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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014
सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
नायिका ....लघु कथा.....डा श्याम गुप्त ..
नायिका
अरे
! बहुत दिन बाद मिले हो शांतनु ! बताओ क्या नया लिखा है, एल्यूमिनी असोसिएशन की
पार्टी में मिलने पर सरिता ने पूछ लिया |
एक
नया उपन्यास...’तेरे नाम’ | शांतनु ने बताया |
ये
मेरे ऊपर उपन्यास लिखने का क्या अर्थ |
पागल
हो, आपके ऊपर क्यों लिखूंगा, सरिता जी |
क्यों,
क्या अब हम उपन्यास की नायिका के भी लायक नहीं रहे |
नहीं,
ऐसी बात नहीं है |
तो कैसी बात है ?
शांतनु को जबाव नहीं सूझा तो सरिता हंसने लगी,
फिर बोली- “वह तेज-तर्रार शांतनु कहाँ गया?’
अब
क्या कहूं, सरिता जी |
ये ‘सरिता
जी’ क्या होता है | अरे, क्या इतने औपचारिक होगये हैं अब हम | फिर मुस्कुराकर
पूछने लगी- मेरी बहस व तर्क का स्तर तुम्हारे बराबर आया ?
बहुत
ऊपर हुज़ूर, शांतनु ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्पण की मुद्रा में उत्तर दिया |
ठीक,
अब स्वीकार करो और कहो कि ये उपन्यास मैंने तेरे ऊपर ही लिखा है सरू |
चलो
स्वीकार किया, हाँ सच है |
नहीं,
पूरा वाक्य कहो |
तुम्हारे पतिदेव सुनकर नाराज़ होगये तो|
अब मार खाने का इरादा है क्या ! जाऊं, पूछ कर
आऊँ, सुरेश से ?
अच्छा माफ़ करो बावा, कान पकड़ता हूँ |
तो कहो
|
हाँ
सच है ये उपन्यास तेरे ऊपर ही है, सरू |
या
हमारे ऊपर ?
एक
ही बात है, शांतनु ने कहा |
अच्छा
बताओ, क्या तुम इसीलिये इतने औपचारिक होते जारहे हो कि मैंने तुम्हें नहीं सुरेश
को चुना|
नहीं
भाई |
अच्छा
बताओ, क्या तुम्हें बुरा नहीं लगा था |
इसका
क्या जबाव हो सकता है, सरिता !...और क्या तुम जानती नहीं हो? शांतनु ने प्रतिप्रश्न किया,
और अब क्यों पूछ रही हो? .........
क्यों न पूछा कि क्यों मेरे आंसू निकले |
तेरे कूचे से होकर जब बेआबरू निकले |
अच्छा ये नहीं पूछोगे कि मैंने सुरेश को क्यों चुना | सरिता कहने लगी |
“वेवकूफी की बात को क्या पूछना |”
वाह
! क्या बात है, क्या उत्तर है, यही तो...यही तो.... मैं चाहती हूँ कि वही पुराना
वाला शांतनु दिखाई दे |
मैं
तो वही हूँ, शांतनु बोला |
हाँ,
हाँ ..परन्तु मेरे सामने तुम शांत व गंभीर क्यों हो जाते हो ?
मेरा
नाम ही शांतनु है |
हाँ
ठीक, परन्तु मुझे वही तेज-तर्रार, हर बात पर तर्क-वितर्क करता हुआ शांतनु चाहिए
अन्यथा मुझे दुःख होगा, मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगी| क्या तुम चाहते हो
कि सरू सदा आत्मग्लानि में जीती रहे | सरिता बोलती गयी |
नहीं,
यह नहीं होना चाहिए | शांतनु ने कहा तो सरिता कहने लगी ..अच्छा तो कहो कि मेरे
सामने या पीछे, कभी भी तुम नाखुश नहीं
रहोगे, सदा खुश-खुश रहोगे |
‘अच्छा..अच्छा..’
शांतनु हंसने लगा ---
दर्द देकर वो कहें आंसू बहाते क्यों हो |
वो न समझेंगे अश्क पीने की क्या जरूरत है |
हंसी
सुनकर, अन्य दोस्तों को छोड़कर सुरेश दोनों के नज़दीक आते हुए बोला,’ क्या गुप-चुप हंसी
की बातें हो रही हैं, पुरानी मुलाकातें, हमें भी बताओ” ----- शांतनु ने कहा ....
