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शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

शूर्पणखा काव्य उपन्यास....सर्ग -२..अरण्य पथ..... डा श्याम गुप्त.....

शूर्पणखा काव्य उपन्यास....सर्ग -२..अरण्य पथ.....  

  पिछले सर्ग एक चित्रकूट में जयंत प्रसंग के पश्चात राम ने चित्रकूट छोड़कर आगे जाने का विचार बनाया ....प्रस्तुत है सर्ग -2  अरण्य पथ - इस सर्ग में राम सीता लक्ष्मण..अत्रि-अनुसूया के आश्रम में पहुंचते हैं जहां महासती अनुसूया सीता को स्त्री के कर्तव्य व पति-सेवा धर्म से परिचित कराती हैं साथ ही पुरुष के कर्तव्य व गुणों का भी वर्णन करती हैं।  कुल छन्द-- २३........



भाग १-- छंद १ से १३ तक.....
१-
करके फ़िर प्रवेश वन प्रान्तर,
सीता अनुज सहित रघुनन्दन ;
पहुंचे अत्रिमुनि१ के आश्रम ।
किया प्रणाम राम लक्षमण ने,
सादर मुनि निज़ कंठ लगाये;
स्वय्ं ब्रह्म आये इस द्वारे ॥
२-
सीता ने की मुदित-मगन मन,
चरण वंदना अत्रि प्रिया की ।
सीता, तुम हो अति बडभागी-
जो पाये तुम पति रघुनन्दन ।
सौभाग्य अखंड रहे तेरा,
अनुसूया२ ने आशीष दिये ॥
३-
यद्यपि तुम ज्ञानी, महासती,
कर्तव्य और अधिकार मेरा-
पर यह कहता है, हे सीता! 
नारि-धर्म, पतिव्रत कर्मों का,
तुमको कुछ तो उपदेश करूं;
पद गहे सिया ने हो विभोर ॥
४-
मां तुम स्वयं रूप ममता का,
तीनों देवों३ की  माता हो ।
तेरी चरण वंदना को तो,
स्वयं सतीत्व-भाव अकुलाता ।
महासती अनुसूया४ से, यदि-
उपदेश मिले जीवन सुधरे ॥
५-
पहनाये दिव्य बसन-भूषण५,
रहते जो नूतन, अमल सदा।
आज्ञा है मत संकोच करो,
दृढ़ता से बोलीं अनुसूया | 
सीता फिर मना न कर पायीं , 
प्रभु माया को किसने जाना ||६
६-
भ्राता मातु पिता सब सीता,
सच्चे मित्र सदा हितकारी |
पति अपना सब कुछ दे देता,
अमित मित्र,सुन जनकदुलारी |
नारि, न नारि कहाए जग में,
पति सेवा से रहे विरत जो ||
७-
है दाम्पत्य मधुर जीवन-सुख,
पर विपत्ति के घन भी छाते  |
वे दम्पति ही सुघर-सफल हैं,
जो विपदा में साथ निभाते |
परख विपत्ति काल में होती-
धीरज धर्म मित्र नारी की ||
८-
रोगी हो, या वृद्ध,मूढ़मति,
निर्धन, क्रोधी, अंगक्षीण या;
ऐसे पति का भी सुन सीता,
करे नहीं अपमान कभी भी |
यदि पति माना है मन से तो,
सेवा करना नित्य धर्म है ||
९-
मनसा वाचा और कर्मणा ,
पति सेवा रत रहना ही तो;
नारि-धर्म की परिभाषा है |
एक दूजे का साथ निभाना-
ही तो मन की अभिलाषा है ;
एक धर्म व्रत नियम यही है ||
१०-
आगम-निगम शास्त्र सब कहते,
पतिव्रत धर्म चार-विधि होते |
उत्तम,मध्यम,नीच,अधम सब,
भाव विचार कर्म व्रत मन से |
पति संग के व्यवहार-भाव नित,
जैसे भी जो नारि निभाये ||
११-
सपने में भी मन में जिसके,
अन्य पुरुष का भाव न आये;
उत्तम सो पतिव्रता कहाए |
मध्यम पतिव्रता वह नारी,
भ्राता पुत्र व पिता भाव से;
देखे सदा पर-पुरुष को जो ||
१२-
मन में धर्म समझ, कुल लाजा,
जो नारि पतिव्रता बनी रहें ;
वह भाव पतिव्रता है निकृष्ट |
भय कारण या अवसर न मिले,
इसलिए बनीं जो भली रहें;
वह नारी का अधम भाव है ||
१३-
पति से अन्य, पर-पुरुष के संग,
घूमें फिरें करें  रति, गति,व्यति |
क्षण भर के सुख-भ्रम के कारण,
जन्मान्तर के दुःख-पाप सहें |
युग युग तक वे नारी, सीता!
भोगें अति रौरव नर्क-भाव ||   

