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रविवार, 31 जुलाई 2011

ये बंधन तो प्यार का बंधन हे-''मेरी बहन '' श्रृखला में प्रस्तुत प्रथम रचनाएँ ''

''मेरी बहन '' श्रृखला में प्रस्तुत प्रथम रचनाएँ ''

Khare A ने आपकी पोस्ट " ''भारतीय नारी'' ब्लॉग पर अगस्त माह में नारी विषयक ... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

ये बंधन तो प्यार का बंधन हे


१- मेरी दीदी



हाँ अब बो नानी भी बन चुकी हे

लेकिन राखी बांधना नही भूली

राखी पर उनका फोन आ ही जाता हे

क्या प्रोग्राम हे , कब आ रहे हो

या हर बार कि तरह इस बार भी.....

राखी पोस्ट कर दूँ....

शादी के बाद ये बंधन इतना कमजोर

क्यूँ हो जाता हे.....

में दुविधा में सोचता ही रह जाता हूँ...



२. पत्नी



ए जी सुनो .......

मोनू इस बार भी नही आ पायेगा

मुझे ही उसको राखी बांधने जाना होगा

मेने दबी सी आवाज में कहा

दीदी का फोन आया था ....

उसने इग्नोर किया , और बोली..

शाम को ऑफिस से जल्दी आ जाना

मोनू के लिए राखी खरीदनी है

मेरी दुविधा काफी हद्द तक

ख़तम हो चुकी हे....



३..अंतर



भाई (मोनू) कि शादी हो चुकी हे...

इस बार मोनू का फोन आया

दीदी आप इस बार राखी पर मत आना

मैं शिवाली को उसके भाई के यहाँ लेकर जाऊंगा

पत्नी बड़बड़ाती है....

ये आज कल कि लडकिया तो

आते ही संबंधों में दरार डाल देती हैं

और मोनू को भी देखो

कितनी जल्दी उसका गुलाम बन बैठा

मेरी दुविधा का कोई अंत नही.....

[खरे जी द्वारा प्रेषित ]

समाचार भारतीय नारी से सम्बंधित

समाचार '' भारतीय नारी'' से सम्बंधित

* पहला समाचार चिंतनीय है .संयुक्त राष्ट्र  ने भी वृन्दावन में बसी १५,००० विधवाओं की स्थिति पर चिंता  व्यक्त की है .मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल ,उड़ीसा व् बिहार से किसी व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् वृन्दावन में लाकर छोड़ी गयी इन  महिलाओं  की  स्थिति
नारकीय है .इनको यहाँ इस उद्देश्य se   छोड़ दिया जाता है की ये शेष  जीवन भजन-कीर्तन कर बीता देंगी किन्तु भोजन,आवास व् अन्य मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव  में ये भीख मांगती नज़र आती हैं .सर्वप्रथम तो इनके परिवारीजनों को धिक्कार है जो विधवा माँ अथवा सम्बन्धी की जिम्मेदारी स्वयं न उठाकर उन्हें ऐसा गरिमा-विहीन जीवन व्यतीत करने के लिए छोड़  देतें   हैं.इसके पश्चात् वे धार्मिक नेता जो वादे तो बड़े बड़े करते हैं पर जहाँ उन्हें सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए वहां से  वे नदारद हो जाते हैं .सरकार को विधवा स्त्रियों की इस दुर्गति पर ध्यान देना चाहिए और समाज को भी . 

*दूसरा  समाचार भारतीय नारी के साहस को अभिव्यक्त कर रहा है .पुणे की सुचेता ने १,६२३ किमी. में फैले गोबी रेगिस्तान को पार कर ऐसा करने वाले प्रथम भारतीय बनने का गौरव प्राप्त किया है .मंगोलिया  का गोबी रेगिस्तान एशिया का सबसे  बड़ा व् विश्व का पांचवा बड़ा रेगिस्तान है . .''भारतीय नारी ब्लॉग परिवार '' की ओरसे  उन्हें हार्दिक शुभकामनायें

*तीसरा समाचार भारतीय नारी की सृजनात्मकता को सलाम का है .हिंदी के यशस्वी कथाकार  मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिवस पर उनके पैत्रिक ग्राम ''लमही'' के नाम पर शुरू की गयी पत्रिका से  पहला सम्मान प्रसिद्ध महिला कहानीकार ''सुश्री ममता कालिया जी '' को प्रदान किया गया है .''भारतीय नारी ब्लॉग परिवार '' की ओर से  उन्हें हार्दिक शुभकामनायें .

                     शिखा कौशिक

अधूरे प्रेम की प्यास के दस्तावेजों की सर्जक अमृता ! भाग 3

विख्यात शायर साहिर लुधियानवी से अमृमा प्रीतम का प्यार तत्कालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था। साहिर के साथ अपने लगाव को उन्होंने बेबाकी से अपनी आत्मकथा में इस प्रकार व्यक्त किया है।ः-

‘‘--- पर जिंदगी में तीन समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार सकती हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।---



चित्र चित्रकार इमरोज द्धरा बनाया गया अमृता जी का एक पोट्रेट

कुछ पंक्तियाँ और देखिये
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे।
कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी--
तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’


साहिर के प्रति उनके मन में प्रेम की अभिव्यक्ति उनकी अनेक रचनाओं में हुयी हैः-

‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जो मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है---

साहिर के प्रति उनके लगाव की सीमा को प्रदर्शित करता एक और वाकया जो उन्होंने रसीदी टिकट में उतारा है
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’
जीवन के उत्तरार्ध में अम्रता जी इमरोज नामक कलाकार के बहुत नजदीक रहीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा हैं-

‘‘मुझ पर उसकी पहली मुलाकात का असर- मेरे शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया, और तेज बुखार चढ़ गया। उस दिन- उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा छुआ था-
बहुत बुखार है?
इन शब्दों के बाद उसके मुॅह से केवल एक ही वाक्य निकला था- आज एक दिन में मैं कई साल बडा हो गया हूं।


--कभी हैरान हो जाती हूं - इमरोज ने मुझे कैसा अपनाया है, उस दर्द के समेत जो उसकी अपनी खुशी का मुखालिफ हैं--
एक बार मैने हंसकर कहा था,
ईमू ! अगर मुझे साहिर मिल जाता , तो फिर तू न मिलता- और वह मुझे , मुझसे भी आगे , अपनाकर कहने लगा:-मैं तो तुझेे मिलता ही मिलता, भले ही तुझे साहिर के घर नमाज पढ़ते हुए ढूंढ लेता!

सेाचती हूं - क्या खुदा इस जैसे इन्सान से कहीं अलग होता है--’’

अमृता प्रीतम ने स्वयं अपनी रचनाओं में व्यक्त अधूरी प्यास के संदर्भ में लिखा है कि
‘‘ग्ंगाजल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’
आज की चर्चा बस इतनी ही .... अब अगली पोस्ट में सोहनी-महीवाल की भूमि पर भाई-बहन के प्रेम की अनोखी मिसाल !

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प्रेम की अधूरी प्यास के दस्तावेजों की सर्जक अमृता !

