लोग है मेरे इर्द-गिर्द|
इसी परेशानी से,
थक गया मैं रो-रोकर||
तभी एक कोमल हाथ,
लिये हुये ममता का एहसास|
दी तसल्ली और साहस,
मेरा माथा चूमकर||
मेरे रोने पर दूध पिलाती,
उसे पता होती मेरी हर जरूरत|
चाहती है वो मुझे,
अपनी जान से भी बढ़कर||
उसकी मौजूदगी देती मेरे दिल को सुकून,
जिसका मेरी जुबां पर पहले नाम आया|
पहला कदम चला जिसकी,
उंगली पकड़कर||
उसे पता होती मेरी हर जरूरत|
चाहती है वो मुझे,
अपनी जान से भी बढ़कर||
उसकी मौजूदगी देती मेरे दिल को सुकून,
जिसका मेरी जुबां पर पहले नाम आया|
पहला कदम चला जिसकी,
उंगली पकड़कर||
http://hindikavitamanch.blogspot.in/2015/05/blog-post_13.html
शनिवार, 21 मार्च 2015
माँ का आवाहन..डा श्याम गुप्त ..
माँ का आवाहन
परम-शक्ति माँ से
बढकर तो, तीन लोक में कुछ भी नहीं,
अतुलनीय माँ
महिमा तेरी, वर्णन की मेरी शक्ति नहीं ।
परम-ब्रह्म के साथ युक्त हो, सृष्टि की रचना करती हो,
रक्षक, पालक तुम हो जग की, जग को धारण करती हो।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश माँ तेरी इच्छा से तन धारण करते,
महा-शक्ति तेरी स्तुति की, जग में क्षमता-शक्ति नहीं।
----परम शक्ति मां……..
तुच्छ बुद्धि तुझ
पराशक्ति के ओर-छोर को क्या जाने,
ममतामयी रूप तेरा
ही, माता वह तो पहचाने ।
तेरे नव-रूपों के भावों पर,
अगाध श्रद्धा से भर ,
करें अनुसरण और
कीर्तन,
इससे बढकर भक्ति नहीं ।
-----परम शक्ति मां……
माँ आगमन करो इस
घर में,
हम पूजन, गुण-गान करें,
धूप, दीप,
नैवैध्य समर्पण कर, तेरा आह्वान
करें ।
इन नवरात्रों में
माँ आकर,
हम सबका कल्याण करो,
धरें शीश तेरे
चरणों पर, इससे बढकर मुक्ति नहीं ॥
----परम शक्ति मां……
बुधवार, 16 अप्रैल 2014
माँ
ममता, उदारता, नम्रता
प्रेम और सम्मान का !
आशीर्वाद , निर्मलता
ईश्वर और उसके विश्वास का !!
बेटा सदा माँ का लाडला
सुन्दर और सुशील
और कोमल होता है !
सदा पाँच साल का छुटकू
बदमास और
सुकुमार होता है !!
बच्चा भी सदा माँ के पास
महफूज, निर्भय
और समशेर होता है !
एक पल भी माँ से जुदा
नहीं रह सकता
वो बच्चा बिना माँ के ढेर होता है !!
जब होता है बच्चा छोटा
रखती है पास, पिलाती है दूध
बच्चे को मातृत्व का एहसास होता है !
जब बच्चा बड़ा होकर
माँ की सेवा करता है
तब माँ को भी अपनी ममता पर नाज होता है !
http://
http://rushabhshukla.
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011
वह...कविता ...डा श्याम गुप्त ....