  {कुंजिका - १= अत्रि मुनि जो आदि-सप्तर्षियों में प्रमुख स्थान रखते हैं , जिनका आश्रम चित्रकूट के गहन वन की सीमा पर था | ये ऋग्वेद के रचनाकार  ऋषि हैं | अत्रि के पुत्र आत्रेय प्रथम भिषजकचिकित्सक (फिजीसियन ) थे जिन्होंने  विश्व के प्रथम चिकित्सा ग्रन्थ, चरक संहिता  की मूल रचना की थी जिसे बाद में आचार्य चरक ने  संहिता रूप दिया |; २= अनुसूया -अत्रि की पत्नी ; ३ = अनुसोया के पतिव्रत-शक्ति के कारण परिक्षा लेने आये तीनों देव -ब्रह्मा, विष्णु, महेश --छोटे बालक के रूप में पुत्र  बन कर गोद में खेलने लगे.जिन्हें फिर तीनों देवियों सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती ने अनुसूया से क्षमा मांग कर स्वतंत्र कराया था ... तीनों के वरदान से महान तपस्वी "दत्तात्रेय ' का जन्म हुआ |; ४=  भारतीय इतिहास की  ५ महासतियों में प्रमुख --ये सतियाँ हैं -अनुसूया, द्रौपदी, सावित्री, सुलोचना ( मेघनाद की पत्नी ) व मंदोदरी (रावण की पत्नी )|
५=  कभी न गंदे व नष्ट होने वाले वस्त्र | ६= वास्तव में सीता जी को संकोच था की वे वन में ये बसन  व आभूषण कैसे पहनें, परन्तु अनुसूया को आगत का कुछ कुछ ज्ञान था अतः उन्होंने समझा-बुझा कर पहनादिये जो  में सीता-हरण के समय राम के लिए मार्ग-निर्धारण में काम आये |
सर्ग-२-भाग दो......छंद १४ से २३ तक....


