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सोमवार, 14 मई 2012

"बच्चा बिकाऊ है"


पिछले दिनों अचानक
एक खबर है आई,
सरकारी अस्पताल को
किसी ने मंडी है बनाई |

चर्चा थी वहां तो
सब कुछ ही कमाऊ है,
गुपचुप तरीके से वहां
"एक बच्चा बिकाऊ है" |

सुनकर ये खबर
मैं सन्न-सा हुआ,
पर तह तक जाके
मन खिन्न-सा हुआ |


दो दिन का बच्चा एक
बिकने है वाला,
पुलिस-प्रशासन कहाँ कोई
रोकने है वाला !

अस्पताल वालों ने ही
ये बाजार है सजाई,
बीस हजार की बस
कीमत है लगाई |

बहुतों ने अपना दावा
बस ठोक दिया है,
कईयों ने अग्रिम राशी तक
बस फेंक दिया है |

पता किया तो जाना खबर
नकली नहीं असली है,
बच्चे को जानने वाली माँ
"घुमने वाली एक पगली" है |

इस एक समस्या ने मन में
सवाल कई खड़े किये,
मन में दबे कई बातों को
अचानक इसने बड़े किये |

लावारिश पगली का माँ बनना
मन कहाँ हर्षाता है,
हमारे ही "भद्र समाज" का
एक कुरूप चेहरा दर्शाता है |

बच्चे पर बोली लगना
भी तो एक बवाल है,
पेशेवर लोगों के धंधे पर
ज्वलंत एक सवाल है |

सभ्य कहलाते मनुष्यों का
ये भी एक रूप है,
अच्छा दिखावा करने वालों का,
भीतरी कितना कुरूप है |

सरकार से लेके आम जन तक का
इस घटना में साझेदारी है,
किसी न किसी रूप में सही
हम सबकी इसमें हिस्सेदारी है |

समस्या का नहीं हल होगा
कभी हड़ताल या अनशन से,
हर मर्ज़ से हम निजात पाएंगे
बस सिर्फ आत्म-जागरण से |

6 टिप्‍पणियां:

  1. पगली है तो क्या हुआ, मांस देख कामांध ।
    अपने तीर बुलाय के, तीर साधता सान्ध |
    तीर साधता सान्ध, बांधता जंजीरों से |
    घायल तन मन प्राण, करे जालिम तीरों से |
    गर्भवती हो जाय, ढूँढ़ता कुत्ता अगली |
    दुष्ट मस्त निर्द्वन्द, करे उसका क्या पगली ||

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  2. अस्पताल वालों ने ही
    ये मंडी है सजाई,
    बीस हजार की बस
    कीमत है लगाई |

    बहुत खूब श्याम जी

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  3. रचना चौंकाती हैं... झिंझोड़ती है...

    हर मर्ज़ से हम निजात पाएंगे
    बस सिर्फ आत्म-जागरण से |

    सही कहा...

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  4. १४ और १५ मई की दोनों पोस्ट बहुत बढ़िया ,समस्या प्रधान हैं .बढ़िया लगा इस मार्मिक प्रस्तुति को बांचकर .अपने ही समाज का सुरूप चेहरा है यह ,न तेरा है न मेरा ,सांझा है .

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