शनिवार, 30 जुलाई 2011

महिला अपराधों की राजधानी दिल्ली और दबंग अपराधी



महिला अपराधों की बढती वारदातें दिल्ली और एन. सी. आर. क्षेत्र में इतनी वीभत्स रूप ले चुकी हैं कि बेबस आम आदमी अब इन्हें देख-पढ़ कर सिर्फ शर्मिंदा ही हो पाता है. कुछ करने के लिए जो न्यूनतम बैकअप उसे मिलना चाहिए था वो राजनीतिक और प्रशासनिक मुखियाओं द्वारा अपने बयानों से पूर्व में ही छीना जा चुका है, जिसमें महिलाओं को रात में घरों से बाहर न निकलने, शालीन कपडे न पहनने के प्रतिफल आदि जैसे 'व्यवहारिक' विचार व्यक्त किये जा चुके हैं. (अब कौन समझाए कि रातों में निकलने वाली 'सभी' महिलाएँ सिर्फ तफरीह के लिए ही नहीं निकलतीं.)

निश्चित रूप से आस-पास के क्षेत्रों के अपराधी इन वारदातों सहित कई आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं, मगर पुख्ता क़ानूनी कारर्वाई न होने से उन्हे प्रोत्साहन तो मिलता ही है. इसके अलावा एक और वर्ग भी है इन वारदातों के पीछे जो 'वीकेंड्स' को अपने 'शिकार' या 'इन्जॉयमेंट' पर निकलता है. 

राहुल रॉय अभिनीत 'जूनून' तो याद ही होगी आपको. 


जी हाँ, उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध जिन प्रतिरोधी विचारों को कभी दकियानुसी माना गया था, वो अब अपने विकृत रूप में सामने आ चुकी हैं. राजधानी और कई बड़े शहर शराब के रिकौर्ड बिक्री और राजस्व में अतिशय वृद्धि से अत्यंत आह्लादित थे. निसंदेह वीकेंड्स में इनकी बिक्री नए और उत्साहवर्धक  रिकौर्ड्स को भी स्पर्श करती रहती है. शराब के साथ 'चखना' की भी एक परंपरा रही है जिसने एक नए समानांतर व्यवसाय को भी आश्रय दिया है. मगर अब शराब के साथ नमकीन, मांसाहार के अलावे एक और 'वस्तु' भी अपरिहार्य रूप से जुड़ती जा रही है और वो है 'स्त्री शरीर'. 

सिनेमा, विज्ञापन, देह दर्शना आयोजनों आदि द्वारा नारी की जो एक उपभोक्ता वस्तु सदृश्य छवि बना दी गई थी, उसका नतीजा अब यह हो चुका है कि एक ऐसी मानसिकता विकसित हो गई है जो स्त्री को मात्र एक 'उपभोग योग्य शरीर' के नजरिये से ही देखती है. और यही मानसिकता 'डिमाण्ड' करती है वीकेंड के आनंदपूर्ण काल को सुनिश्चित करने के लिए  इस 'तत्व' की पूर्ति का. 

अब यह 'वस्तु' बाजार में तो सुलभ है नहीं, सो इसका शिकार या 'जुगाड' किया जाता है इन्ही वीकेंड्स के दौरान. इसके अलावे 'न्यू ईयर' आदि जैसे अन्य उपलक्ष्य भी हैं. इसकी पुष्टि इन दिनों के अख़बारों की सुर्ख़ियों से की जा सकती है. मुंबई में न्यू इयर के दौरान हुई 'छेड़खानी' की घटना की यादें अभी भूली नहीं होंगी.

गत 23 जुलाई को गुडगाँव में एक वैन चालक ने अपनी सूझ-बुझ से एक युवती को पांच युवकों द्वारा अगवा किये जाने से बचाया था. इसमें पुलिस की भी सार्थक भूमिका रही. (जो बचाव में सफलता की हाल में शायद घटित इकलौती घटना थी) इसमें उसके कुछ मित्रों ने भी मदद की थी, जिसमें इस घटना का चश्मदीद गवाह संदीप भी शामिल था. गत मंगलवार को उसकी हत्या कर दी गई. ऐसी घटनाएं ऐसे मामलों में आम आदमी को व्यक्तिगत पहल से भी हतोताहित ही करेंगीं. त्वरित और सटीक न्यायिक कारर्वाई ही इस दिशा में कोई सार्थक पहल हो सकती है.

निःसंदेह हम 100% अपराध तो नहीं रोक सकते मगर कम से कम इस शौकिया कवायद को रोकने की 1% सार्थक कोशिश तो कर ही सकते हैं, अन्यथा 'वीकेंड स्पेशल' ये खबरें मीडिया की हेडलाइंस और 'ब्रेकिंग न्यूज' ही बनती रहेंगीं. 

इतना जरूर जोडूंगा कि परिस्थितियों को देखते हुए महिलाएं भी स्वयं ही इस दिशा में उपयुक्त समाधान निकालें. अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर पूर्ण निर्भरता उचित नहीं. 
                                                                                                            अभिषेक मिश्र

भारत पाकिस्तान के विभाजन के दर्द की दास्तान और अमृता ! भाग 2


अमृता जी की आत्मकथा रसीदी टिकट पढ़ रहा था और उनके पसंदीदा विषय प्रेम पर कुछ लिखना चाहता था परन्तु अचानक कैलेन्डर की ओर निगाह गयी तो पाया कि 14 अगस्त की तारीख बहुत नजदीक है । यह तारीख हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के विभाजन की तारीख है । इसी दिन विभाजन हुआ था जिसके छः हफ्ते पहले यानी 3 जुलाई 1947 को अमृता ने एक बच्चे को जन्म दिया था सो विभाजन के मंजर पर लिखे उनके उपन्यास पिंजर की चर्चा करते हैं। वास्तव में विभाजन का दर्द अमृता जी ने सिर्फ सुना ही नहीं देखा और भोगा भी था। इसी पृष्ठभूमि पर उन्होंने अपना उपन्यास पिंजर लिखा। कल्पना कीजिये ऐसी माँ की जिसके प्रसव को एक माह का समय हुआ हो और राजनैतिक अस्थिरता तथा अनिष्चितता के उस मंजर की। अमृता जी ने इसके संदर्भ में उपन्यास पिंजर में लिखा है किः.
‘‘ दुखों की कहानियां कह- कहकर लोग थक गए थे, पर ये कहानियां उम्र से पहले खत्म होने वाली नहीं थीं। मैने लाशें देखीं थीं , लाशों जैसे लोग देखे थे, और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली, तब ----एक ही दिन में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक रिश्ते कांच के बरतनेां की भांति टूट गये थे और उनकी किरचें लोगों के पैरों में चुभी थी और मेरे माथे में भी ----- ’’
अम्रता की रचनाओं में विभाजन का दर्द और मानवीय संवेदनाओं का सटीक चित्रण हुआ है। इनके संबंध में नेपाल के उपन्यासकार धूंसवां सायमी ने 1972 में लिखा थाः-
‘‘ मैं जब अम्रता प्रीतम की कोई रचना पढता हूं, तब मेरी भारत विरोधी भावनाऐं खत्म हो जाती हैं।’’इनकी कविताओं के संकलन ‘धूप का टुकडा’ के हिंदी में अनुदित प्रकाशन पर कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा थाः-
‘‘अमृता प्रीतम की कविताओं में रमना हृदय में कसकती व्यथा का घाव लेकर , प्रेम और सौन्दर्य की धूप छांव वीथि में विचरने के समान है इन कविताओं के अनुवाद से हिन्दी काव्य भाव धनी, स्वव्न संस्कृत तथा शिल्प समृद्ध बनेगा--- ’’
इनकी रचनाओं मंे ‘दिल्ली की गलियां’(उपन्यास), ‘एक थी अनीता’(उपन्यास), काले अक्षर, कर्मों वाली, केले का छिलका, दो औरतें (सभी कहानियां 1970 के आस-पास) ‘यह हमारा जीवन’(उपन्यास 1969 ), ‘आक के पत्ते’ (पंजाबी में बक्क दा बूटा ),‘चक नम्बर छत्तीस’( ), ‘यात्री’ (उपन्यास1968,), ‘एक सवाल (उपन्यास),‘पिधलती चट्टान(कहानी 1974), धूप का टुकडा(कविता संग्रह), ‘गर्भवती’(कविता संग्रह), आदि प्रमुख हैं।
इनके उपन्यासों पर फिल्मों और दूरदर्शन धारावाहिक का भी निर्माण भी हुआ है।

आज की चर्चा बस इतनी ही .... अब अगली पोस्ट में अमृता जी के अधूरे प्रेम की प्यास की चर्चा करेगे जिसके बारे में स्वयं उन्होने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः.

‘‘ग्ंगाजल से लेकर वोडका तक यह सफरनामा है मेरी प्यास का।’’


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भारत पाकिस्तान के विभाजन के दर्द की दास्तान

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

सीख माँ की काम आये--

गर गलत घट-ख्याल आये,
रुत   सुहानी   बरगलाए 
कुछ   कचोटे  काट  खाए,
रहनुमा   भी   भटक  जाए
वक्त   न   बीते   बिताये,
काम हरि का नाम आये- 
सीख माँ की  काम आये--

हो कभी अवसाद में जो,
या कभी उन्माद  में  हो
सामने  या  बाद  में  हो,
कर्म सब मरजाद में हो
शर्म  हर औलाद  में हो,
नाम कुल का न डुबाये-
काम हरि का नाम आये- 
सीख माँ  की  काम आये--

कोख में  नौ  माह ढोई,
दूध का  न मोल  कोई,
रात भर जग-जग के सोई,
कष्ट  में  आँखे   भिगोई
सदगुणों  के  बीज  बोई
पौध कुम्हलाने  न  पाए
काम हरि का नाम आये- 
सीख माँ  की  काम आये--

ये ''हॉरर किलिंग '' हैं

आजकल हर ओर ''औनर किलिंग '' के नाम पर लड़कियों को मौत के घाट उतारा जा रहा है .मेरा मानना है कि ये ''हॉरर किलिंग '' हैं .15 से २० साल की युवतियों को परिवार की मर्यादा के नाम पर मौत के घाट उतारना अमानवीय कृत्य तो है ही साथ ही यह आज की प्रगतिशील नारी शक्ति को ठेंगा दिखाना भी है जबकि अधिकांश  लड़कियां अपने परिवार का नाम ऊँचा कर रही हैं .ऐसे में इज्जत के नाम पर उनका क़त्ल न करके बहुत सोच विचार के बाद परिवार को कोई निर्णय लेना चाहिए .लड़कियां चौखट से बाहर आकर कैसे हर कसौटी पर खरी उतरती हैं इन्हें मैंने इन शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया है -

लड़कियां जब चौखट से 
बाहर आती हैं 
उनके साथ पग-पग चलती 
है कुल की मर्यादा 
पिता का स्वाभिमान 
माता का विश्वास 
भाई की हिदायतें 
और अनंत स्वप्नों 
की श्रृंखला  ,
लड़कियां हर कसौटी
पर खरी उतर जाती हैं 
लड़कियां जब चौखट से 
बाहर आती हैं .

वो धैर्य  से ,सहनशीलता से 
पार करती हैं हर बाधा ,
छीन लेती हैं इस जग से 
लूटा गया अपना हक आधा ,
आधी दुनिया  की बुझी 
आस फिर जग जाती है .
लड़कियां जब चौखट से 
बाहर आती हैं .

सदियों से सुप्त मेधा को 
झंकझोर कर जगाती हैं ,
चहुँ ओर अपनी प्रतिभा का 
लोहा मनवाती हैं ,
बछेंद्री बन एवरेस्ट पर 
चढ़ जाती हैं ,कल्पना रूप 
में ब्रह्माण्ड घूम आती हैं .
लड़कियां जब चौखट 
से बाहर आती हैं .

''हॉरर किलिंग'' करने वालों को अपने गिरेबान में भी झांक कर   देख लेना चाहिए कि आखिर घर का बच्चा ऐसा करने के लिए क्यों विवश हो जाता है .वो क्यों बाहर के व्यक्ति पर  विश्वास कर घरवालों से बगावत कर देता है ?क्यों घर से भागने को विवश होता है ? कहीं न कहीं कमी उन में ही है जो मर्यादा का नाम लेकर अपने मासूम बच्चों  का  खून  बहा रहें हैं .

                                         शिखा कौशिक

औरत का एक रूप और भी है- लेखक - डॉक्टर अनवर जमाल

नारी त्याग की मूर्ति होती है, वह मां, बहन, बेटी और पत्नी होती है। अक्सर औरतें ख़ुद को इन्हीं रूपों में गौरवान्वित भी समझती हैं लेकिन औरत का एक रूप और भी है जिसे तवायफ़ और वेश्या कहा जाता है। ये औरतें पैसों के लालच में अपने नारीत्व का अपमान करती हैं। ये किसी नैतिक पाबंदी को नहीं मानती हैं।
इनका मानना है कि हम अपनी मनमर्ज़ी करने के लिए आज़ाद हैं। हमें नैतिकता का उपदेश देना बंद कर दिया जाए।
यही शब्द इनकी पहचान हैं।
इनका बदन ही इनकी दुकान हैं।
मर्द इनके लिए ग्राहक है।
पुलिस इनके लिए घातक है।
ऐसी औरतें जब उपदेश से नहीं मानतीं तो फिर ये पुलिस के द्वारा धर ली जाती हैं।
पिछले दिनों एक के बाद एक ऐसे कई सेक्स रैकेट पकड़े गए हैं।
इनके सपोर्टर समाज में बहुत ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए हैं। इनके कुकर्मों के समर्थन में आपको ‘नारी‘ भी मिल जाएगी।
इन बुरी औरतों की कुछ समस्याएं भी हो सकती हैं और उन्हें हल किया जाना चाहिए लेकिन ये औरतें भी कुछ समस्याएं पैदा कर रही हैं समाज में, उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
भले घर की औरतें इनके चक्कर में सताई जा रही हैं।
ये लड़कियां भी भले घर की औरतों का रूप धारण करके ही समाज में विचरण करती हैं।
क़ानून से इन्हें डर लगता है लेकिन मोटी आमदनी का लालच उस डर को काफ़ूर कर देता है। इसका इलाज क़ानून के पास नहीं है। इसका इलाज धर्म के पास है लेकिन बुद्धिजीवी होने का ढोंग रचाने वालों ने कह दिया है कि ईश्वर और धर्म सब दक़ियानूसी बातें हैं।
बस , इस तरह नैतिकता की जड़ ही काट डाली।
बहरहाल जो घटना घटी है निम्न लिंक पर क्लिक करके आप उस पर एक नज़र डाल लीजिए और सोचिए कि सीता और गीता का भारत किस तरफ़ जा रहा है ?

