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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

हिन्दी विकीपीडिया और कविताकोश पर काव्य-संग्रह ‘टूटते सितारों की उडान’ का लिंक

होनहार विरवान के होत चीकने पात कहावत को चरितार्थ करते हुये ब्लाग जगत के सक्रिय ब्लागर श्रीयुत सत्यम् शिवम् जी के द्वारा ‘टूटते सितारों की उडान’ नामक काव्य-संग्रह का संपादन करते हुये इसे उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित कराया गया है। इसमें ब्लाग जगत से जुडे बीस कवियों की रचनायें सम्मिलित की गयी हैं जिसमें छः प्रमुख महिला ब्लागर भी सम्मिलित हैं।

संग्रह के नाम के अनुरूप इस संग्रह में सम्मिलित सभी रचनाकारों की रचनाऐं जीवन की आपा धापी में पल पल बिखरते जा रहे टूटते , छटपटाते रिश्तों का सच प्रगट करती हुयी सी जान पडती हैं। भारतीय नारी ब्लाग हेतु इस संग्रह मे सम्मिलित महिला रचनाकारों की रचनाओं की बानगी प्रस्तुत है जिसमें उन्होंने महानगरीय जीवन की भीड़ में हर पल बिखरते जा रहे टूटते ,और, छटपटाते रिश्तों की सच्चाई को प्रमुखता से स्वर दिया है। क्रमानुसार जिसकी बानगी इस प्रकार है-

1 मूल रूप से रूडकी (उत्तर प्रदेश) निवासिनी सुश्री संगीता स्वरूप जी केन्दीय विद्यालय की शिक्षिका रह चुकी हैं तथा वर्तमान में देश की राजधानी में निवासित हैं उनका एक काव्य संग्रह ‘उजला आसमां’ पूर्व में प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने उस तथागत महात्मा बु़द्ध से कुछ सवाल पूछे हैं जो अपनी पत्नी और पुत्र को बेसहारा छोडकर चले गये थे । उनके सवाल किसी भी संवेदनशील प्राणी को निरूत्तर करने के लिये ही लिखे गये जान पडते हैं-

.................तथागत सिद्धार्थ -
कौन से ज्ञान की खोज में
किया था तुमने पलायन जीवन से ?
सुना है तुम नहीं देख पाए
रोगी काया को
या फिर वृद्ध होते शरीर को
और मृत्यु ने तो
हिला ही दिया था तुमको भीतर तक
थे इतने संवेदनशील
तो कहाँ लुप्त हो गयी थीं
तुम्हारी संवेदनाऐं
जब पुत्र और पत्नी को
छोड गये थे सोता हुआ
और अपने कर्तव्य से बिमुख हो
चल पडे थे
दर-बदर भटकने..........

2-मूल रूप से इन्दौर में जन्मी और राजस्थान के कोटा जनपद में विवाहित दर्शन कौर वर्तमान में मायानगरी मुंबई में निवास कर रही हैं जिनकी रचनाओं में महानगरी में खो गया मानवीय रिश्ता इस प्रकार दिखा

........नाहक, तुम्हें बाँधने की कोशिश
छलावे के पीछे भागने वाले औंधे मुंह गिरते हैं
इस तपती हुयी मरू भूमि में
चमकती सी बालू का राशि
जैसे कोई प्यासा हिरन,
पानी के लिये
कुलांचे भरता जाता है
अंत में थककर दम तोड देता है
तुम्हारे लिये
इस मरूभूमि में मै भी भटक रही हूँ
काश कि तुम मिल जाते।...............

3-विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी वरिष्ठ हिन्दी कवियत्री सुश्री वन्दना गुप्ता जी की रचना का एक अंश देखें-.

...........न जाने कब
कैसे, कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतो
मेरी सोच
मेरी आत्मा को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षांऐं है
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधन मुक्त
ना हो पाती हूँ..
......................

4-राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती महेश्वरी कानेरी जी सेवानिवृति के उपरांत देहरादून उत्तराखंड में निवास कर रही हैं। उनकी एक रचना का अंश देखें -

जीवन तो जीया है मैने
लेकिन कब वो अपना था?
रिश्तों के टुकडों में,
सब कुछ बँटा- बँटा था।
कभी रीति और रिवाजों
की ओढी थी चुनरी....
कभी परंपराओं का
पहना था जामा.....
आँखों में स्वप्न नहीं
समर्पण रहता , हर दम
रिश्तों का फर्ज निभाते
जीवन कब बीत गया
दायित्व के बोझ तले
बरबस मन, ये कहता
कौन हूँ मैं ? कौन हूँ मैं?.
.....................

