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रविवार, 8 मई 2016

विवाह व सहजीवन-- डा श्याम गुप्त

विवाह व सहजीवन-- डा श्याम गुप्त
                           जीव मात्र की मूल प्रवृत्ति है स्व-जाति के जैविक सातत्य-क्रमिकता को बनाये रखना, ताकि उस प्रजाति का मूलोच्छेद न हो | मानव श्रेष्ठतम जीव होने के कारण जैविक के साथ साथ सांस्कृतिक–सामाजिक क्रमिकता को भी बनाए रखता है और उसका मूल है समाज-राष्ट्र-संस्कृति की सबसे छोटी इकाई परिवार | विवाह उसी इकाई की मूल संस्था या प्रथा है|
                        जहां तक सहजीवन, अर्थात बिना विवाह के साथ-साथ रहने की बात है, क्या इन तथाकथित अति-आधुनिक अल्ट्रा-माडर्न लोगों को अपनी पुत्रियों और बहनों और पुत्रों के अविवाहित कामाचार स्वीकार हैं ? क्या वे अपनी पत्नियों और अन्य पुरुष का सहजीवन स्वागत योग्य मानेंगे?
                      भारत में विवाह संस्था का अनुशासनात्मक विकास हुआ। यहां विवाह-संस्था स्थाई है। लेकिन अमरीका में विवाह संस्था समाप्त प्रायः है, वहां स्वाद की भाँति पत्नियां व पति बदले जाते हैं। अमरीका-यूरोप, भारत में आया, उस संस्कृति-प्रभावित कन्याएं अपना शरीर दिखाती हैं, देह सुंदर है, इसे दिखाने में गलत क्या है? इसी से अविवाहित सहजीवन का चलन बढ़ा। कई देशों में हाल ही में यौन सम्बंधों को वैध ठहराने वाला वक्तव्य दिया गया है। वह उनकी जीडीपी का महत्वपूर्ण भाग है | परन्तु ऐसा भोगवादी सहजीवन अंतत: विषादका कारण है।
                          ऐसे लोगों की दृष्टि में काम-सुख की सामाजिक मर्यादा रूढ़िवाद है और मुक्त यौन-सुख, आधुनिकता। स्वयं "कामसूत्र" के रचयिता आचार्य वात्स्यायन ने भी परस्त्री सहजीवन को गलत ठहराया है, उनका कथन है कि, "राजाओं, मंत्रियों, वरिष्ठों को उचित है कि वे परस्त्री गमन जैसे निन्दनीय कार्य में प्रवृत्त न हों।" तथा "पराई स्त्रियों से संबंध दोनों लोकों को नष्ट करता है।
                         सारी दुनिया के आदिम समाज स्वच्छंद थे। विवाह संस्था का विकास बाद में हुआ, तथापि भारत में ऋग्वैदिक काल में ही स्त्री-पुरुषों के लिए नियम थे | ऋग्वेद का यम-यमी प्रकरण सूक्त (10.10.1 से 14) इस सम्बन्ध में निश्चित नियम प्रस्तुत करता है---यम और यमी भाई-बहन थे। किसी विशिष्ट परिस्थिति में यमी ने यम से प्रेम सम्बंध की याचना की। यम ने ऐसी मित्रता से साफ इनकार किया –“न ते सखा सख्यम् वष्टि एतत् सऽलक्ष्मा यत् विषऽरूपा भवति।“ यम ने ऐसे सम्पर्क को अधम बताया। यही यम अनुशासक व आचरण मर्यादा के नीति-नियम निधारक हुए और ऐसे नियम-अनुशासन को यमानुशासन कहा गया|
भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। पश्चिम में कोई ऋग्वेद नहीं उदित हुआ। कोई श्वेतकेतु नहीं हुआ। ऋग्वेदिक समाज स्त्री-पुरुष, संबंधों को लेकर सतर्क था | पत्नी रूपवती है पर अपना सौन्दर्य सिर्फ पति को दिखाती है। दूसरे लोग केवल वस्त्र देखते हैं या केवल वाणी सुनते हैं | ऋग्वेद 10.71.4 के सरस्वती सूक्त का मन्त्र है --
. उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचं, उत त्वः श्रृण्वन् न श्रृणोत्येनम् ।
उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उषति सुवासाः ||