          पिछले सर्ग -2  अरण्य पथ  भाग-१ -- में सती अनुसूया द्वारा सीताजी को पतिव्रत धर्म के बारे में बताया , आगे वे पुरुष व समाज के कर्तव्य ,धर्म के बारे में भी वर्णन करती हैं की यदि समाज व पुरुष नारी का उचित सम्मान करता है तो वह उसके लिए सब कुछ करती है .....प्रस्तुत है ..सर्ग-२, अरण्य-पथ , भाग दो...छंद १४ से २३ तक...
१४ -
विना परिश्रम किये लाभ हित,
नारी ले पर-पुरुष सहारा |
है प्रतिकूल  ही धर्म भाव के,
उनके साथ सदा छल होता |
उत्तम पतिव्रत धर्म निभाकर,
नारि, परम गति पाय सहज ही ||
१५-
नारि-पुरुष में अंतर१  तो है,
सभी समझते, सदा रहेगा |
दो-नर या दो  नारी जग में,
एक सामान भला कब होते ?
भेद बना है, बना रहेगा,
भेदभाव व्यवहार नहीं हो ||
१६-
वैदेही तुम तो तनया हो,
जनक, महाज्ञानी-विदेह२की |
कौशल-महाराज्य महारानी,
पूर्ण-पुरुष रघुवर की पत्नी |
तुमको क्या पति धर्म बताना,
जग हित भाव३ मैं पुनः बखाना ||
१७-
धर्म नीति विज्ञान कर्म-शुभ,
पुनः पुनः स्मरण, श्रवण और;
ध्यान-मनन करने से बढ़ती,
मन में श्रृद्धा, कर्म भावना |
शुभ कर्मों का धर्म भाव का,
ज्ञान भाव जग बढ़ता जाता ||
१८-
सारे गुण से युक्त राम हैं ,
जो आदर्श पति में होते |
मान और सम्मान नारि का ,
पुरुष-वर्ग का धर्म है सदा|
जो पत्नी का मान रखे नहिं,
वो जग में क्यों पति कहलाये ||
१९-
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन , नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ?
२०-
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२१-
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता४ ||
२२-
माया, प्रकृति उसी जीव के,
पालन, पोषण, भोग व धारण;
के निमित्त ही गयी रचाई |
किन्तु ,जीव-अपभाव रूप में,
निजी स्वार्थ या दंभ भाव से;
करे नहीं अपमान प्रकृति का ||
२३-
तभी प्रकृति माया या नारी,
करती है सम्मान पुरुष का |
पालन पोषण औ धारण हित,
भोग्या भी वह बन जाती है|
सब कुछ देती बनी धरित्री,
शक्ति नारि माँ साथी पत्नी ||   ---क्रमश: सर्ग तीन...प्रतिज्ञा......

{कुंजिका--  १= स्त्री-पुरुष में संरचनात्मक व भावनात्मक अंतर प्रकृतिगत है अतः उनके कार्य ,गुण व कर्तव्यों आदि में भी स्वाभाविक अंतर रहेगा - स्त्री-पुरुष समता का अर्थ -समानता नहीं है अपितु यथा-योग्य कर्म व व्यबहार होता है, अत: स्त्रियों से इस तर्क पर किसी प्रकार का व्यवहार गत  भेद-भाव नहीं होना चाहिये... |;  २= जनक को विदेह कहाजाता है क्योंकि वे चक्रवर्ती सम्राट व अथाह धन-संपदा-श्री -ज्ञान से संपन्न होने पर भी निर्लिप्त भाव से रहते थे , देहाभिमान से शून्य ...वि.. देह , इसीलिये उनकी पुत्री सीता को भी वैदेही कहा जाता है |;  ३= विभिन्न इतिहास, शास्त्र, धर्म ग्रन्थ,आदि को अच्छी प्रकार जानते हुए भी पुनः पुनः पारायण इसलिए किया जाता है ताकि समाज व व्यक्ति, राष्ट्र से  विस्मृत न होजाय | सभी प्रकार के  ज्ञान के लिए यही सत्य व आवश्यक है | इसीलिये हमें स्वयं जानते हुए भी यदि कोइ अन्य गुरुजन, ज्ञानी आदि वही तथ्य बताता है तो सुन लेना चाहिए| कथा, संत समागम, कीर्तन, तीर्थस्थान-यात्रा आदि का यही महत्त्व है |; ४= वह ब्रह्म स्वयं ही माया व समस्त माया जग का उत्पादन करता है और फिर वह स्वयं ही जीव/आत्मा रूप में जीवधारी के अंतर में उपस्थित होता है ,जन्म लेता है, कर्म बंधन में बंधता है  और माया के इशारों पर माया-संसार में कर्म रूपी नाच, नाचता है |  यह भारतीय दर्शन का आत्मा व परमात्मा का अद्वैत भाव है |

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