5-सुधीनामा नामक ब्लाग की संचालिका वरिष्ठ ब्लागर सुश्री साधना वैद जी की एक रचना का अंश देखें -

........तुम्हारे घर के सामने के दरख्त की
सबसे ऊँची शाख पर
अपने मन में सालों से घुटती एक
लंबी सी सुबकी को
मैं चुपके से टाँग आयी थी
इस उम्मीद के कि कभी
पतझड के मौसम में
तेज हवा के साथ
उस दरख्त के पत्ते उडकर
तुम्हारे आंगन में आकर गिरे तो
उसके साथ वह सुबकी भी
तुम्हारी झोली में जा गिरे!...........


6-कानपुर निवासिनी सुश्री सुषमा ‘आहुति’ जी की एक रचना की बानगी देखिये
..........एक सवाल मेरा मुझसे ही रहता है,
क्यूं हर रिश्ता दर्द देता है?
हर खुशी के साथ क्यूं गम होता है?
होठों पर मुस्कान रहती है दिल उदास रहता है
चलते हैं तलाश में मंजिल की हम,
पर राहें मुझसे ही सवाल करती हैं।............

इस काव्य-संग्रह में सम्मिलित प्रमुख व्लागर सर्वश्री रूप चंद्र जी शास्त्री ‘मयंक’ आदि कुछ रचनाकारों के नाम हिन्दी कविता की प्रतिष्ठित वेवसाइट । कविताकोश में भी उपलब्ध हैं अतः उनके पन्ने पर इस काव्य-संग्रह का लिंक ... भी कविताकोश में जोड दिया गया है जिसे पढने के लिये इस लिंक पर क्लिक करते हुये पहुंचा जा सकता है ।

इस कविता-संग्रह को । हिन्दी विकीपीडिया पर उपलब्ध हिन्दी पुस्तकों की सूची में भी जोडा गया है जो अभी अपने प्रारंभिक स्वरूप में है ...


यदि आप चाहें तो स्वयं भी इसमें पठनीय सामग्रियों को जोड कर इसे और अधिक विकसित कर सकते हैं।


प्रकाशित काव्य संग्रह को आशीर्वाद देते पूज्यनीय पिता जी

आप को भारतीय नारी परिवार की ओर से नव वर्ष ''२०१२'' की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ढेरों बधाइयाँ।
  
                     

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" को माँ का आशीर्वाद .....


प्रकाशित काव्य संग्रह को आशीर्वाद देती पूज्यनीया माँजी
उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" में प्रकाशित मेरी कविताओं की समीक्षा श्रेष्ठ कवियत्री वंदना गुप्ता जी के द्वारा ..........
..........उत्तर प्रदेश में रहने वाले प्रशासनिक अधिकारी श्री अशोक कुमार शुक्ला जी की कवितायेँ यथार्थ बोध कराती हैं ."इक्कीसवां बसंत" कविता में कवि ने बताया कि कैसे युवावस्था में मानव स्वप्नों के महल खड़े करता है और जैसे ही यथार्थ के कठोर धरातल पर कदम रखता है तब पता चलता है कि वास्तव में जीवन खालिस स्वप्न नहीं . "कैसा घर" कविता व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष है .तो दूसरी तरफ "गुमशुदा" कविता में रिश्तों की गर्माहट ढूँढ रहे हैं जो आज कंक्रीट के जंगलों में किसी नींव में दब कर रह गयी है .इनके अलावा "तुम", "दूरियां", "परिक्रमा" ,"बिल्लियाँ" आदि कवितायेँ हर दृश्य को शब्द देती प्रतीत होती हैं यहाँ तक कि बिल्लियों के माध्यम से नारी के अस्तित्व पर कैसा शिकंजा कसा जाता है उसे बहुत ही संवेदनशील तरीके से दर्शाया है........
"चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श पर

और गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँ

मैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दर

कितना उडा जा सकता है

आखिर क्यों नहीं सहा जाता

अपने पिंजरे में रहकर भी

खुश रहने वाली

चिड़ियों का चहचहाना"


तो दूसरी तरफ "वेताल" सरीखी कविता हर जीवन का अटल सत्य है. हर कविता के माध्यम से कुछ ना कुछ कहने का प्रयास किया है जो उनके लेखन और सोच की उत्कृष्टता को दर्शाता है .

श्रीमती वन्दना गुप्ता जी

आपका आभार कि आपने संपूर्ण कविता संग्रह के संदर्भ में मेरी कविताओं को गहनता से पढकर सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की। "इक्कीसवां बसंत" कविता की पृष्ठभूमि के लिए इसी ब्लॉग पर लिंक है पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ ...


और यह रही "बिल्लियाँ" नामक पूरी कविता----


बिल्लियॉ


खूबसूरत पंखों वाली नन्हीं चिडियों को

एक पिंजरें में कैद कर लिया था हमने ,

क्योंकि उनके सजीले पंख लुभाते थे हमको,

इस पिंजरे में हर रोज दिये जाते थे

वह सभी संसाधन

जो हमारी नजर में

जीवन के लिये जरूरी हैं,

लेकिन कल रात बिल्ली के झपटटे ने

नोच दिये हैं चिडियों के पंख

सहमी और गुमसुम हैं

आज सारी चिडिया

और दुबककर बैठी हैं पिजरें के कोने में
,
पहले कई बार उडान के लिये मचलते

"चिड़ियों के पंख आज बिखरे हैं फर्श पर

और गुमसुम चिड़ियों को देखकर सोचता हूँ

मैं कि आखिर इस पिंजरे के अन्दर

कितना उडा जा सकता है

आखिर क्यों नहीं सहा जाता

अपने पिंजरे में रहकर भी

खुश रहने वाली

चिड़ियों का चहचहाना"


इस कविता की पृष्ठभूमि की चर्चा फिर कभी इसी ब्लॉग पर करूंगा
वन्दना जी पुनः आभार
अगर आप में से कोई भी इस काव्य संग्रह को पढना चाहता है तो उत्कर्ष प्रकाशन मेरठ द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह "टूटते सितारों की उड़ान" प्राप्त करने के लिए लेखक से अथवा सत्यं शिवम् जी से इस नंबर पर संपर्क कर सकते हैं ..........9934405997 इस मेल पर संपर्क किया जा सकता है.contact@sahityapremisangh.com

शनिवार, 26 नवंबर 2011

यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

रागिनी से राग गाकर क्या विरह का गान गाउॅ?


मैं अगर गा भी सका तो वह विरह का गान होगा।

छेड कर कोई गजल मैं क्यों समां बोझिल बनाउॅ?


सोचता हू दूर जाकर इस जहॉ को भूल जाउॅ।

याकि अपने ही हृदय का खून कागज पर बहाउॅ।


जानता हू कुछ लिखूगा वह प्रिये संवाद होगा।

क्यों निरर्थक स्याह दिल को कागजों में फिर लगाउॅ।


तिमिर की इस कालिमा में अरुण को कैसे भुलाउॅ?

जबकि खारा हो जहॉ प्रिय ! प्यास को कैसे बझाउॅ?


जिन कंटको से हृदय बेधित क्या उन्हें प्रियवर कहाउॅ?

क्यों बहा आंसू छलककर यह व्यथा कैसे सुनाउॅ?

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

तुम्म्हारी आँच

जीवन की


सर्द और स्याह रातों में


भटकते भटकते आ पहुँचा था


तुम तक


उष्णता की चाह में


और तुम्हारी ऑच


जैसे धीरे धीरे समा रही है मुझमें


ठीक उसी तरह


जैसे धीमी ऑच पर


रखा हुआ दूध


जो समय के साथ


हौले हौले अपने अंदर


समेट लेता है सारे ताप को


लेकिन उबलता नहीं


बस भाप बनकर


उडता रहता है तब तक


जब तक अपना


मृदुल अस्थित्व मिटा नहीं देता


और बन जाता है


ठेास और कठोर


कुछ ऐसे ही सिमट रहा हूँ मैं


लगातार हर पल


शायद ठोस और कठोर


होने तक या


उसके भी बाद


ऑच से जलकर


राख होने तक ?

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

जिस दिन निजत्व को जानेगा अन्तरपट खुल जायेगा

अरविन्द मिश्र जी के ब्लाग पर एक टिप्पणी के रूप में प्रकाशित श्रीमती वन्दना गुप्ता जी की निम्न पंक्तियाँ साभार प्रस्तुत हैं


ना भाव हूँ ना विचार
ना कण ना क्षण
मै हूँ वो चिरन्तन सत्य
जो तुझमे हूँ आवेष्ठित

मै ही गोपी मै ही राधा
मै ही कृष्ण और मै ही परम सत्य
ना तुझसे जुदा हूँ और ना ही अलग
अस्तित्व वक्त की गर्द मे दबा

मोह माया के आडम्बर मे लिपटा
तुझमे समाया तेरा "मै"
तेरी आत्म चेतना
तेरे "मै" को जानती
सूक्ष्म रूप मे तुझमे रहती