--- अर्थात-कोइ व्यक्ति सरस्वती ( विद्या या ज्ञान) को केवल शब्द से जानता है परन्तु देख (समझ) नहीं पाता, कोइ सुनता है परन्तु श्रोतस्थ( आत्मस्थ ) नहीं कर पाता| वह किसी विशिष्ट को ही अपने सौन्दर्य का वास्तविक ज्ञान-दर्शन कराती है जैसे रूपवती पत्नी अपना सौन्दर्य केवल अपने पति को दिखाती है|

                       ऋग्वेदिक समाज पति-पत्नी के बीच प्रेम को लेकर भी सतर्क था। ऋग्वेद के सर्वप्रथम पूज्य देवता अग्नि, विवाह में पति-पत्नी का मन मिलाते हैं- दंपति समनसा कृणोपि अग्नि: (ऋग्वेद 5.3.2) विवाह संस्कार में अग्नि के सात फेरे की परम्परा इसी वजह से आयी।
 
                         संसार में दांपत्य जीवन में प्राय: एकपत्नीत्व ही सबसे अधिक प्रचलित है तथा अधिकांश समाजों में पुरुष की प्रधानता पाई जाती है। यूं परिवार के विभिन्न रूप, पुरुषप्रधान-पितृवंशीय, स्त्रीप्रधान-मातृ-वंशीय, बहुपत्नीत्वसमाज, बहुपतित्व समाज आदि भी पाए जाते हैं|
                     विवाह शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है जिससे पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। समाज द्वारा स्वीकार की गई- 'परिवार की स्थापना करने वाली कोई भी पद्धति' |
                      विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन, जहाँ एक ओर समाज स्त्री-पुरुष (पति-पत्नी) को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। 'पति' का अर्थ है पालन करने वाला-भरतार तथा 'भार्या' का अर्थ है भरणपोषण की जाने योग्य नारी। विवाह समाज में नवजात प्राणियों--संतान की स्थिति का निर्धारण करता है|
                      विवाह का उद्गम- मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था। विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध की पूरी स्वतंत्रता थी। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनके आधार पर पश्चिमी विद्वान विवाह की आदिम दशा कामचार की अवस्था मानते हैं जो बाद में बहुपत्नी प्रथा में विकसित हुई और अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने का नियम प्रचलित हुआ। परन्तु भारत में बहुभार्यता सदैव नारी की स्वयं की इच्छा, नारी के भरणपोषण की सदिच्छा, राजनीतिक आवश्यकता एवं विशिष्ट स्थितियों से जुड़ा रहा है |
                  विवाह की संस्था मानव समाज में जैवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अत: आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह संस्था मनुष्य के पूर्वज समझे जाने वाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं वे प्रायः एक ही नर/मादा के साथ सारा जीवन व्यतीत करते हैं।
                        मानव समाज के विकास के एक स्थल पर, जब संतान की आवश्यकता के साथ उसकी सुरक्षा की आवश्यकता हुई एवं यौन मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत व्यक्तिगत व सामाजिक परिणाम हुए तो श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित की ताकि प्राकृतिक काम संवेग की व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ साथ स्त्री-पुरुष के आपसी सौहार्दिक सम्बन्ध एवं सामाजिक समन्वयता भी बने रहे | यजु.१०/४५ में कथन है—
एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“

--------अर्थात पुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण पुरुष बनता है। स्त्री के लिए भी यही सत्य है | अतः दाम्पत्य-भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है, स्त्री को भी |


