जब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
सर पर इल्ज़ाम और
अश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
तेरे गुरुर से पनपी
इल्तज़ा ले गयी
मुझे तुझसे इतना दूर
उस वक़्त जो तुने
नज़रें मिलायी होती तो
मैं रुक गयी होती |
खफा थी मैं तुझसे
या तू ज़ुदा था मुझसे
उन खार भरी राह में
तुने रोका होता तो शायद
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता
मुझे अपना बनाया होता
दो घड़ी रुक बातें
जो की होती तुमने तो
ठहर जाते ये कदम और
मैं रुक गयी होती |
_------ "दीप्ति शर्मा "
बहुत खूब!!!
जवाब देंहटाएंkalamdaan.blogspot.com
मैं रुक गयी होती
जवाब देंहटाएंजब मैं चली थी तो
तुने रोका नहीं वरना
मैं रुक गयी होती |
यादें साथ थी और
कुछ बातें याद थी
ख़ुशबू जो आयी होती
तेरे पास आने की तो
मैं रुक गयी होती |
bhut khoob
बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रवारीय चर्चा मंच पर
charchamanch.blogspot.com
यादें साथ थी और
जवाब देंहटाएंकुछ बातें याद थी
बहुत बढ़िया लिखा है |
sundar
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसटीक और सार्थक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंbehtreen prastuti
जवाब देंहटाएंसर पर इल्ज़ाम और
जवाब देंहटाएंअश्कों का ज़खीरा ले
मुझे जाना तो पड़ा
बेकसूर समझा होता तो
मैं रुक गयी होती |
बस हाथ बढाया होता
मुझे अपना बनाया होता
दो घड़ी रुक बातें
जो की होती तुमने तो
ठहर जाते ये कदम और
मैं रुक गयी होती |
kisi ko rokne ke liye itna hi to kafi hota hai....khoobsoorat..