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रविवार, 19 मई 2013

.टाइल्स ...लघु कथा ......डा श्याम गुप्त



                                      
                 रसोई घर में प्रवेश करते ही मुझे अपनी बेटी राशिका की बरबस याद आजाती है और साथ में उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा | जाने कितने शो रूम्स डिजायनें देखकर चुनाव किया था बिटिया ने इन विशेष एब्सोल्यूट डिजायन वाली टाइल्स का | मकान बनाने की प्रक्रिया में किचिन, बाथरूम, फर्श आदि हेतु टाइल्स आदि का कितने धैर्य,लगन, रूचि, ममत्व अधिकार से चयन किया था राशिका ने, जिन्हें त्याग कर एक दिन उसे जाना ही था सभी की भांति|
            मैं सोचने लगा कैसा त्याग, तप, साधना, धैर्य, धर्म, जिजीविषा कर्म पूर्ण जीवन है नारी का| और उस सबके साथ युक्त होता है...उन सब में अनुप्राणित होता है, प्रेम..... जाने कितने रूपों में, जो जड़ को चेतन बनाने में सक्षम है | क्या यह काम्यता के साथ साथ अकाम्य जीवन-भाव नहीं है |
                   विचार आगे बढ़ता है ... बचपन से युवावस्था तक के अति-महत्वपूर्ण काल में माता-पिता के घर में जाने कितनी काम्यता, ममत्व, मनोयोग, रूचि, धैर्य से सभी की सेवा, सहयोग से एक-एक वस्तु के चुनाव, सजावट से. सर्जनात्मकता से घरोंदों का निर्माण करती है नारी | और फिर सब कुछ त्यागकर, जिसका उसे सदा अहसास भी रहता ही है, एक पल में चल देती है एक अनजान डगर पर, एक अन्य भाव के प्रेम की चाह विश्वास में, परन्तु वैश्विक परमार्थ, नव-सृजन एवं प्रकृति प्रवाह हेतु | त्याज्य जानकर भी ममत्व से यथोचित कर्म ही तो निष्काम्यता, तप, साधना है, विराग है, योग है | और यदि इसी चाह में उसे छला जाता है, उसके विश्वास, आशा आस्था को छला जाता है, तो कितनी आत्म-व्यथा, उत्प्रीडन पीड़ा को आत्मसात करना होता होगा, इसकी कल्पना कहाँ की जा सकती है | 
           स्मृति में राष्ट्रकवि और उनकी पंक्तियाँ तैरने लगती हैं....
                                 अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
                                   आँचल में है दूध और आँखों में पानी |”
                 मैं सोचने लगा कि गुप्तजी ने एसा क्यों कहा होगा, शायद समकालीन अशिक्षा, अत्याचार, उत्प्रीणन, प्रतारणा, अनाचरण  अंधविश्वासों का दंश झेलती नारी के परिप्रेक्ष्य में जो बहुत कुछ आज भी है |  परन्तु मैं सोचता हूँ कि इसे यदि हम इस प्रकार सोचें कि ...माँ के ममत्व दुग्धामृत रूपी संसार की सृजन, पालन तारतम्यता, क्रमिकता की शक्ति स्वयं में समाये हुए, बचपन युवावस्था की प्रेमिल कर्ममयी स्मृतियों रूपी एवं भविष्य की आशा, आकांक्षा, कल्पना रूपी नीर को नयनों में बसाए हुए...सब कुछ प्राप्त करके फिर उसे त्याग करके चल देने वाला नारी जीवन क्या कर्ममय तप साधना योग पूर्ण जीवन नहीं है |  पति गृह जाकर फिर वही ईंट-ईंट जुटा कर नवीन घरोंदा तैयार करती है और पुनः एक दिन वह सब भी कुछ छोड़कर बेटे को, एक अन्य स्त्री ..पुत्र-वधू को सोंप देती है | यही नारी का जीवन-क्रम है| यद्यपि यह संस्कारित-क्रम है...समाज द्वारा सृजित और चलता वह सृष्टि-क्रम की भाँति है...परन्तु नारी के प्रेम से अनुप्राणित तप, त्याग साधना के बल पर ही तो |
            विचार क्रम आगे बढ़ता है ..क्या नारी जीवन सच्चे अर्थों में ईशोपनिषद में दिए हुए भारतीयता के मूल मन्त्र  तेन त्यक्तेन भुंजीथा एवं " विद्या सह अविद्या यस्तत वेदोभय सह " अथवा " सम्भूतिं असम्भूतिं यस्तद्वेदोभय सह " को चरितार्थ नहीं करता ...संसार, अर्थ, काम, ममत्व के साथ-साथ नैष्काम्य कर्म ..तप और त्याग का जीवन | तो फिर हम क्यों नहीं जयशंकरप्रसाद के उद्घोष..”नारी तुम केवल श्रृद्धा हो का  स्मरण कर उसे श्रृद्धा-रूप स्वीकार करके उसे मानव के, संसार के स्वयं उसके अपने जीवन के सुन्दर समतल में पीयूष श्रोत के समान बहने में, उसकी तप-साधना में सहयोगी होते हैं | क्यों  अत्याचार, अनाचार दुष्कर्मों द्वारा उसके जीवन की बाधा बनते हैं, बन रहे हैं.... आखिर हम कब  ....... |
        अरे ! इतनी देर से बेसिन के सामने खड़े हुए दीवार को क्या घूरे जारहे हो | क्या सोच रहे हो .... अचानक श्रीमती जी आवाज से मैं चौंक पड़ता हूँ, फिर मुस्कुराकर पूछता हूँ ..
       ये टाइल्स राशिका सिलेक्ट कर के लाई थी ?
       ओह! तो यह बात है, बेटी की याद आरही है | कह देते हैं कि दोनों कुछ दिन के लिए यहाँ आकर रह जायं|


4 टिप्‍पणियां:

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  2. रचना के भाव मन को छू गए...सच में नारी जीवन एक तपस्या से कम नहीं है...आँखें नम कर गयी..

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  3. धन्यवाद शिखा जी एवाबं कैलाश जी ....

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