वह नव विकसित कलिका बनकर ,
सौरभकण वन-वन बिखराती ।
दे मौन - निमंत्रण भंवरों को,
वह इठलाती, वह मदमाती ॥
वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल ,
झंकृत करती तन - मन को |
गौरवमय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को ||
अथवा तितली बन, पंखों को -
झिलमिल झपकाती चपला सी|
इठलाती, सबके मन को थी ,
बारी - बारी से बहलाती ||
या बन बहार निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है |
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ||
वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम-रिमझिम बरसात हुई|
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई ||
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है |
सविता की किरणें बनकर वह,
धरती पर रस बरसाती है ||
कवि की कविता बन, अंतस में-
कल्पना - रूप में लहराई |
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई ||
जब प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें -यह सिखलाया |
नारी बनकर कोमलता का,
सौरभ-घट उसने छलकाया ||
वह भक्ति बनी, मानवता को-
दैवीय - भाव है सिखलाया |
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया ||
वह ऊर्जा बनी, मशीनों की,
विज्ञान - ज्ञान धन कहलाई |
वह आत्मशक्ति, मानव मन में,
संकल्प-शक्ति बन कर छाई ||
वह लक्ष्मी है, वह सरस्वती ,
वह माँ काली, वह पार्वती |
वह महाशक्ति है अणुकण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की ||
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद-नाद वही |
बन कर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है ||
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति
नित नए रूप रख आती है |
उस परमतत्व की इच्छा बन ,
यह सारा साज सजाती है ||
सौरभकण वन-वन बिखराती ।
दे मौन - निमंत्रण भंवरों को,
वह इठलाती, वह मदमाती ॥
वह शमा बनी झिलमिल-झिलमिल ,
झंकृत करती तन - मन को |
गौरवमय दिव्य विलासमयी,
कम्पित करती निज तन को ||
अथवा तितली बन, पंखों को -
झिलमिल झपकाती चपला सी|
इठलाती, सबके मन को थी ,
बारी - बारी से बहलाती ||
या बन बहार निर्जन वन को,
हरियाली से नहलाती है |
चन्दा की उजियाली बनकर,
सबके मन को हरषाती है ||
वह घटा बनी जब सावन की,
रिमझिम-रिमझिम बरसात हुई|
मन के कोने को भिगो गयी,
दिल में उठकर ज़ज्बात हुई ||
वह क्रान्ति बनी गरमाती है,
वह भ्रान्ति बनी भरमाती है |
सविता की किरणें बनकर वह,
धरती पर रस बरसाती है ||
कवि की कविता बन, अंतस में-
कल्पना - रूप में लहराई |
बन गयी कूक जब कोयल की,
जीवन की बगिया महकाई ||
जब प्यार बनी तो दुनिया को,
कैसे जीयें -यह सिखलाया |
नारी बनकर कोमलता का,
सौरभ-घट उसने छलकाया ||
वह भक्ति बनी, मानवता को-
दैवीय - भाव है सिखलाया |
वह शक्ति बनी जब माँ बनकर,
मानव तब पृथ्वी पर आया ||
वह ऊर्जा बनी, मशीनों की,
विज्ञान - ज्ञान धन कहलाई |
वह आत्मशक्ति, मानव मन में,
संकल्प-शक्ति बन कर छाई ||
वह लक्ष्मी है, वह सरस्वती ,
वह माँ काली, वह पार्वती |
वह महाशक्ति है अणुकण की,
वह स्वयं शक्ति है कण-कण की ||
है गीत वही, संगीत वही,
योगी का अनहद-नाद वही |
बन कर वीणा की तान वही,
मन-वीणा को हरषाती है ||
वह आदिशक्ति वह माँ प्रकृति
नित नए रूप रख आती है |
उस परमतत्व की इच्छा बन ,
यह सारा साज सजाती है ||
शनिवार, 6 अगस्त 2011
गेस्ट रूम में रही वो, सालों परदा तान ||
सींचे अपने रक्त से, हड्डी देय गलाय |
धन्य आत्मा हो गई, प्रथम-दर्श माँ पाय ||
राखै भीतर कोख के, अंकुर पौधा होय |
अमिय-दुग्ध से पोसती, पुतली सा संजोय ||
पाली-पोसी प्राण सा, माता सदा सहाय |
दो किलो का बचपना, सत्तर का हो जiय |
सत्तर का होकर करे, पत्थर-दिल सा काम |
दुर्बल वृद्धा का करे, जीना वही हराम ||
*प्रसवदता का दर्द वो, हफ़्तों में हो सोझ | *प्रसव के समय होने वाली पीड़ा
प्राणान्तक लेकिन हुआ, मन-पीड़ा का बोझ ||
अम्मा थी तब मलकिनी, आज हुई अनजान |
गेस्ट रूम में रही वो, सालों परदा तान ||
बहकावे में आ गया, हुआ कलेजा चूर |
किया किसी को पास में, माता होती दूर |
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
सीख माँ की काम आये--
कुछ कचोटे काट खाए,
रहनुमा भी भटक जाए
वक्त न बीते बिताये,
काम हरि का नाम आये-
सीख माँ की काम आये--
हो कभी अवसाद में जो,
या कभी उन्माद में हो
सामने या बाद में हो,
कर्म सब मरजाद में हो
शर्म हर औलाद में हो,
नाम कुल का न डुबाये-
काम हरि का नाम आये-
सीख माँ की काम आये--
कोख में नौ माह ढोई,
दूध का न मोल कोई,
रात भर जग-जग के सोई,
कष्ट में आँखे भिगोई
सदगुणों के बीज बोई
पौध कुम्हलाने न पाए
काम हरि का नाम आये-
सीख माँ की काम आये--
सीख माँ की काम आये--
सदस्यता लें
संदेश (Atom)