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रविवार, 19 फ़रवरी 2017

-विकास या पतन----लघु कथा---- ---डा श्याम गुप्त...



लघु कथा-----विकास या पतन ---डा श्याम गुप्त....


      “यहाँ लड़कियां, स्त्रियाँ सब खाए-पिए, हैवी बदन वाली, भारी बेडौल शरीर व नितम्बों वालीं, अनियमित चाल वालीं, जो टाईट जींस-पेंट टॉप में और अधिक उभरकर आती है, दिखाई देती हैं|,” मल्टी-स्टोरी रेजिडेंन्शियल बिल्डिंग के भ्रमण–पथ पर स्थानीय मित्रों के साथ घूमते हुए मैंने कहा |

      ‘हाँ, सभी आधुनिका, पढी-लिखी नारी हैं | अच्छी पगार-पैकेज पाने वालीं या पाने वाले या बिजनेस वाले अपेक्षाकृत अमीर लोगों की पत्नी, बहू-बेटियाँ हैं | ठाठ-बाट से रहने वालीं, लिपी-पुती, पेंट-जींस में रहने वालीं |’ शुक्ला जी बोले |

      ‘भई, अब वो कम खाने वाली, बचा-खुचा खानेवाली, गम खाने वाली स्त्रियाँ थोड़े ही रह गयी हैं | तरक्की पर है समाज | अब नारी वो पतली-दुबली, कृशकाय अबला नहीं रही|’ जोशीजी कहने लगे |

      ‘ हाँ सही है, परन्तु कहाँ है वह ग्लेमर, सहज-प्राकृतिक सौन्दर्य जो साधारण वस्त्रों में, रूखा-सूखा खाकर भी प्रसन्न रहने वाली सामान्य महिला में होता है | कवि की कल्पना की उस  ‘कनक छरी सी कामिनी...’  में होता है | जिसके लिए मजनूँ, फरहाद, सदाबृक्ष, रांझा जीवन वार देते थे |’ मैंने प्रश्न किया, शायद स्वयं से ही |

      ‘वस्तुतः अति-अभिजात्यता, अत्याधुनिकता सदैव ही स्त्रैण-भाव की कमी व नारी में पुरुषत्व-भाव लाती है | अप्राकृतिकता व नारी के सहज आकर्षण की कमी उत्पन्न करती है| यह सदा से ही होता आया है | पहले भी राजकुमार प्रायः राजकुमारियों को छोड़कर किसी दासी, दासी-पुत्री या सामान्य ग्रामीण बाला को पसंद करने लगता था, रानी बनाने हेतु | जाने कितनी गाथाएँ हैं|’ मैंने कहा |

     आज भी तो,’ शुक्ला जी कहने लगे, ‘साहब प्रायः घरेलू नौकरानी, मातहत, कामगार, सेक्रेटरी के आकर्षण में बह जाते हैं| पश्चिम-समाज में तो यह काफी सामान्य बात है, साहब का, मालिक का, सेविका से, घर की व्यवस्थापिका से, मातहत से शादी कर लेना | आज अभिजात्य में प्रेम, प्रेम के त्याग भाव आदि के न रह जाने से स्त्रियोचित लावण्य-सौन्दर्य नहीं दिख रहा है|  कमाऊ पत्नी देर रात तक बाहर रहने वाली पत्नी युग एवं फैशन, चमक-धमक के युग में, केवल शारीरिक आकर्षण व आवश्यकता ही प्रधान रह गयी है| विवाह भी आज बस सहजीवन रह गया है, एक सौदा, कांट्रेक्ट....| 
     ‘सही कह रहे हैं शुक्ला जी’, मैंने कहा,  ‘कहाँ रहा वह अटूट बंधन, प्रेम, भक्ति, त्याग का आकर्षण-बंधन | अतः पुरुष भी भ्रमित भाव , शारीरिक आकर्षण में बह जाता है , कहीं भी | स्त्री-पुरुष अहं, ईगो, झगड़े, तलाक व पुनर्विवाह के मामले सामान्य होते जा रहे हैं|’  

      ‘पर यह उन्नति-प्रगति का दौर है, बौद्धिकता के विकास का, कब तक वहीं पड़े रहेंगे’, सुराना जी कहने लगे, ‘कि नारी पुरुष की अभ्यर्थना में खड़ी रहे| अरे, अच्छा कमाते हैं तो सुख क्यों न उठायें| लड़कियां किसी से कम थोड़े ही हैं, बराबरी का दौर है |’  

        हाँ वह तो है, मैं सोचते हुए बोला, ‘पर इसमें नारी, स्त्री, पत्नी, रानी न रहकर सिर्फ भोग्या ही रह गयी है | यह विकास है या पतन |

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार —डा श्याम गुप्त

                 सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार       
           जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभि चरण में जीवनयापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के अंदर प्रवेश किया|  वह लघुजीव-कण अपने मेजबान के  अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा एवं इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और शरणदाता,  शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल | कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया वे एक दूसरे पर आश्रित होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु .. केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु बाह्य-शरीर( कोशिका या सैल) | इस प्रकार एक दूसरे में विलय होकर सृष्टि के प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई जिससे व जिसके उदाहरण व आधार पर ही आगे समस्त जीव-जगत की रचना, विकास व वृद्धि हुई.....जीवाणु से मानव तक |
      वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने स्वको अन्य के स्वसे जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त करता है| लैंगिक सम्बन्ध, प्रेम, विवाह,  मैत्री व सामाजिक सम्बन्ध आदि सभी इसी सहभागिता एवं अपने स्वके सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु ...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य,  सहनशीलता व समर्पण |
      हमारे यहाँ लडकी- अर्थात स्त्री, पत्नी अपना घर, परिवार,  समाज,  संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है,  नए-माहौल में,  नए समाज-संस्कारों में |  लड़का पुरुष, पति  ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित,  संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव ( या अज्ञान-भाव ) लिए हुए| उसका चिंतन कैसे बदले |  स्त्री,पत्नी को ही नए-घर,  समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी होती है |  
       पति व परिवार की इच्छा,  अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी व करायेगी,  उसमें संस्कार भरेगी |  हमारा स्वजनों,  परिजनों का भार उठाएगी, अर्थात अपने स्व को हमारे स्व में निमज्जित करेगी |  अतः उसे सम्मान मिलता है|  यहाँ यह भी एक सच है कि पति व उसके परिवार को भी अपना चिंतन गुणात्मक करना होगा | पति को, पुरुष को,  लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा अपने स्व को पत्नी, स्त्री, बहू के स्व से तादाम्य करना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा पाये |    
        यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है|  पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से,  ऐंठ-अकड से |  नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी|  अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |
     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान,  केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाव वश,  गृहकार्य से दूर पुरुषवत जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी|  इस प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व करियर सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक विघटन की राह तैयार होती है |
     सिर्फ अपने स्व में जीने की ललक में एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है | वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए संघर्षरत स्त्री,  एक प्रगतिशील व आधुनिक नारी,  अपने स्व के लिए जीती हुई मात्र बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या;  न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की अपेक्षा,  नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम द्वारा सम्माननीय साधिकार,  अधिकार जताती हुई सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |
     ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न संस्कार न मूल्य |  बस अपने स्वके लिए, शरीर के लिए,  सुख के लिए जीना |  धर्म,  अध्यात्म,  सहिष्णुता, सामाजिकता,  संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं,  जो एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं |  बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है- भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ,  न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ |  यही तो आज हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |