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बुधवार, 11 जनवरी 2012

मैं रुक गयी होती



जब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
सर पर इल्ज़ाम और
अश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
तेरे गुरुर से पनपी
इल्तज़ा ले गयी
मुझे तुझसे इतना दूर
उस वक़्त जो तुने
नज़रें मिलायी होती तो
मैं रुक गयी होती |
खफा थी मैं तुझसे
या तू ज़ुदा था मुझसे
उन खार भरी राह में
तुने रोका होता तो शायद
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता
मुझे अपना बनाया होता
दो घड़ी रुक बातें
जो की होती तुमने तो
ठहर जाते ये कदम और
मैं रुक गयी होती |
_------ "दीप्ति शर्मा "





10 टिप्‍पणियां:

  1. मैं रुक गयी होती




    जब मैं चली थी तो
    तुने रोका नहीं वरना
    मैं रुक गयी होती |
    यादें साथ थी और
    कुछ बातें याद थी
    ख़ुशबू जो आयी होती
    तेरे पास आने की तो
    मैं रुक गयी होती |
    bhut khoob

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति

    शुक्रवारीय चर्चा मंच पर

    charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. यादें साथ थी और
    कुछ बातें याद थी

    बहुत बढ़िया लिखा है |

    जवाब देंहटाएं
  5. सर पर इल्ज़ाम और
    अश्कों का ज़खीरा ले
    मुझे जाना तो पड़ा
    बेकसूर समझा होता तो
    मैं रुक गयी होती |
    बस हाथ बढाया होता
    मुझे अपना बनाया होता
    दो घड़ी रुक बातें
    जो की होती तुमने तो
    ठहर जाते ये कदम और
    मैं रुक गयी होती |

    kisi ko rokne ke liye itna hi to kafi hota hai....khoobsoorat..

    जवाब देंहटाएं