पिछले दिनों दिल्ली के प्यारे लाल भवन में 'सक्षम' थियेटर समूह द्वारा सआदत हसन मंटो के नाटकों की प्रस्तुति की गई. मंटो की कहानी हतक (Insult, अपमान) पर आधारित इस नाटक में समाज में देह व्यापर से जुडी महिलाओं और उनके प्रति तथाकथित सभ्य सोसाइटी की मानसिकता पर एक करारा प्रहार किया गया है.
सुगंधा जो कि एक वैश्या है के चरित्र के माध्यम से मंटो ने समाज में स्त्री के दोयम दर्जे को भी रेखांकित किया है. पुरुषवादी समाज एक स्त्री को एक उपभोग्य बस्तु बना देता है, जिसे सुगंधा स्वीकार भी कर चुकी है, फिर भी उसके अंदर कहीं एक सच्चे प्यार की मृगतृष्णा शेष है. उसकी इसी कमजोरी का भी लाभ उठाने एक अन्य पुरुष माधो उसकी जिंदगी में आता है; जो एक म्युनिशिपैलीटी हवलदार है और खुद उसी के शब्दों में उसकी एक काफी प्यार करने वाली, उसका इंतज़ार करने वाली बीवी भी है. यह जानते हुए भी बिना कोई शिकायत किये सुगंधा उसमें अपने प्यार को तलाशती है. मगर उसका यह भ्रम भी तब टूट जाता है जब उसे उक्त प्रेमी (!) द्वारा छल द्वारा वो पैसे हड़पने का प्रयास करते हुए देखती है, जिसे उसने अपने शरीर को हर रात बेचकर जमा किये हैं. उसके यथास्थिति को स्वीकार करने का धैर्य तब बिलकुल ही टूट जाता है जब एक ग्राहक उसे अस्वीकार कर देता है.
इन परिस्थितियों में उभरा सुगंधा का आक्रोश समाज में हाशिए पर डाल दी गई नारी के उस वर्ग की अभिव्यक्ति है, जिसके पास स्वयं चयन का कोई अधिकार नहीं. स्वीकार और अस्वीकार करना दोनों ही पर पुरुष का ही नियंत्रण है. और दोनों ही परिस्थितियों में दोष सदा स्त्री के इसी रूप का ही माना जाता रहा है और जाने कब तक इसे ही माना जाता रहेगा.
मंटो के संवेदनशील नाटकों को साकार रूप देना सहज नहीं, मगर निर्देशक श्री सुनील रावत ने इसकी बेहतर प्रस्तुति को सुनिश्चित करने में अपना यथोचित योगदान दिया है. नाटक में विभिन्न पात्रों यथा सुगंधा के रूप में अनामिका वशिष्ठ और माधो के रूप में प्रवीण यादव ने सराहनीय अभिनय किया है. या यूँ कहूँ कि सुगंधा के चरित्र को उजागर करने में अनामिका वशिष्ठ ने अविस्मरणीय योगदान दिया है, तो अतिशयोक्ति न होगी. नाटक एक संवेदनशील विषय पर संवाद आरंभ करने में सफल रहा है.