कॉन्ट्रैक्ट पर आती हैं लड़कियां, 1 दिन की कमाई 1 लाख - पंकज त्यागी


 
...और अंत में एक सवाल ‘स्लट वॉक‘ करने वाली माताओं और बहनों से भी करना चाहूंगा कि आप अपनी समस्याओं से परेशान होकर ‘स्लट वॉक‘ करना चाहती हैं लेकिन आपसे पहले यह ‘स्लट वॉक‘ जिन देशों में की गई है, क्या उन देशों की औरतें ऐसा वॉक करने के बाद अपनी समस्याओं से मुक्ति पा चुकी हैं ?
ऐसा कोई भी काम जो औरत को सार्वजनिक तौर पर नंगा करे, हमारी नज़र में वह नारी की मर्यादा के अनुकूल नहीं है और जिसकी नज़र में हो तो वह बताए कि हम कहां ग़लत हैं ?
औरत का दिल नाज़ुक जज़्बात का आईनादार है। दूसरे तो उस पर ज़ुल्म कर ही रहे हैं, वह ख़ुद पर ज़ुल्म ढाने के लिए क्यों आमादा है ?

                                                      लेखक - डॉक्टर अनवर जमाल
                                              

महिला अधिकारों को लेकर फिर एक बहस

प्रदीप  कुमार साहनी जी की कविता  ''चौखट  ''और  अनवर जमाल जी के उस पर  प्रस्तुत विचार  एक बहस छेड़ने   हेतु  पर्याप्त  हैं एक सोच जो भारतीय समाज में सदियों से हावी  हैं वह  है  की लड़कियों की दुनिया घर की चौखट  के भीतर है  जबकि प्रदीप जी की कविता आधुनिक प्रगतिशील  सोच का प्रतिनिधित्व करती है  .प्रदीप जी की सोच वह  सोच है  जो आज के गिने चुने  पिता रखते हैं जबकि अनवर जी की सोच वह  सोच है  जो सदियों से हमारे  भारतीय समाज में रखी   जाती  है  .एक सोच कहती  है  की -''आज महिला   सशक्तिकरण  का दौर    है  .महिलाएं  पुरुषों    के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं आगे    बढ़    रही हैं .पृथ्वी   आकाश आदि का कोई ऐसा क्षेत्र  नहीं है  जहाँ  नारी   शक्ति    ने   अपने  कदम  न  बढ़ाये  हों   हर  क्षेत्र  में महिलाएं  आज अपनी  योग्यता  का लोहा  मनवा  रही हैं .
    वहीँ  दूसरी  सोच  कहती  है महिलाएं घर के कामों को ही बखूबी निभा सकती हैं  यह आदमी का कम  है कि वह घर से बाहर जाये और कमा कर  लाये और औरत का काम ये है कि  वह उन पैसों से घर को चलाये और पति के सुख दुःख में हाथ बटाएँ.
                  डॉ.साहब इस विषय में एक बात और कहते हैं वे इंदिरा गाँधी जी और संजय  गाँधी जी का उदाहरण  देते हैं उनके अनुसार माँ के पास अपने बच्चों के लिए समय न होने पर वे बिगड़ जाते हैं .
   अब यदि हम दोनों सच को एक तरफ रख दें और अपने समाज की ओर देखें तो हम क्या पाते हैं ये भी देखिये कितनी ही माँ हैं जो हर वक़्त घर पर रहती हैं फिर भी उनकी संतान बिगड़ी हुई है और कितनी ही माँ हैं जो घर बाहर दोनों जगह सफलता पूर्वक अपने कार्य को अंजाम दे रही हैं इंदिरा गाँधी जी के ही उदाहरण को यदि लेते हैं  तो उनके एक आदर्श पुत्र राजीव गाँधी जी का उदाहरण भी सामने है जिन्होंने अपनी माँ का साथ देने को न चाहते हुए भी राजनीति में आना स्वीकार किया .
          हमारी खुद की जानकारी में माता पिता दोनों प्रोफ़ेसर हैं ओर उनके बच्चे आई.ए.एस.हैं ओर ऐसे उदाहरण भी हमारी व्यक्तिगत जानकारी  में हैं जहाँ माँ पूर्ण रूप से गृहणी है ओर उनके बच्चे साधारण परीक्षा भी उतरीं करने को जूझते  दिखाई देते हैं .ये सही है कि जब माँ घर से बाहर काम  करने जाती है तो बच्चे माँ की अनुपस्थिति  में बहुत सी बार सहन नहीं कर पाते और कभी बिगड़ जाते हैं तो कभी अंतर्मुखी हो जाते हैं किन्तु ये भी है की बहुत सी बार व्यावहारिक भी कुछ ज्यादा हो जाते हैं और इसमें बच्चों के विकास में माता पिता  दोनों का संभव सहयोग होता है .
  एक बात और ये भी ध्यान देने योग्य  है कि सुल्तान  डाकू जो हमारे इतिहास का प्रसिद्द व्यक्तित्व है उसकी माँ कौनसी घर से बाहर  काम  करने जाती थी और अभी  पिछले दिनों राजनीति के आकाश पर  चमकने वाले एक सितारे स्व.प्रमोद महाजन जी की पत्नी के बारे में भी ऐसा कुछ नहीं आता कि वे कहीं बाहर  कार्य करती हों फिर उनके सुपुत्र मात्र कहने को वास्तव में कुपुत्र  राहुल महाजन जी कैसे बिगड़ गए .और हमारी राष्ट्रपति महोदय समत.प्रतिभा देवी सिंह  पाटिल जी कब से राजनीति  में हैं और कहने को इनके पास अपने परिवार के लिए नाममात्र  का भी समय नहीं है और इनका परिवार एक आदर्श भारतीय परिवार कहा जा सकता है .
    साथ ही एक बात और देखने में आती है कि पुरुषों को तो फिर भी अपने कार्यों में अवकाश का समय मिलता है पर महिलाएं अपने घर के काम में कोई अवकाश नहीं पाती हैं और जिसका परिणाम बहुत सी बार ऐसा होता है कि महिलाएं बिलकुल अक्षम हो पड़ जाती हैं और तब पुरुषों को आटे दाल का भाव मालूम होता है अर्थात घर का काम संभालना उनकी मजबूरी हो जाती है .
     हालाँकि आज पुरुषों की सोच में कुछ  परिवर्तन  आया है     और वे भी घर के काम में कुछ हाथ बटाने लगे हैं और ये भी सत्य है कि जैसे  आज की हर  महिला   घर से  बाहर जाकर काम करने की इच्छा रखती है ये भी ज्यादा आधुनिक होने का परिणाम है हर  महिला  में न तो बाहर जाकर काम करने की योग्यता है न ही उसको इसकी आवश्यकता है कि वह घर से बाहर जाये मात्र अपने को ''पिछड़े''कहने से बचाने के लिए हर  महिला  का अपने को ''working '' कहलवाना परिवार उजाड़ रहा है ,घर बर्बाद कर रहा है .
       मेरे विचार में चौखट को प्रतिबन्ध न  सोचकर घर परिवार की सुरक्षा के रूप में स्वीकार किया जाये और मात्र स्त्रियों के लिए नहीं ये स्त्री पुरुष दोनों के लिए सुरक्षा है और कुछ नहीं. योग्यता और आवश्यकता को ध्यान  में रखते हुए महिलाओं को स्वनिर्णय का अधिकार दिया जाये साथ ही ये महिलाओं के लिए भी जरूरी है कि मात्र आधुनिक कहलवाने  की सोच स्वयं पर हावी न होने दें और अपनी जिम्मेदारी को सही रूप में अपनाएं.
         ये मेरे विचार हैं ज़रूरी  नहीं आप मेरे विचारों से सहमत हों आपके इस विषय  में क्या विचार हैं अवगत कराएँ.  
                      शालिनी कौशिक  
      