फिर कोई कैसे जानेगा
जब तू ही ना मुझे जान पाया
स्वंय को ना पहचान पाया
क्यों दुनिया से करें उम्मीद

्करो प्रयास खुद ही
स्वंय को जानने की
आत्मतत्व को पहचानने की

जिस दिन निजत्व को जानेगा
अन्तरपट खुल जायेगा
हर रूप तुझमे समा जायेगा
गोपी कृष्ण राधा तू ही बन जायेगा

बुधवार, 21 सितंबर 2011

पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ कविता

संभवतः वर्ष 1999 के जून माह का अवसर रहा होगा। मेरी तैनाती ऋषिकेश से 15 किलोमीटर दूर पर्वतीय जनपद टिहरी गढवाल की एकमात्र अर्द्धमैदानी तहसील नरेन्द्रनगर में थी। उत्तराखंड राज्य की घोषणा हो चुकी थी बस उसे अवतरित होना बाकी था। तत्कालीन भारत सरकार के प्रधानमंत्री महोदय का उत्तराखंड आना प्रस्तावित था जिसके लिये आसपास के सभी जनपदों से प्रशासनिक अधिकारियों को शान्ति व्यवस्था हेतु जिम्मेदारी सौंपी गयी थीं । मुझे भी एक ऐसी ही मीटिंग में भाग लेने हेतु देहरादून कलक्ट्रेट पहुंचना था।

प्रातः जल्दी उठा और सरकारी कारिन्दों के साथ सरकारी जीप से देहरादून के लिये चल पड़ा। ऋषिकेश से कुछ किलोमीटर आगे बढ़ने पर थोड़ा सा रास्ता जंगल से होकर गुजरता था । इसी जगह पहँच कर देखा आगे रास्ते पर भारी भीड खडी है। सरकारी जीप को आते देखकर भीड़ इस आशय से किनारे हो गयी कि शायद पुलिस आ गयी है। कैातूहलवश जीप रोकवा कर मैं भी उतर पडा और भीड को लगभग चीरता हुआ आगे बढ आया। देखा सड़क से पचास मीटर दूर जंगल की अंदर एक युवती की अर्द्वनग्न लाश पड़ी थी।

आसपास एकत्रित भीड किसी मदारी के सामने खड़े तमाशबीनों की तरह उस लाश को देख रही थी। मैने आगे बढकर देखा युवती लगभग इक्कीस वर्ष की थी उसके शरीर पर छींटदार सूट और गले में रंगीन दुपट्टा था। गौरतलब बात यह थी उसके दाँये हाथ की कलाई पर ड्रिप के माध्मम से दवा, ग्लूकोस आदि चढ़ाये जाने वाली नली लगी थी। पास ही ऐक अधचढ़ी ड्रिप और नली भी पड़ी थी। युवती के शरीर केे निचले हिस्से केा देखने से स्पष्ठ प्रतीत होता था कि वहा गर्भवती थी। यह स्पष्ट था कि अनचाहे गर्भ से निजात पाने के दौरान किसी गंभीर काप्लिकेशन के कारण ही उसेकी मृत्यु हुयी थी और उसका तीमारदार अपनी जान छुड़ाकर उसे इस तरह छोड़कर भाग गया होगा। मैने आगामी कार्यवाही के लिये स्थानीय पुलिस को फोन किया और अपनी जीप से आगामी कार्यक्रम के लिये चल पड़ा।


परन्तु उस युवती की यह दशा देखकर मैं व्यथित हो गया था । वह युवती मेरे मष्तिश्क से जाने का नाम ही नहीं लेती थी , मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी , वह जैसे मेरी जीप में आकर ही बैठ गयी थी । परन्तु उस युवती की यह दशा देखकर मैं व्यथित हो गया था ।

वह युवती मेरे मष्तिश्क से जाने का नाम ही नहीं लेती थी , मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रही थी , वह जैसे मेरी जीप में आकर ही बैठ गयी थी । मै सोचने लगा कि आखिर किसी की प्रेमिका रही होगी वह ? प्रेम के वशीभूत अपने प्रेमी के आलिंगन में बंधने को कैसी आतुर रही होगी वह ?