                  विवाह संस्था का सतत् विकास हुआ है। श्वेतकेतु ऋग्वैदिककाल की विवाह संस्था को मजबूत करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता थे। श्वेतकेतु के पिता उद्दालक प्रख्यात दर्शनशास्त्री ऋषि थे। श्वेतकेतु ने नियम बनाया कि जो स्त्री पति को छोड़ दूसरे से मिलेगी उसे भ्रूणहत्या का पाप लगेगा और जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़ दूसरी से सम्पर्क करेगा उस पर भी वैसा ही कठोर पाप होगा। भारत में यही परम्परा है।
विवाह सामाजिक अनुष्ठान है। सिर्फ कन्या के पिता ही कन्या का हाथ वर को नहीं सौंपते, बल्कि संपूर्ण समाज भी कन्यादान में हिस्सा लेता है। वर कहता है, "हे वधु, सौभाग्यवृद्धि के लिए मैं तेरा हाथ ग्रहण करता हूं। भग, अर्यमा, सविता और पूषन देवों ने गृहस्थ धर्म के लिए तुझे प्रदान किया। तुम वृद्धावस्था तक मेरे साथ रहो।" फिर अग्नि से प्रार्थना है- "हे अग्नि आप सुसन्तति प्रदान करें।" फिर इन्द्र से प्रार्थना है- "हे इन्द्र, इसे सौभाग्यशाली बनायें।
              ऋग्वेद के एक मंत्र का आशीष बड़ा प्यारा है- हे वधु ! तुम सास, ससुर, ननद, देवर समस्त परिवार की साम्राज्ञी बनो ----
"सम्राज्ञी श्वसुरे भव, सम्राज्ञी श्वसुरामं भव।
सम्राज्ञी ननन्दारिं ,सम्राज्ञी अधिदेव्रषु ॥ "


                       हमारे शास्त्रों ने चयन का अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वैदिक रीति के अनुसार आदर्श विवाह में परिजनों के सामने अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लिए जाते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं| प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है| विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात तभी मानी जाती है जब वर के साथ सात कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है| वामा बनने से पूर्व कन्या द्वारा वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन भरण-पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति ख़रीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी-सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती है।
                      सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पाँचवाँ पशुधन संपदा हेतु, छटा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
सात वचनों के महत्व को यदि समझ लिया जाये तो दाम्पत्य सम्बन्धों में उत्पन अनेक समस्यायों का समाधान स्वत: ही हो जाएगा...
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी!...१...

----कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना| कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम
भाग में अवश्य स्थान दें| यदि आप स्वीकार करते हैं तो मुझे वामांग में आना स्वीकार है |
---- धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य है| जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है| पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है|
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!...२...

----कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
------इस वचन के द्वारा समाज व कन्या की दूरदृ्ष्टि का आभास होता है| आजकल गृ्हस्थी में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद होने पर पति/पत्नी अपने पत्नि/पति के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देते हैं|
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!...३..

तीसरे बचन में कन्या कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृ्द्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ |
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!...४...

कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे| अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपका है| यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ |
--------इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती हैं| विवाह पश्चात कुटुम्ब पोषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है| अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऎसी स्थिति में गृ्हस्थी कैसे चल पाएगी| इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ती में सक्षम हो सके| यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे |
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!....५...

इस वचन में कन्या जो कहती है वह आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है, कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है| बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नि से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते| यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नि से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नि का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है|
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम!!...६...

कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगें| यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ|
--------वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं| विवाह पश्चात कुछ पुरूषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नि को डाँट-डपट देते हैं| ऎसे
व्यवहार से बेचारी पत्नि का मन कितना आहत होता होगा| यहाँ पत्नि चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्ही दुर्वसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले|
परस्त्रियं मातृ्समां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!...७..

अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें | यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ |
--------विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है, ये सभी भली भान्ति जानते हैं, इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है|
                         इस प्रकार विवाह के इस सर्वश्रेष्ठ रूप में, ईश्वर को साक्षी मानकर किए गए सप्त संकल्प रूपी स्तम्भों पर सुखी गृ्हस्थ जीवन का भार टिका हुआ है, वशर्ते कि आज के निष्ठाहीनता के युग में स्त्री-पुरुष दोनों ही इनका निर्वाह करें तो |
विवाह के विभिन्न पक्ष --- वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है। दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और स्वार्थत्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उन्हें अवलंब देगी। हिंदू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी मनुष्य का आधा अंश है, मनुष्य तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता । पुरुष, प्रकृति के बिना और शिव, शक्ति के बिना अधूरा है।
                 धार्मिक दृष्टि से विवाह एक धार्मिक संबंध है। प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता था। यज्ञ या कोइ भी धार्मिक अनुष्ठान पत्नी के बिना पूर्ण नहीं हो सकता | पितरों की आत्माओं का उद्धार पुत्रों के पिंडदान और तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास के कारण भी विवाह हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य है। रोमनों का विश्वास था कि परलोक के मृत पूर्वजों का सुखी रहने हेतु उनका मृतक संस्कार यथाविधि होना तथा अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहने चाहिए| यहूदियों के अनुसार विवाह से बचने वाला व्यक्ति हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता था। अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है। औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों से तथा धार्मिक विश्वासों में आस्था शिथिल होने से विवाह के धार्मिक पक्ष का महत्व कम होने लगा है।
               आर्थिक पक्ष के अनुसार प्रसूति के समय में तथा उसके बाद कुछ काल तक कार्यसक्षम न होने के कारण पत्नी को पति के अवलंब की आवश्यकता होती है, इस कारण दोनों में श्रम-विभाजन होता है, पत्नी बच्चों के लालन पालन और घर के काम को सँभालती है और पति पत्नी तथा संतान के भरणपोषण का दायित्व लेता है। नव-युग, औद्योगिक युग के कारण स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो गईं, इससे पति-पत्नी, परिवार की स्थिति में कुछ अंतर आने लगा है। फिर भी, पत्नी और बच्चों के पालनपोषण के आर्थिक व्यय को वहन करने का उत्तरदायित्व अभी तक प्रधान रूप से पति का माना जाता है। पति द्वारा उपार्जित धन पर उसकी पत्नी और वैध पुत्रों का ही अधिकार स्वीकार किया जाता है।
                 विधिक दृष्टि से विवाह का एक क़ानूनी पक्ष भी है। परिणय सहवास मात्र नहीं है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार व स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड अथवा क़ानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होने वाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। अनेक आधुनिक समाजों में विवाह को वर-वधू की सहमति से होने वाला विशुद्ध क़ानूनी अनुबंध समझा जाता है। किंतु यह अनुबंध अन्य अनुबंधों या संविदाओं से भिन्न है, जिनमें अनुबंध करने वाले व्यक्ति इसकी शर्तें तय करते हैं, किंतु विवाह के कर्तव्य और दायित्व वर-वधू की इच्छा पर अवलंबित नहीं हैं; वे समाज की रूढ़ि, परंपरा और क़ानून द्वारा निश्चित होते हैं।