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

बर्तनों पर लगी हिन्दू और मुसलमान की मोहर और बालिका अमृता ! भाग 1



अमृता  प्रीतम का जन्म 1919 में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के लाहौर शहर में हुआ । इनके माता पिता पंचखंड भसोड़ के स्कूल में पढाते थे। इनका बचपन अपनी नानी के घर बीता जो रूढिवादी विचारधारा की महिला थी। अमृता बचपन से ही रूढियों के विरूद्व खडी होने वाली बालिका थीं ।
बचपन में अमृता ने देखा कि उनकी नानी की रसोई में कुछ बरतन और तीन गिलास अन्य बरतनों से अलग रखे रहते थे परिवार में सामान्यतः उन बर्तनों का उपयोग नहीं होता था । अमृता के पिता के मुसलमान दोस्तों के आने पर ही उन्हें उपयोग में लाया जाता था। बालिका अमृता ने अपनी नानी से जिद करते हुये उन गिलासों में ही पानी पीने की जिद की और फिर कई दिन की डांट-फटकार और सत्याग्रह के बाद अंततः अपने पिता के मुसलमान दोस्तों के लिये अलग किये गये गिलासों को सामान्य रसोई के बरतनेां में मिलाकर रूढियों के विरूद्व खडी होने का पहला परिचय दिया।
जब ये ग्यारह वर्ष की हुयीं तो इनकी मॉ की मृत्यु हो गयी । मां के साथ गहरे भावनात्मक लगाव के कारण मृत्यु शैया पर पडी अपनी मां के पास यह अबोध बालिका भी बैठी थीं। बालिका ने घर के बडे बुजुगों से सुन रखा था कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और भगवान बच्चों की बात नहीं टालते सेा अमृता भी अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ी हुयी ईश्वर से अपनी मां की सलामती की दुआ मांगकर मन ही मन यह विश्वास कर बैठीं थीं कि अब उनकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और उनका ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया।
ईश्वर के प्रति अपने विश्वास की टूटन को उन्होने अपने उपन्यास ‘एक सवाल’ में कथानायक जगदीप के माध्यम से हूबहू व्यक्त किया है जब जगदीप अपनी मरती हुयी मां की खाट के पास खड़ा हुआ है, और एकाग्र मन होकर ईश्वर से कहता है-
‘ मेरी मां केा मत मारो।’
नायक को भी ठीक उसी तरह यह विश्वास हो गया कि अब उसकी मां की मृत्यु नहीं होगी क्योंकि ईश्वर बच्चों का कहा नहीं टालता..... पर मां की मृत्यु हो गयी, और , अमृता की तरह कथा नायक जगदीप का भी ईश्वर के उपर से विश्वास हट गया।
इन्होंने अपना सृजन मुख्य रूप से पंजाबी और उर्दू भाषा में किया है। अपनी आत्म कथा में अमृता ने अपने जीवन के संदर्भ में लिखा हैः-
‘‘ ---इन वर्षो की राह में, दो बडी घटनायें हुई। एक- जिन्हें मेरे दुःख सुक्ष से जन्म से ही संबंध था, मेरे माता पिता, उनके हाथों हुई। और दूसरी मेरे अपने हाथों । यह एक-मेरी चार वर्ष की आयु में मेरी सगाई के रूप में, और मेरी सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में मेरे विवाह के रूप में थी। और दूसरी- जो मेरे अपने हाथों हुई- यह मेरी बीस-इक्कीस वर्ष की आयु में मेरी एक मुहब्बत की सूरत में थी।---’’
अपने विचारों को कागज पर उकेरने की प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। मन की कोरें में आते विचारों को डायरी में लिखने से जुडे एक मजेदार किस्से को उन्होंने इस प्रकार लिखा हैः-
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी (यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खेाला गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मेने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’

अभी जारी है ..अगली पोस्ट में चर्चा करेंगें अमृता के प्यार की जो उनके समकालीन समालोचकों का पसंदीदा विषय था

''अमर सुहागन''- .शत-शत नमन इन वीर नारियों को -

यूँ तो भारतीय नारी का हर स्वरुप   प्रेरणादायी है पर एक शहीद की पत्नी के रूप  में   स्त्री  कितना  बड़ा  त्याग करती है सोचकर भी ह्रदय  गदगद हो जाता है और आँखें नम .इन्ही भावों को संजोये है यह रचना  .शत-शत नमन इन  वीर नारियों को -


हे!  शहीद की प्राणप्रिया
तू ऐसे शोक क्यूँ करती है?
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दुल्हन मांग को भरती है.
******************************************
श्रृंगार नहीं तू कर सकती;
नहीं मेहदी हाथ में रच सकती;
चूड़ी -बिछुआ सब छूट गए;
कजरा-गजरा भी रूठ गए;
ऐसे भावों को मन में भर
क्यों हरदम आँहे भरती है;
तेरे प्रिय के बलिदानों से
हर दीपक में ज्योति जलती है.
*********************************************
सब सुहाग की रक्षा हित
जब करवा-चोथ -व्रत करती हैं
ये देख के तेरी आँखों से
आंसू की धारा बहती है;
यूँ आँखों से आंसू न बहा;हर दिल की
धड़कन कहती है--------
जिसका प्रिय हुआ शहीद यहाँ
वो ''अमर सुहागन'' रहती है.

बुधवार, 27 जुलाई 2011

सालों से बेटों की तलास में दर-दर भटक रही है दलित सोमवती


  1. एक ही वर्ष में रहस्यमय तरीके से गायब हो गये थे तीन बच्चे
  2. पुलिस ने पाँच वर्ष तक नहीं की रिपोर्ट दर्ज, बाल अधिकार कार्यकर्ता नरेश पारस के अथक प्रयासों से पाँच वर्ष बाद दर्ज हो सकी रिपोर्ट।
  3. बच्चों के गम में पिता ने पहले तो मानसिक संतुलन खोया आठ साल बाद कुत्ते के काटने से हो गई, बच्चों के गम में डूबे पिता ने इलाज भी कराना मुनासिव नहीं समझा।
  4. समय से पहले ही बूढ़ी हो चुकी सोमवती घरों में झाड़ू-पोछा करके बमुश्किल चला रही है घर
  5. थाना पुलिस से लेकर राष्ट्रपति तक लगाई जा चुकी है गुहार, सभी की ओर से मिलता है एक ही ‘‘जबाब तलास जारी है‘‘।
http://jeewaneksangharsh.blogspot.com/2011/07/blog-post_24.html



 आगरा के थाना जगदीशपुरा के बौद्ध नगर, घड़ी भदौरिया की तंग गलियों में रहती है अभागी सोमवती। एक छोटे से कमरे में अपने तीन बच्चों के साथ रहती है दलित सोमवती। 

नौ साल से दरवाजे की ओर टकटकी लगाए बैठी एक मां को हर आहट पर यही लगता है कि शायद वो आया, लेकिन न तो वो आता है और ना ही उसकी आहट राहत देती है। वह हर सुबह इसी आस में जगती है और हर रात इसी उम्मीद में सोने की कोशिश करती है कि उसके ‘‘लाल‘‘ उससे मिलने आयेगें। वह पल पल जीती है और पल पल मरती है, मां के कलेजे को उनकी यादें सताती हैं और उसे रूला जाती हैं। 