मुफलिसी की दास्ताँ हैं क्या कहें हम, क्या बताएं ,
दास्ताँ तो आपकी है दोस्त, हम क्या
सुनाएँ |
ये बात, सुरेश बोला, लो झेलो------
इक बोझ को ठेलकर, मेरे ऊपर,
वो कहते हैं कि दोस्ती निभाई
है |
ये किस जन्म का वैर निभाया है
तूने,
या हमने ही दुश्मन से दोस्ती सजाई
है |
अच्छा
तो अब हम बोझ हुए, सरिता बोली |
मैंने
नहीं कहा, शान्तनु जल्दी से बोला |
अबे,
लदा मेरे ऊपर है, उठा पाया नहीं, तू कैसे कहेगा |
अच्छा
सुनो, सरिता अचानक बोली, देखो, शांतनु ने मेरे लिए उपन्यास लिखा है..’तेरे नाम’
उसकी नायिका मैं हूँ |
और
बेचारा कर ही क्या सकता है अब’, सुरेश ने कहा तो दोनों हंसने लगे |
चलो-चलो
डिनर लग गया है, सरिता जाते हुए बोली |
शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014
''चल बबाल कटा !'' -लघु कथा
''और बता सरला क्या हाल-चाल हैं तेरे ? बहुत दिन में दिखाई दी .''घर की चौखट पर कड़ी विमला ने सामने सड़क से गुजरती सरला से ये पूछा तो वो ठिठक कर रुक गयी और बोली- ठीक हूँ जीजी ...आप बताओ बहुत दुबली लग रही हो !'' सरला के समीप आते ही विमला उसके कंधें पर हाथ रखते हुए बोली -'' मेरा क्या ..अब उम्र ही ऐसी है ..कोई न कोई रोग लगा ही रहता है ..अरे हाँ तेरी बहू तो पेट से थी ना ...कौन सा महीना चल रहा है अब ?'' विमला के इस सवाल पर सरला उसके और करीब आकर इधर-उधर नज़रे घुमाते हुए उसके कान के पास आकर हौले से बुदबुदाई - ''जीजी उसका गरभ तो गिर गया ..सीढ़ियों से रपट गयी थी ..छठा महीना चल रहा था ...अब जाकर सम्भली है उसकी तबियत ..मैंने तो उसे मायके भेज दिया था ..यहाँ कौन तीमारदारी करता ...दो दिन पहले ही आई है ..वो तो भगवान् का शुक्र रहा कि पेट में लौंडिया थी लौंडा होता तो जुलम ही हो जाता !'' विमला सरला की इस बात पर तपाक से बोली -'' यूँ ही तो कह हैं सब भगवान् जो करता है अच्छा ही करता है ...चल बबाल कटा !''
शिखा कौशिक 'नूतन'
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
लघु कथा ... चींटियाँ बहुत होगईं हैं..... डा श्याम गुप्त
चींटियाँ बहुत होगईं हैं
अरुणा जी अध्ययन कक्ष में प्रवेश करते
हुए कहने लगीं, आजकल न जाने क्यों चींटियाँ बहुत होगईं हैं| सारे घर में हर जगह
झुण्ड में घूमती हुईं दिखाई देतीं हैं | पहले तो प्रायः मीठा फ़ैलने, छिटकने पर या
मीठे के वर्तन, पैकेट, डब्बे आदि में ही दिखाई देतीं थीं परन्तु बड़े आश्चर्य की
बात है कि अब तो नमकीन पर, आटे में, दाल-चावल, रोटियाँ, घी-तेल सभी में होने लगी
हैं | कैसा कलियुग आगया है |
मैंने कहा सुनिए ...बचपन में मैंने एक
चींटी नाम से कविता लिखी थी वह यूं थी......
नमकीन क्यों नहीं खातीं
क्या बात है ये हे चींटी | .......और अभी कुछ महीने पहले यूं लिखा
है....
चींटी के बिल डालते आटा,
मिलता नहीं राह में कोई |
सुनकर वे हंसने लगीं, बात को कहाँ से कहाँ खींच
लेजाते | फिर बोलीं, ’ बात तो सही है, पहले जगह-जगह पुरुष, नारियां, वृद्धजन आदि
प्रतिदिन चींटी के बिल में आटा, कुत्ते-गाय को रोटी आदि देते हुए दिखाई देते थे,
अब तो नहीं दिखाई देते | अतः बेचारी क्या करें ...’बुभुक्षितम किं न करोति पापं’....जो
कुछ भी जहां दिख जाता है एकत्र करने लग जाती हैं | जब मनुष्य स्वयं ही संग्रह में
लिप्त है तो वे क्या करें | इस युग में जिसे देखो वही धन–संग्रह के साथ हर वस्तु
के संग्रह में लगा है चार गैस-सिलेंडर,
पेट्रोल, मिट्टी का तेल, खाद्य-सामग्री, सब्जी-फल से भरा फ्रिज, जैसे कल ये सब
समाप्त होने वाला है | तो कौन चींटियों को आटा डालने जाए | मिठाई तो अब लोग फ्रिज
में रखने लगे हैं|’
सचमुच यही बात है, मैंने कहा,’ गायों व अन्य पशुओं के साथ भी तो यही होरहा
है | पहले हमने गायों को कभी मल-मूत्र-मैला आदि में लिपटा कागज़-कपड़ा आदि खाते नहीं
देखा, परन्तु आजकल वे सब खा रही हैं, और पोलीथीन की थैली में लिपटा पोलीपैक कूड़ा
खाकर काल का ग्रास बन रही हैं, घोर कलियुग में, क्यों?...क्योंकि गाय पालने वाले
सिर्फ दूध दुह कर उन्हें छोड़ देते हैं कहीं से भी कुछ भी खाने के लिए ..मुफ्त में
काम चल जाय | उन्हें दूध बेचने से, कमाई से फुर्सत कहाँ, गायों आदि को मैदानों,
चरागाहों में चराने कौन लेजाय| खली, बिनौला, चना-दाल, हरी-हरी घास कौन खिलाये|’
चरागाह, तालाब, जंगल आदि भी अब कहाँ रह गए हैं, बिल्डिंगों के जंगल में बदल
गए हैं|’ अरुणा जी कहने लगीं, ‘हाँ सरमा
के पुत्र, सारमेय-सुतों के अवश्य वारे-न्यारे हैं, वो भी विदेशी नस्ल वालों के |
देशी तो गलियों में मरियल से घूमते रहते है, कूड़े के ढेर से पेट भरते |’
रविवार, 16 फ़रवरी 2014
अंतर -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'