                सामाजिक दृष्टि के अनुसार विवाह का सामाजिक व नैतिक पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है, बालक को किसी समाज के आदर्शों के अनुरूप ढालने का तथा उसके चरित्र निर्माण का प्रधान साधन परिवार है। यद्यपि आजकल शिशु-शालाएँ, बालोद्यान, स्कूल और राज्य बच्चों के पालन, शिक्षण और सामाजीकरण के कुछ कार्य अपने ऊपर ले रहे हैं, तथापि निश्चय ही बालक का समुचित विकास परिवार में ही संभव है। प्रत्येक समाज विवाह द्वारा मनुष्य की उद्दाम एवं उच्छंखल यौन भावनाओं पर अंकुश लगाकर उसे नियंत्रित करता है और समाज में नैतिकता की रक्षा करता है।
                       विवाह विच्छेद के सम्बन्ध में मानव समाज के विभिन्न भागों में बड़ा वैविध्य है। जिन समाजों में विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाता है, उनमें प्राय: विवाह अविच्छेद्य संबंध माना जाता है यथा हिंदू एवं रोमन कैथोलिक ईसाई समाज | किंतु विवाह विच्छेद या तलाक के नियमों के संबंध में अत्यधिक भिन्नता होने पर भी कुछ मौलिक सिद्धांतों में समानता है। विवाह मुख्य रूप से संतानप्राप्ति एवं दांपत्य संबंध के लिए किया जाता है, किंतु यदि किसी विवाह में ये प्राप्त न हों तो दांपत्य जीवन को नारकीय या विफल बनाने की अपेक्षा विवाह विच्छेद की अनुमति दी जानी चाहिए। इस व्यवस्था का दुरुपयोग न हो, इस दृष्टि से तलाक का अधिकार अनेक प्रतिबंधों के साथ विशेष अवस्था में ही दिया जाता है।
                       हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में भी इसको इसी रूप में बनाए रखने की चेष्टा की गई है। परन्तु विशेष परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर, इस अधिनियम के अंतर्गत वैवाहिक संबंध विघटित किया जा सकता है।
                  विवाह-प्रथा के भविष्य व उस की समाप्ति की तथा राज्य द्वारा बच्चों के पालन की कल्पना समय समय पर होती रही है | वर्तमान में औद्योगिक एवं वैज्ञानिक परिवर्तनों से तथा पश्चिमी देशों में तलाकों की बढ़ती हुई भयावह संख्या के आधार पर विवाह की संस्था के लोप की भविष्यवाणी होरही है | विवाह के परंपरागत स्वरूपों में बड़े परिवर्तन आ रहे हैं। स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बन रही हैं। पहले उनके सुखमय जीवनयापन का एकमात्र साधन विवाह था, अब ऐसी स्थिति नहीं रही। धर्म के प्रति आस्था में शिथिलता और गर्भनिरोध के साधनों के आविष्कार ने विवाह विषयक पुरानी मान्यताओं को, प्राग्वैवाहिक सतीत्व और पवित्रता को गहरा धक्का पहुंचाया है।
                      किंतु ये सब परिवर्तन होते हुए भी भविष्य में विवाह प्रथा के बने रहने का प्रबल कारण है कि इससे कुछ ऐसे प्रयोजन पूरे होते हैं, जो किसी अन्य साधन या संस्था से नहीं हो सकते अर्थात वंश वृद्धि, संतान का पालन, सच्चे दांपत्य प्रेम और सुख प्राप्ति । यद्यपि विज्ञान ने कृत्रिम गर्भाधान का आविष्कार किया है किंतु कृत्रिम रूप से शिशुओं का प्रयोगशालाओं में उत्पादन और विकास संभव प्रतीत नहीं होता। राज्य और समाज शिशुशालाओं और बालोद्यानों का कितना ही विकास कर ले, उनमें इनके सर्वांगीण समुचित विकास की वैसी व्यवस्था संभव नहीं, जैसी परिवार में होती है। सहजीवन से भी दाम्पत्य प्रेम व सच्चा सुख संभव नहीं है अतः भविष्य में विवाह एक महत्त्वपूर्ण संस्था बनी रहेगी, भले ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन होते रहें।


मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार —डा श्याम गुप्त

                 सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार       
           जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभि चरण में जीवनयापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के अंदर प्रवेश किया|  वह लघुजीव-कण अपने मेजबान के  अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा एवं इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और शरणदाता,  शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल | कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया वे एक दूसरे पर आश्रित होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु .. केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु बाह्य-शरीर( कोशिका या सैल) | इस प्रकार एक दूसरे में विलय होकर सृष्टि के प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई जिससे व जिसके उदाहरण व आधार पर ही आगे समस्त जीव-जगत की रचना, विकास व वृद्धि हुई.....जीवाणु से मानव तक |
      वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने स्वको अन्य के स्वसे जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त करता है| लैंगिक सम्बन्ध, प्रेम, विवाह,  मैत्री व सामाजिक सम्बन्ध आदि सभी इसी सहभागिता एवं अपने स्वके सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु ...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य,  सहनशीलता व समर्पण |
      हमारे यहाँ लडकी- अर्थात स्त्री, पत्नी अपना घर, परिवार,  समाज,  संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है,  नए-माहौल में,  नए समाज-संस्कारों में |  लड़का पुरुष, पति  ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित,  संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव ( या अज्ञान-भाव ) लिए हुए| उसका चिंतन कैसे बदले |  स्त्री,पत्नी को ही नए-घर,  समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी होती है |  
       पति व परिवार की इच्छा,  अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी व करायेगी,  उसमें संस्कार भरेगी |  हमारा स्वजनों,  परिजनों का भार उठाएगी, अर्थात अपने स्व को हमारे स्व में निमज्जित करेगी |  अतः उसे सम्मान मिलता है|  यहाँ यह भी एक सच है कि पति व उसके परिवार को भी अपना चिंतन गुणात्मक करना होगा | पति को, पुरुष को,  लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा अपने स्व को पत्नी, स्त्री, बहू के स्व से तादाम्य करना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा पाये |    
        यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है|  पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से,  ऐंठ-अकड से |  नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी|  अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |
     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान,  केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाव वश,  गृहकार्य से दूर पुरुषवत जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी|  इस प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व करियर सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक विघटन की राह तैयार होती है |
     सिर्फ अपने स्व में जीने की ललक में एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है | वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए संघर्षरत स्त्री,  एक प्रगतिशील व आधुनिक नारी,  अपने स्व के लिए जीती हुई मात्र बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या;  न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की अपेक्षा,  नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम द्वारा सम्माननीय साधिकार,  अधिकार जताती हुई सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |
     ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न संस्कार न मूल्य |  बस अपने स्वके लिए, शरीर के लिए,  सुख के लिए जीना |  धर्म,  अध्यात्म,  सहिष्णुता, सामाजिकता,  संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं,  जो एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं |  बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है- भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ,  न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ |  यही तो आज हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |
        

शुक्रवार, 31 मई 2013

कहानी मानव की ...डा श्याम गुप्त....




