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मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

इज़्ज़त

होटल की लिफ़्ट ऊपर से आकर रूकी तो अंदर से एक एक करके सभी निकल कर चले गए और मैं इत्मीनान से उसमें दाखि़ल हो गया। मेरे पीछे पीछे एक लड़की भी लिफ़्ट में दाखि़ल हो गई। उसने मिनी स्कर्ट से भी छोटा कुछ पहन रखा था और टॉप के नाम पर जो कुछ पहन रखा था, वह स्किन कलर में था। यह पता करना बड़ा मुश्किल था कि वह कुछ छिपाना चाहती है या सब कुछ दिखाना चाहती है।
सार्वजनिक जगहों पर नंगा घूमना क़ानूनी तौर पर प्रतिबंधित है। शायद इसलिए उसने क़ानून के सम्मान के लिए ही कपड़े पहन रखे हैं। मुझ पर बदहवासी तारी हो गई। लिफ़्ट का बटन दबाने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने अपना हाथ रोक लिया। उसने अपनी मंज़िल का बटन दबाकर मेरी तरफ़ देखा। वह मेरे चेहरे का बग़ौर मुआयना कर रही थी। 
ए.सी. के बावुजूद मेरे माथे पर पसीने के क़तरे नुमूदार हो रहे थे। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा साफ़ किया तो उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैरने लगी।
उसकी मंज़िल आने में अभी कुछ वक्त और था। उसने वक्तगुज़ारी के लिए अपना पर्स खोलकर कुछ तलाश किया। इस तलाश में हर बार वह कोई न कोई चीज़ हाथ में लेकर बाहर निकालती। जिनकी बनावट देखकर और उनके इस्तेमाल की कल्पना करके ही मेरी धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। इस तलाश में उसने अपने काम की सारी चीज़ें एक एक करके मुझे दिखा दीं। शायद यही उसका मक़सद था। पर्स बंद करके उसने एक बार फिर मुझे मुस्कुरा कर देखा। मैं समझ गया कि वह मेरी हालत से लुत्फ़अन्दोज़ हो रही है। कभी कभी लम्हे कैसे सदियां बन जाते हैं, इसका अंदाज़ा मुझे आज हो रहा था।
उसकी मंज़िल पर लिफ़्ट रूकी तो मैं भी उसके पीछे पीछे ही लिफ़्ट से निकल आया। उसने बड़ी अदा के साथ अपने बाल समेटे और खुलकर एक क़हक़हा लगाया। मुझे अभी 5 मंज़िल ऊपर जाना था। मैं सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ गया। सीढ़िया लिफ़्ट के मुक़ाबले सेफ़ हैं। मैं बूढ़ा हूं, दिल का मरीज़ हूं। सीढ़िया चढ़ना मेरे लिए जानलेवा हो सकता है लेकिन फिर भी इज़्ज़त बचाने का यही एक तरीक़ा मुझे नज़र आया।
वह मुझे सीढ़ियों पर चढ़ते देखकर और ज़्यादा ज़ोर से हंसने लगी। मैं तेज़ तेज़ क़दम उठाने लगा ताकि उसकी नज़र के दायरे से जल्दी से जल्दी निकल जाऊं। अचानक मुझे अपनी चेतना डूबती हुई सी लगी। पता नहीं अब कभी आंख खुले या नहीं लेकिन मेरी इज़्ज़त बच गई थी। मुझे ख़ुशी थी कि मैं अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और घरवालों की नज़र में शर्मिन्दा होने से बच गया था। 
...
हिन्दी ब्लॉगर शिखा कौशिक जी की लघुकथा ‘पुरूष हुए शर्मिन्दा’ पढ़कर हमें भी एक लघुकथा लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है जो एक दूसरा पहलू भी सामने लाती है। उसे इसी ब्लॉग पर पेश किया जाएगा। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में कितने रंग-बिरंगे व्यक्ति रहते हैं और यह कि न सभी पुरूष एक जैसे हैं और न ही सारी औरतें एक जैसी हो सकती हैं।

6 टिप्‍पणियां:

  1. सही है दूसरा पहलू भी .....गलत स्त्री-पुरुषों के हेतु ही तो हैं ये कहानियां....
    ---अगर आप बहक भी जाते तो भी तेजपाल नहीं बन पाते....

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  2. सीढ़ी कोने में खड़ी, इधर बड़ी सी लिफ्ट |
    लिफ्ट लिफ्ट देती नहीं, सीढ़ी की स्क्रिप्ट |

    सीढ़ी की स्क्रिप्ट, कमर में हाथ डालते |
    चूमाचाटी होय, तनिक एहसास पालते |

    किन्तु लगे ना दोष, तरुण की कैसी पीढ़ी |
    फँसता तेज अधेड़, छोड़ देता ज्यों सीढ़ी ||

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  3. सहीं कहां आपने हमेशा पुरूष ही गलत नहीं होता औरत भी गलत हो सकती हैं...

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