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रविवार, 1 अप्रैल 2018

औरत की तकदीर

औरत की तकदीर में देखो ,हरदम रोना-धोना है ,
मिलना उसको नहीं है कुछ भी ,सब कुछ हर पल खोना है ,
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तड़प रहेगी उसके दिल में ,जग में कुछ कर जाने की ,
नहीं पायेगी वो कुछ भी कर ,बोझ जनम का ढोना है ,
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सपना था इस जीवन में कि सबके काम वो आएगी ,
सच्चाई ये उसका जीवन ,सबकी रोटी पोना है ,
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टूट रही है तिल-तिल गलकर ,कुछ भी हाथ न आता है ,
पता चल गया भाग्य में उसके ,थक हारकर सोना है ,
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नारी जीवन में देने को ,प्रभु की झोली खाली है ,
''शालिनी '' का मन तड़पाकर ,भला देव का होना है ,
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शालिनी कौशिक 
[कौशल ]

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

औरत



ये औरत ही है !


पाल कर कोख में जो जन्म देकर बनती  है जननी 
औलाद की खातिर मौत से भी खेल जाती है .
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बना न ले कहीं अपना वजूद औरत 
कायदों की कस दी  नकेल जाती है .

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मजबूत दरख्त बनने नहीं देते  
इसीलिए कोमल सी एक बेल बन रह जाती है .
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हक़ की  आवाज जब भी  बुलंद करती है 
नरक की आग में धकेल दी जाती है 
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फिर भी सितम  सहकर  वो   मुस्कुराती  है 
ये औरत ही है जो हर  ज़लालत  झेल  जाती  है .



                                          शिखा कौशिक 
                           [vikhyaat  ]







शनिवार, 3 नवंबर 2012

छोटी-सी गुड़िया

छोटी-सी वो गुड़िया थी गुड़ियों संग खेला करती थी,
खेल-कूद में, विद्यालय में सदा ही अव्वल रहती थी ।

भोली थी, नादान थी वो पर दिल सबका वो लुभाती थी,
मासूमियत की मूरत थी, बिन पंख ही वो उड़ जाती थी ।

बचपन के उस दौर में थी जब हर पल उसका अपना था, 
दुनिया से सरोकार नहीं था, उसका अपना सपना था । 

यूँ तो सबकी प्यारी थी पर पिता तो 'बोझ' समझता था, 
एक बेटी है जंजाल है ये, वो ऐसा ही रोज समझता था । 

शादी-ब्याह करना होगा, हर खर्च वहन करना होगा,
लड़के वालों की हर शर्तें, हर बात सहन करना होगा ।

कन्यादान के साथ में कितने 'अन्य' दान करने होंगे,
घर के साथ इस महंगाई में, ये देह गिरवी धरने होंगे ।

छोटी-सी एक नौकरी है, ये कैसे मैं कर पाउँगा, 
रोज ये रोना रोता था, मैं जीते जी मर जाऊंगा । 

जितनी जल्दी उतने कम दहेज़ में काम बन जायेगा, 
किसी तरह शादी कर दूँ, हर बोझ तो फिर टल जायेगा । 

इस सोच से ग्रसित बाप ने एक दिन कर दी फिर मनमानी, 
बारह बरस की आयु में गुडिया की ब्याह उसने ठानी । 

सोलह बरस का देख के लड़का करवा ही दी फिर शादी, 
शादी क्या थी ये तो थी एक जीवन की बस बर्बादी । 

छोटी-सी गुड़िया के तो समझ से था सबकुछ परे, 
सब नादान थे, खुश थे सब, पर पीर पराई कौन हरे । 

ब्याह रचा के अब गुड़िया को ससुराल में जाना था, 
खेल-कूद छोड़ गृहस्थी अब उस भोली को चलाना था । 

उस नादान-सी 'बोझ' के ऊपर अब कितने थे बोझ पड़े, 
घर-गृहस्थ के काम थे करने, वो अपने से रोज लड़े । 

इसी तरह कुछ समय था बीता फिर एक दिन खुशखबरी आई, 
घर-बाहर सब खुश थे बड़े, बस गुड़िया ही थी भय खाई । 

माँ बनने का मतलब क्या, उसके समक्ष था प्रश्न खड़ा, 
तथाकथित उस 'बोझ' के ऊपर आज एक दायित्व बढ़ा । 

कष्टों में कुछ मास थे गुजरे, फिर एक दिन तबियत बिगड़ा, 
घर के कुछ उपचार के बाद फिर अस्पताल जाना पड़ा । 

देह-दशा देख डॉक्टर ने तब घरवालों को धमकाया, 
छोटी-सी इस बच्ची का क्यों बाल-विवाह है करवाया ? 