और उस सम्मोहक आलिंगन की परिणति इस रूप में होगी, क्या कभी उसने सोचा होगा ? नहीं ना! बस इसी पृष्ठभूमि में उस नवयौवना को श्रंद्धांजलि स्वरूप कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जो समर्पित थीं उस प्रारंभिक निश्छल आलिंगन को, और उस इक्कीसवें बसंत को जो चाहकर भी अगली बहार या पतझड़ नहीं देख सकी थी।


वह श्रंद्धांजलि पूर्व में ‘साहित्य शिल्पी’ के संस्करण में कविता ‘इक्कीसवाँ बसंत’ के नाम से जारी हुयी है जिसे आज यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ।


इक्कीसवॉ बसन्त
तपते रेगिस्तान में

पानी की कामना जैसी

धुप्प अंधेरे में

रोषनी की किरण फूटने जैसी

मॉ से बिछडे हुए

किसी अबोध का मिलने पर

मॉ की छाती से चिपककर रोने जैसी

मंझधार में डूबते हुए को

किनारा पाकर मिलने वाली संतुश्टि जैसी

कुछ ऐसी ही तो थी

उस इक्कीसवें बसंत की कल्पना

लेकिन यथार्थ की कठोरता

जब तमाचा बनकर

मेरे गालों पर पडीं

तब मैने जाना कि

चॉदनी रात कैसे आग उगलती है?

चंदन का आलिंगन

कितना जहरीला हो सकता है?

दिये की लौ

कैसे झुलसा सकती है?

प्रेम की आसक्ति

कितना लाचार कर सकती है?

चहचहाती चिडिया

एक पल में सहम कर

मौन हो सकती है

निरीह मेमना

मिमियाकर तुरंत निस्तेज हो सकता है

अगर वह भी

मेरी तरह किसी

कसाई के साथ हो


‘साहित्य शिल्पी’ पर पूरी कविता पढ़ने के लिए आगामी लिंक पर क्लिक करे .........

पूर्णतः सच्ची घटना से प्ररित कुछ पंक्तियाँ कविता

शनिवार, 17 सितंबर 2011

बहुएं और बेटियाँ

मादा भ्रूण हत्या से संबंधित मात्र चार लाइनें “बहुएं और बेटियाँ”और “संबंध”आज प्रस्तुत कर रहा हूँ जिन्हें लिखा है रजनी अनुरागी जी ने जो दिल्ली विश्विद्यालय से हिन्दी साहित्य में पीएच-डी हैं और जानकी देवी मेमोरियल कालेज में पढ़ाती है।

नवोदित कवयित्री रजनी अनुरागी की कविताओं की केन्दीय भाव-भूमि व्यापक मानवीय सरोकार है।

सहज भाषा में गहन अभिव्यक्ति और स्पष्ट वैचारिकी उनके काव्य व्यक्तित्व की विशेषताएंहैं। उनकी कविताएं हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं।


“बिना किसी भूमिका के” उनका पहला कविता संग्रह है।

इनका ईमेल है : rajanianuragi@gmail.co
बहुएं और बेटियाँ



शादी के बाद मारी जाती हैं बहुएं


और बेटियाँ ...


जन्म से पहले ही


घोंट दिया जाता है उनका गला


संबंध


मैंने उससे कहा

आओ मेरा मन ले लो

उसे मेरा तन चाहिए था


मैंने फिर उससे कहा

आओ मेरा मन ले लो

उसे मेरा धन चाहिए था


उसने मेरा तन लिया

उसने मेरा धन लिया

मन तक तो वो आया ही नहीं


अब मैं सोचती हूँ

कि मैंने उसके साथ

इतना लम्बा जीवन कैसे जिया


पर जीवन जो बीत गया

जीवन जो रीत गया

वह जिया गया कहाँ

शनिवार, 3 सितंबर 2011

चीखों जैसी किलकारियाँ!


(भारतीय नारी ब्लाग के सितम्बर माह के विषय ‘मादा भ्रूण हत्या’ को समर्पित एक प्रश्नावली )


आखिर क्यों ?
शहनाई और किलकारी,
क्रमागत हैं एक दूसरे की!
कुछ महकाती हैं आँगन को
तो चीखों जैसी लगती हैं कुछ !
आखिर क्यों?

आखिर क्यों ?
किसी एक का सृजन पूज्य है
और दूसरे का त्याज्य ?
किसी का निर्माण वरदान सा हैं
और दूसरे का अभिशप्त !
आखिर क्यों ?

आखिर क्यों ?
हर सृजन का साकार होना
एक जैसा नहीं है!

‘उस’ सृजन से पूर्व भी तो बजी थी
मंदिर की वैसी ही घंटियाँ!
जिनको सुनकर
धरा पर उतर आयी थी वो शक्ति!
जिसके बगैर सब ‘मिट्टी’ है,

फिर क्योंकर तुम्हारे समाज में
शापित हैं कुछ किलकारियॉ
और कुछ हैं महिमामंडित ?
आखिर क्यों?