यह उस मां की सदाये हैं जो हद वक्त अपने ही लाडलों को पुकार रही है। बरसों बीत जाने के बाद भी मां बड़े जतन से अपने कलेजे के टुकड़ों के लौटने का इंतजार कर रही है। बेटों के इंतजार में आंखों में रात गुजरती है और आंशुओं में दिन। न इंतजार खत्म हो रहा है और न कलेजे को ठंडक पहुच रही है, न कोई खबर मिल रही है और न कोई सुध मिल रही है। बच्चों के गम में पहले तो पिता ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया।

वर्षों तक गुमसुम रहा बच्चों की याद में हर समय उस घड़ी को कोसता रहता जिस घड़ी ने उसके मासूमों को उससे जुदा किया था। आठ साल तक एकदम गुमसुम सा रहने वाले पिता को जिंदगी बोझ लगने लगी थी। एकदिन कुत्ते ने उस पिता को काट लिया तो उसने अपना इलाज तक कराना मुनासिव नहीं समझा। वह बच्चों के गम में पूरी तरह से टूट चुका था। उसने अपने कुत्ते की घटना के बारे में अपनी पत्नी को भी नहीं बताया। जब वह पानी से डरने लगा तो सोमवती को कुछ शक हुआ तो कई बार पूछने पर उसने बताया कि उसे कुत्ते ने काट लिया है और अपना इलाज न कराने को कहा वह बच्चों के गम में और अधिक जीना नहीं चाहता था। सोमवती रोती हुई अपने पति के इलाज के लिए दौड़ी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। और उसके पति ने बच्चों के गम में दम तोड़ दिया। अब अभागी सोमवती अकेली है वह अब किसी के साथ दुख बांट भी नहीं सकती है।

पथराई आंखे, पपड़ाये होठ, वक्त से पहले ही चेहरे पर झुर्रियों की मार कुछ ऐसी ही है सोमवती। सोमवती हमेशा से ही ऐसी नहीं थी। सोमवती की भी दुनिया कभी खुशियों से भरी थी। सोमवती के लिए मई 2002 दुर्भाग्य लेकर आया। को सोमवती ने अपने बड़े बेटे आनन्द को अपने पिता को बुलाने के लिए सड़क पर चाय की दुकान से बुलाने के लिए भेजा था। वह पिता को तो आने की कह आया लेकिन खुद नहीं लौटा। अपने 14 वर्षीय बेटा जब शाम छः बजे तक भी नहीं लौटा तो उसकी तलास शुरू कर दी। आस-पास तथा रिश्तेदारों के यहाँ तलाश करने पर भी नहीं मिला तो सोमवती अपने बेटें की रिपोर्ट लिखाने थाने पहुची तो पुलिस का वो क्रूर चेहरा सोमवती के सामने आया जिसे याद करके वह आज भी सिहर उठती है। 

पुलिस ने बच्चे की रिपोर्ट लिखने से साफ मना कर दिया। कहा गया कि श्रीजी इंटरनेशनल फैक्ट्री में आग लग गई हमें वहां जाना है ऐसे बच्चो तो खोते ही रहते हैं। उसे रिपोर्ट दर्ज किये बिना ही भगा दिया गया। कहीं भी सुनवाई न होने पर सोमवती थक हारकर घर बैठ गई।

2002 की दीपावली से करीब पाँच-छः दिन पहले सोमवती का 12 साल का दूसरा बेटा रवि भी अचानक गायब हो गया। रवि घर के बाहर खेलने के लिए निकला था। रवि को तलाशने में खूब भागदौड़ की लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। इस बार भी सोमवती थाने में गुहार लगाने पहुची मगर नतीजा पहले की तरह से शून्य ही रहा। अभी सोमवती के उपर दुखों का पहाड़ टूटना बाकी था। करीब तीन माह बाद सोमवती का तीसरा पुत्र रवि रहस्मय तरीके से गायब हो गया।

तीसरे बच्चे के गायब होने पर भी पहले की तरह सोमवती जगदीशपुरा में रिपोर्ट दर्ज कराने गई तो इस बार तो पुलिस ने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं। पुलिसकर्मियों ने लताड़ दिया और सोमवती से कहा कि तेरे बहुत बच्चे हैं। हर बार तेरे ही बच्चे गायब होते हैं। हमने क्या तेरे बच्चों का ठेका ले रखा है। क्यों इतने बच्चे पैदा किये ज्यादा बच्चे होंगे तो गायब होगें ही हम पर क्या तेरे बच्चे ढूढने का एक ही काम है जाओ और हमें भी काम करने दो।

तीन-तीन बच्चों के गम ने सोमवती तथा उसके पति गुरूदेव को झकझोर कर रख दिया। गुरूदेव बच्चों के गम में अपना मानसिक संतुलन खो बैठा दिन-रात सिर्फ बच्चों की याद में गुमसुम बैठा रहता। अब सारी जिम्मेदारी सोमवती पर आ गई थी। लेकिन सोमवती ने हार नहीं मानी और एक नियम बना लिया वह हर माह थाना जगदीशपुरा जाती और बच्चों के बारे में पूछती पुलिस द्वारा उसे हर बार भगा दिया जाता था लेकिन उसने थाने जाने का नियम नहीं तोड़ा।

10 फरवरी 2007 को सोमवती हर बार की तरह ही थाने गई थी पुलिस ने उसे हमेशा की तरह फटकार दिया था। सोमवती थाना जगदीशपुरा के बाहर बैठी रो रही थी तभी अचानक वहाँ से मानवाधिकार कार्यकर्ता नरेश पारस गुजर रहे थे। उन्होने सोमवती से रोने का कारण पूछा तो पहले तो उसने कुछ भी बताने से इंकार कर दिया। लेकिन अधिक अनुरोध करने पर सोमवती ने नरेश पारस को रोते रोत पूरी घटना बताई। नरेश पारस ने थाना जगदीशपुरा में संपर्क किया तो पता चला कि सोमवती की रिपोर्ट दर्ज की ही नहीं गई थी। नरेश पारस ने सोमवती के मामले को स्थानीय मीडिया में उठाया तो मीडिया ने सोमवती की खबर को प्रकाशित किया। 

नरेश पारस ने सोमवती के दुख को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बताया तो मानवाधिकार आयोग ने तत्कालीन एसएसपी श्री जी के गोस्वामी को नोटिस जारी कर रिपोर्ट तलब की। आयोग के निर्देश एवं मीडिया की पहल पर सीओ लोहामण्डी सुनील कुमार सिंह तथा एसओ विनाद कुमार पायल ने सोमवती के घर जाकर हालचाल जाना तथा सोमवती की रिपोर्ट दर्ज की। सोमवती के गायब हुए तीनो बेटों की गुमसुदगी पाँच वर्ष बाद 14 फरवरी 2007 को दर्ज हो सकी।

नरेश पारस लगातार सोमवती के संपर्क रहे। सोमवती के बच्चों के फोटों लेकर पुलिस ने पैम्पलेट छपवाएं। जिले में गुमसुदा प्रकोष्ठ भी खोले गये। गुमसुदा प्रकोष्ठ में भी कई बार सोमवती गई लेकिन उसे सख्त हिदायत दी जाती कि गुमसुदा प्रकोष्ठ में वही कहना है जो दरोगा जी बतायें। कहा जाता रहा कि तलास जारी है। पुलिस द्वारा कोई ठोस कार्यवाही नही की गई। जबकि सोमवती ने अपने स्तर से एक बेटें को ढूढ निकाला।