माँ बनने योग्य नहीं अभी तक देह इसका है बन पाया, 
खुशियाँ तुम तो मना रहे पर झेल रही इसकी काया । 

शुरू हुआ ईलाज उसका पर होनी ही थी अनहोनी, 
मातम पसर गया वहां पर सबकी सूरत थी रोनी । 

बच्चा दुनिया देख न पाया, माँ ने भी नैन ढाँप लिए, 
चली गई छोटी-सी गुड़िया, बचपन अपना साथ लिए । 

साथ नहीं दे पाया, उसके देह ने ही संग छोड़ दिया, 
आत्मा भी विलीन हुई, हर बंधन को बस तोड़ दिया । 

एक छोटी-सी गुड़िया थी वो चली गई बस याद है, 
ये उस गुड़िया की कथा नहीं, जाने कितनों की बात है । 

ऐसे ही कितनी ही गुड़िया समय पूर्व बेजान हुई, 
कलुषित सोच और कुरीत के, चक्कर में बलिदान हुई ।

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

वो औरत

देखा उस दिन उस घर में
शादी का जश्न था;
आँगन था भरा पूरा
हो रहा हल्दी का रस्म था,
ठहाकों की गूंज थी 
हँसी मज़ाक कमाल था, 
समां देखकर खुशियों का 
"दीप" भी खुशहाल था | 

तभी अचानक नजर उठी 
छत पर जाकर अटक गई, 
एक काया खड़ी-खड़ी 
सब दूर से ही निहार रही, 
होठों पे मुस्कान तो थी 
नैनों में पर बस दर्द था, 
आँखों के कोर नम थे 
हृदय में एक आह थी; 
बुझी-बुझी सी खड़ी थी वो 
बातें उसकी रसहीन थी, 
खुशियों के मौसम में भी 
वो औरत बस गमगीन थी | 

श्वेत वस्त्र में लिपटी हुई 
सूने-सूने हाथ थे, 
न आभूषण, न मंगल-सूत्र, 
सूनी-सूनी मांग थी, 
चेहरे में कोई चमक नहीं 
मायूसी मुख मण्डल पर थी; 
नजरें तो हर रसम में थी 
पर हृदय से एकल में थी | 
उस घर की एक सदस्य थी वो, 
वो लड़के की भोजाई थी, 
था पति जिसका बड़ा दूर गया 
बस मौत की खबर आई थी; 
दूर वो इतना हो गया था 
तारों में वो खो गया था | 

घरवालों का हुक्म था उसको 
दूर ही रहना, पास न आना, 
समाज का उसपे रोक था 
सबके बीच नहीं था जाना; 
शुभ कार्य में छाया उसकी 
पड़ना अस्वीकार था, 
शादी जैसे मंगल काम में 
ना जाने का अधिकार था |
खुशियाँ मनाना वर्जित था, 
रस्मों में उसका निषेध था; 
झूठे नियमों में वो बंधी 
न जाने क्या वो भेद था; 
जुर्म था उसका इतना बस 
कि वो औरत एक विधवा थी, 
जब था पति वो भाभी थी, 
बहू भी थी या चाची थी, 
पति नहीं तो कुछ न थी 
वो विधवा थी बस विधवा थी | 

एक औरत का अस्तित्व क्या बस, 
पुरुषों पर ही यूं निर्भर है ? 
कभी किसी की बेटी है, 
कभी किसी की पत्नी है, 
कभी किसी की बहू है वो, 
तो कभी किसी की माता है; 
उसकी अपनी पहचान कहाँ, 
वो क्यों अब भी अधीन है ? 
इस सभ्य समाज के सभी नियम 
औरत को करे पराधीन है; 
वो औरत क्यों यूँ लगा-सी थी ? 
वो औरत क्यों मजबूर थी ? 
उसपर क्यों वो बंदिश थी ? 
वो खुद से ही क्यों दूर थी ?