                                  कहानी मानव की
         जब मानव एकाकी था, सिर्फ़ एक अकेला मानव शायद मनु या आदम ( मनुष्य,आदमी ,मैन) हाथ में एक हथौडानुमा हथियार लिए घूमता रहता था, एक अकेला । एक दिन अचानक घूमते-घूमते उसने एक अपने जैसे ही अन्य आकृति के जानवर ( व्यक्ति) को जाते हुए देखा। उसने छिप कर उसका पीछा किया। चलते-चलते वह आकृति एक गुफा के अन्दर चली गयी। उस मानव ने चुपके से गुफा के अन्दर प्रवेश किया तो देखा की एक उसके जैसा ही मानव बैठा फल आदि खा रहा है। उसकी आहट जानकर अचानक वह आकृति उठी और अपने हाथ के हथौडेनुमा हथियार को उठालिया। अपने जैसे ही आकृति को वह आश्चर्य से देख कर बोली-तुम कौन ? अचानक क्यों घुसे यहाँ, अगर में हथौडा चलादेता तो ! पहला मानव चारों और देख कर बोला, अच्छा तुम यहाँ रहते हो। मैं तुमसे अधिक बलशाली हूँ। मैं भी तुम्हें मार सकता था। यह स्थान भी अधिक सुरक्षित नहीं है। तुम्हारे पास फल भी कम हें,इसीलिये तुम कम जोर हो, अच्छा अब हम मित्र हैं मैं तुम्हें अपनी गुफा दिखाता हूँ।
      दूसरा मानव उसकी गुफा देख कर प्रभावित हुआ। उसने उसे प्रशंसापूर्ण निगाहों से देखा| पहले मानंव ने कहा तुम यहाँ ही क्यों नही  आजाते, मिलकर फल एकत्रित करेंगे और भोजन करेगे | उसने उसे ध्यान से देखा, उसका हथौडा भी बहुत बड़ा है, उसकी गुफा भी अधिक बड़ी है, उसके पास फल आदि भी अधिक मात्रा में एकत्रित हैं| उसने उसकी बाहों की पेशियाँ छू कर देखी वो अधिक मांसल कठोर थीं| उसका शरीर भी उससे अधिक बड़ा था। दूसरे मानव ने कुछ सोचा और वह अपने फल आदि उठाकर पहले मानव की गुफा में आगया।
         और यह वही प्रथम दिन था जव नारी ( शायद -शतरूपा या कामायिनी की श्रद्धा ) ने स्वेक्षा से पुरूष के साथ सहजीवन स्वीकार किया। यह प्रथम परिवार था। यह सहजीवन था कोई किसी के आधीन नहीं। नर-नारी स्वयं में स्वच्छंद थे जीने, रहने, किसी के भी साथ रहने आदि के लिए। अन्य जीवों,पशु-पक्षियों की तरह । यद्यपि सिंहों, हंसों आदि उच्च जातियों की भांति प्रायः जीवन पर्यंत एक साथी के साथ ही रहने की मूल प्रवृत्ति तब भी थी अब की तरह (निम्न जातियाँ कुत्ते,बिल्ली आदि की भांति कभी भी किसी के भी साथ नहीं) और यह युगों तक चलता रहा।
       जब संतानोत्पत्ति हुई, यह देखा गया की दोनों साथियों के भोजन इकट्ठा करने जाने पर अन्य जानवरों आदि की भांति उनके बच्चे भी असुरक्षित रह जाते हें। तो किसी एक को घर रहने की आवश्यकता हुई। फल इकट्ठा करने वाली जीवन पद्धति की सभ्यता में शारीरिक बल अधिक महत्वपूर्ण होने से अपेक्षाकृत अधिक बलशाली पुरूष ने बाहर का कार्य सम्भाला। क्योंकि नारी स्वभावतः अधिक तीक्ष्ण बुद्धि, सामयिक बुद्धि व त्वरित निर्णय क्षमता में कुशल थी अतः वह घर का, परिवार का प्रबंधन करने लगी। यह नारी-सत्तात्मक समाज की स्थापना थी। पुरूष का कार्य सिर्फ़ भोजन एकत्रित करना, सुरक्षा व श्रम का कार्य था। यह भी सहजीवन की ही परिपाटी थीस्त्री-पुरूष कोई किसी के बंधन में नहीं था, सब अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र थे। युगों तक यह प्रबंधन चलता रहा, आज भी कहीं कहीं दिखता है।
जब मानव कृषि आदि कार्यों से उन्नत हुघुमक्कड़घुमंतू समाज स्थिर हुआ, भौतिक उन्नति, मकान, घर, कपडे, मुद्रा आदि का प्रचलन हुआ तो तो पुरूष व्यवसायिक कर्मों में अधिक समर्थ होने लगा, स्त्री का दायरा घर रहा, पुरूष के अधिकार बढ़ने लगे, राजनीति, धर्म, शास्त्र आदि पर पुरुषों ने आवश्यक खोजें कीं| अबंधित शारीरिक व यौन संबंधों के रोगों द्वंदों आदि रूप में विकार सम्मुख आने लगे तो नैतिक आचरण, शुचिता, मर्यादाओं का बिकास हुआ। नारी-मर्यादा व बंधन प्रारंभ हुए। और समाज पुरूष-सत्तात्मक होगया। परन्तु सहजीवन अभी भी था। नारी मंत्री,सलाहकार,सहकार,विदुषी के रूप में घर में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व थीयस्तु नार्यस्तु पूज्यन्ते ..का भाव रहा। महाकाव्य-काल तक यह व्यवस्था चलती रही।
        पश्च-पौराणिक काल में अत्यधिक भौतिक उन्नति, मानवों के नैतिकता से गिरने के कारण, धन की महत्ता के कारण सामाजिक-चारित्रिक पतन हुआ| पुरूष-अहं द्वारा महिलाओं से उनका अधिकार छीना गया ( मुख्यतया, घर, ज़मीन, जायदाद ही कारण थे ) और पुरूष नारी का मालिक बन बैठा आगे की व्यवस्था सब देख ही रहे हैं। इस सब के साथ साथ प्रत्येक युग में-अनाचारी होते ही रहते हैं। हर युग में अच्छाई-बुराई का युद्ध चलता रहता है। तभी राम व कृष्ण जन्म लेते हैं। और ---यदा यदा धर्मस्य --का क्रम होता है। नैतिक लोग नारी का सदै आदर  करते हैं, बुरे नहीं --अतः बात वही है कि समाज व सिस्टम नहीं व्यक्ति ही खराव होकर समाज को ख़राब व बदनाम करता है।