सोमवती ने बताया कि उसका बड़ा बेटा आनन्द कुबेरपुर गांव में एक जाट परिवार में रहता है। सोमवती का कहना है कि जब वह अपने बेटे से मिलने गई तो जाट परिवार की महिला ने कहा कि वह आनन्द को फरीदाबाद रेलवे स्टेशन से लेकर आई थी । वह अब बच्चे को नहीं देगी। उसने बच्चे को दिल्ली के पास किसी जगह पर छुपा दिया। सोमवती ने कहा कि बच्चे को भले ही न दो लेकिन इतनी अनुमति दे दो कि वह अपने बेटे से त्याहारों पर मिल सके लेकिन उस महिला ने स्पष्ट इंकार कर दिया। और सोमवती को दुवारा नआने की हिदायत दी। सोमवती ने पुलिस से संपर्क किया तो पुलिस ने गाड़ी करने के लिए सोमवती से पैसों की मांग की। सोमवती की मदद के लिए पुलिस द्वारा कोई संतोषजनक कार्यवाही नहीं की। तंग आकर पुलिस ने अप्रेल 2010 में सोमवती के गुमसुदा बच्चों की फाइल ही बन्द कर दी।

सोमवती की फाइल बन्द होने की सूचना जैसे ही नरेश पारस को हुई तो नरेश पारस ने दुबारा से पुनः प्रयास किया। उन्होने सोमवती की मुलाकात तत्कालीन कमिश्नर श्रीमती राधा एस चौहान से मुलाकात कराई। श्रीमती चौहान ने नरेश पारस के अनुरोध पर सोमवती के गुमसुदा बच्चों की दुबारा फाईल खुलवाई। कमिश्नर ने सीओ लोहामण्डी सिद्धार्थ वर्मा को जाच सौपी और सोमवती के बेटों को ढूढने के निर्देश दिये।

नरेश पारस ने सोमवती का मामला महामहिम राष्ट्रपति को भी भेजा। राष्ट्रपति भवन से भी उ0 प्र0 सरकार के लिए निर्देश जारी हुए। उ0 प्र0 सरकार ने पुलिस को कार्यवाही के लिए निर्देश दिये। मामला फिर थान पुलिस पर आकर अटक गया। सोमवती आज भी अपने पुत्रों का इंतजार कर रही है। विगत मार्च माह में सोमवती के पति को कुत्ते ने काट लिया था। सोमवती का पति पहले ही बच्चों के गम में अपना मानसिक संतुलन खो चुका था वह बच्चों के गम में और अधिक जीना नहीं चाहता था इसलिए उसने अपने कुत्ते काटने के संबंध में किसी को भी नहीं बताया। यहाँ तक कि सोमवती का भी नहीं बताया। कुछ दिन गुजरने के बाद जब सोमवती का पति गुरूदेव पानी से डरने लगा तो सोमवती के कुछ शंका हुई और उसने अपने पति से पूछा तो गुरूदेव ने सोमवती को सबकुछ सच सच बता दिया और कहा कि वह अब और अधिक बच्चों का गम बर्दास्त नहीं कर सकता है इसलिए उसका इलाज भी न कराया जाए। सोमवती पति की बातों को सुनकर हैरान रह गई। वह आनन-फानन में पति को लेकर इलाज के लिए दौड़ी उसने कई जगह दिखाया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। एक दिन बाद ही गुरूदेव ने दम तोड़ दिया। अब सोमवती बिल्कुल अकेली पड़ गई उसका आखिरी सहारा भी छिन गया था। अब वह दिन रात रोती रहती है। उसे अब उजाले से भी डर लगने लगा है। वह एक कमरे में अंधेरा करके बैठी रोती रहती है और अपने भाग्य को कोसती रहती है। अब उसके पास तीन बच्चे हैं 15 साल का संतोष, 12 साल की काजल तथा 10 साल का उमेश। पढ़ने लिखने की उम्र में सोमवती ने अपने दोनों बेटों को जूते का काम सिखाने के लिए पास के ही एक कारखाने में भेज दिया। अब सोमवती एकदम असहाय हो चुकी है। वह हर समय दरवाजे पर बैठी आंशू बहाती रहती है। उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है।

सोमवती का मामला थाने से लेकर राष्ट्रपति भवन तक सबके संज्ञान में है। नरेश पारस ने सोमवती का मामला राष्ट्रीय बालक अधिकार संरक्षण आयोग को भी भेजा लेकिन बाल आयोग ने यह कहकर टाल दिया कि मामला पूर्व से ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में चल रहा है। इस लिए आयोग कोई भी कार्यवाही नही कर सकता है। मानवाधिकार आयोग ने भी यह कहकर फाईल बन्द कर दी कि पुलिस ने पैम्पलेट छपवाकर बांट, टीवी रेडियों के माध्यम से जानकारी प्रकाशित कराई है। पुलिस द्वारा कार्यवही जारी है इसलिए फाइल बन्द कर दी जाती है।

आगरा की महापौर श्रीमती अंजुला सिंह माहौर एक महिला हैं, उ0 प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती हैं तथा देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पद पर भी एक महिला श्रीमती प्रतिभादेवी सिंह पाटिल विराजमान हैं। देश में सभी जगह महिला शासन होते हुए भी एक महिला अपने तीन बेटों को ढूढने के लिए दर-दर भटक रही है। क्या सभी की मानवीय संवेदनाएं मर चुकी हैं। 

देश में तमाम महिला एवं बाल अधिकार संगठन हैं फिर भी सोमवती पर किसी को भी तरस नहीं आया। यदि पुलिस शुरूआत में ही सोमवती के बेटों की गुमसुदगी दर्ज कर लेती तो शायद उसके बेटों को ढूढा जा सकता था लेकिन पुलिस ने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया। सोमवती के बेटों को ढूढा जाए तथा उसकी आर्थिक मदद की जाए। उसके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाए। सोमवती आज भी अपने बेटों का इंतजार कर रही है।---

आगरा से वरिष्ठ पत्रकार श्री ब्रज खंडेलवाल की रिपोर्ट

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

पर जननी मिट गई तो, करिहै का विज्ञान ||

महिलाओं का गर कहीं, होता  है  अपमान,
सिखला दुष्टों को सबक, खींचों जमके कान ||

खींचों जमके  कान,  नहीं महतारी खींची ,
बाढ़ा  पेड़  बबूल,  करे  जो हरकत  नीची ||

कृपा नहीं दायित्व,  हमारा  सबसे  पहिला,
धात्री  का  हो  मान, सुरक्षित होवे  महिला ||

एक दोहा--
               पर जननी मिट गई तो--


जननी यदि कमजोर  है, हो  दुर्बल  संतान |
पर जननी मिट गई तो, करिहै का विज्ञान ||

यह कैसी निराली रीत


यह कैसी निराली रीत

यह कैसी निराली रीत 
दो साल से देश के बाहर रहने के कारण काफी परिवार के कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाई /जिसका मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा ,और उस समय मुझे अपने देश से दूर रहना बहुत अखरा /देश से दूर रहकर ही मैं हमारे देश के सस्कारों और सस्कृति की कीमत अच्छी तरह जान सकी /पर जब मैं अपने देश में वापस आई और मुझे नई पीदियों की शादियों में शामिल होने का अवसर मिला तो मुझे ये देख कर बहुत दुःख हुआ की हमारे देश की कुरीतियाँ नहीं बदली/ आज जब लडकियां लड़कों के बराबर पढ़ रही हैं उनके कंधे से कन्धा मिलाकर काम कर रही हैं / लड़की के माता -पिता भी लड़कियों की पढाई -लिखाई पर उतना ही खर्च कर रहे हैं जितना लड़के के माता-पिता /फिर भी लड़की वालों से कुछ लडके वाले दहेज़ की मांगे रख रहे हैं /लड़की के माता-पिता को उनके हर जायज-नाजायज मांगों को पूरा करने को मजबूरकर रहें हैं  /उनके हर रिश्तेदारों के सामने झूक कर उनका मान करने को कह रहे हैं / उनको इतना परेशान कर रहे हैं की खुले विचारों वाले माता-पिता भी अपनी लड़की की शादी के समय ये सोचने लगे की काश आज हम लड़कीवाले नहीं होते /क्योंकि हम अपनी लड़की उनके घर भेज रहे हैं तो क्या उनको अपनी बेज्जती करने का अधिकार दे रहे हैं / उनको मांग के अनुसार दहेज़ दें,वो जैसा चाहें वैसे ही उनके रिश्तेदारों ,बारातियों के स्वागत का इंतजाम करें /हर बात में ये डरते रहें की कही हमसे कोई गलती ना हो जाए ,कही लड़केवाले नाराज ना हो जाएँ /क्यों भई क्या लड़कीवाले हैं तो  डराने और दबाने के लिए ही हैं क्या /आज जब हर कदम पर लड़की लड़कों के बराबर हैं तो शादी में ये लडके वाले ऊँचे और लड़कीवाले नीचे कैसे हो सकतें हैं /सिर्फ इसलिए की लड़की विदा होकर लडके के घर जा रही है./ये तो एक तरह की  blackmailing  होगई की अगर आप ने हमारी बात नहीं मानी तो हम आपकी  लड़की को परेशान करेंगे , उसको ताना देंगे , उसके  साथ  दुर्बेब्हार करेंगे  /फिर तो kidnepping और शादी में अंतर क्या हो गया  kidnepper भी पैसे के लिए ये सब  करता है /अगर  kidneper की बात नहीं मानते तो वो kidnep किये गए  ब्यक्ति  को मार भी देता है /इसी  तरह कई  लड़कियों के ससुरालवाले  भी जब उनकी  मांगे पूरी नहीं होती तो वो लड़की को मार भी देते हैं /विवाह को हमारे समाज में अपनी परम्पराओं और संस्कारों में काफी ऊँचे स्थान पर रखा है /इसको साथ जन्मों का बंधन माना गया है / ऐसी पवित्र भावना से बनाई हुई इस रीति को हमने अपने  लालच में अंधे होकर blackmailing में परिवर्तित कर दिया /आज जब हम २२वि सदी में जी रहे हैं /नए  ज़माने और नई सोच को अपना  रहे हैं तो अपने समाज की इन  सड़ी-गली  कुरीतियों  को क्यों नहीं छोड़ पा रहे हैं/लड़की के माता-पिता पर तो अब दोहरी मार पढ़ रही है/ लड़कियों को लड़कों के बराबर पढ़ा भी रहे हैं और इस कुरीति  के कारण लड़केवालों की जायज -नाजायज मांगों को भी पूरा कर रहे हैं /और नोकरी करने वाली लड़की के पैसे पर भी शादी के बाद ससुराल वालों का हक हो जाता है .जिसका फायदा भी लड़के और उसके घर वाले उठा रहे हैं/मतलब यह कैसी 
निराली रीति है कमाऊ लड़की भी दें,.दहेज़ भी दें,और लड़केवालों के सामने झुकें भी,मतलब लड़केवालों के दोनों हाथ में लड्डू और लड़कीवालों के दोनों हाथ खाली  /अगर ये कुरीतियाँ नहीं बदली गईं तो लड़की को गर्भ में मारने की संख्या में और बढोतरी ही होगी /एक समय ऐसा आयेगा की समाज में लड़कियों की संख्या ना के बराबर हो जायेगी /फिर कैसे ये दुनिया चलेगी और कैसे लोगों का वंश आगे बढेगा/इसलिए जागो समाज के कर्ता-धर्ताओं जागो /समाज की इन कुरीतियों को बदलो /अपनी सोच बदलो / रीति-रिवाजों में परिवेर्तन जरुरी है /इसको बदलने में सबको आगे आना चाहिए /और ऐसी कुरीतियों को बदलना ही चाहिए /विवाह जैसी प्यारी परम्परा दो जिंदगियों और दो परिवार को जोड़ने के लिए बनी है /इसे अपने अहम् मान -अपमान ,लालच जैसी बुराइयों के कारण युद्ध का मैदान मत बनाओ /जो लड़की आपके घर आ रही है वो आपका घर ,आपके बेटे का संसार सजाने और आपका वंश बढ़ाने के लिए बहुत अरमानों के साथ आई है / अगर उसके माता-पिता का अपमान करोगे या परेशान करोगे तो उससे भी प्यार और मान की आशा कैसे करोगे//प्यार और इज्जत दोगे तभी प्यार और इज्जत पाओगे /यही जमाने की रीत है /
विवाह जैसी प्यारी रस्म को अपने 
लालच के कारण ब्यापार मत बनाओ 
यह दो जिंदगियों और दो परिवारों का मेल कराती है 
अपना अहम् छोडकर सबको दिल से अपनाओ 
तभी आप और आपका परिवार खुश रहेगा 
 लड़की तथा उसके परिवार से दिल से इज्जत पायेगा       

    

चौखट-प्रदीप कुमार साहनी


                                    चौखट

चौखट के भीतर का जीवन जीने को मजबूर थी जो,
सहमी हुई सी, दर से दबकर जीने को मजबूर थी जो |

पहले पापा के इज्ज़त को चौखट भीतर बंद रहना,
शादी बाद सासरे में चौखट का उसपे पाबंद रहना |

सपना कोई देख लेना उसके लिए गुनाह होता था,
जीवन जीने का लक्ष्य उसका बच्चे और निकाह होता था |

वो अबला अब बलशाली बन चौखट का दंभ तोड़ चुकी है,
वो नारी स्वयं अपने पक्ष में हवा के रुख को मोड़ चुकी है |

नैनों में चाहत भी होती लक्ष्य भी इनके अपने होते,
चौखट और वो चाहरदीवारी अब तो बस वे सपने होते |

कोई काम नहीं धरा में इनके बस की बात नहीं जो,
कोई बात नहीं रहा अब इनके हक की बात नहीं जो |

नीति से राजनीति तक हर क्षेत्र में इनकी साझेदारी है,
देश रक्षा से रॉकेट साईंस तक हर चीज में भागेदारी है |

चौखट के भीतर-बाहर, हर तरफ सँभाले रखा है,
अबल से सबला बनकर भी मर्यादा भी सँभाले रखा है |

हर जिम्मा अब अपना इनको खुब निभाना आता है,
घर, गाड़ी या देश हो इनको सब चलाना आता है |

पुरुषों से कंधा हैं मिलाती देश की नारी नहीं है कम,
इस आँधी को बाँध के रखले,चौखट में नहीं वो दम |