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गुरुवार, 12 जनवरी 2012

कन्यादान



मतलब क्या है इस कन्यादान का ?
क्या ये सीढ़ी भर है नए जीवन निर्माण का ?

या सचमुच दान ही इसका अर्थ है,
या समाज में हो रहा अर्थ का अनर्थ है ?

दान तो होता है एक भौतिक सामान का,
कन्या जीवन्त मूल है इस सृष्टि महान का ।

नौ मास तक माँ ने जिसके लिए पीड़ा उठाई,
एक झटते में इस दान से वो हुई पराई ?

नाजो-मुहब्बत से बाप ने जिसे वर्षों पाला,
क्या एक रीत ने उसे खुद से अलग कर डाला ?

जिस घर में वह अब तक सिद्दत से खेली,
हुई पराई क्योंकि उसकी उठ गई डोली ?

क्या करुँ मन में हजम होती नही ये बात,
यह प्रश्न ऐसे छाया जैसे छाती काली रात |

कौन कहता है कन्याएँ नहीं हमारा वंश है,
वह भी सबकुछ है क्यो.कि वह भी हमारा ही अंश है ।

कन्या 'दान' करने के लिए नहीं है कोई वस्तु,
परायापन भी नहीं है संगत, ज्यों कह दिया एवमस्तु ।

9 टिप्‍पणियां:

  1. कौन कहता है कन्याएँ नहीं हमारा वंश है,
    वह भी सबकुछ है क्यो.कि वह भी हमारा ही अंश है ।
    bahut hi jordar tarike se apne samaj ke uper apni bat rakhi hai .........
    bahut hi umda kriti .......

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  2. कन्या 'दान' करने के लिए नहीं है कोई वस्तु,
    परायापन भी नहीं है संगत, ज्यों कह दिया एवमस्तु ।

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  3. "दान तो होता है एक भौतिक सामान का,.."

    --किसने यह कहा कि दान भौतिक वस्तु का होता है.....क्या ग्यान-दान, क्षमादान, विद्यादान,समयदान, योगदान... नहीं सुने ...क्या ये भौतिक वस्तुएं हैं? यह भ्रमात्मक बातें हैं अर्धग्यानी..अग्यानी जनों की....
    ---हां निश्चय ही..
    "कन्या जीवन्त मूल है इस सृष्टि महान का" --कन्यादान का निश्चय ही अर्थ यह है कि हमारी नाज़ों से पाली-पोसी सन्तान ...जो हमारी अपनी है..को हम आपको दे रहे हैं..ताकि संसार-चक्र में वह भी अपना योगदान करे...परन्तु आपको भी दान के लिये सक्षम/ योग्य सिद्ध होना पडेगा...अतः कन्यादान शब्द में कोई बुराई नहीं है...यह व्यर्थ के अनावश्यक तर्क व बातें मूल बुराई से समाज का ध्यान हटाती हैं..

    "नौ मास तक माँ ने जिसके लिए पीड़ा उठाई,
    एक झटते में इस दान से वो हुई पराई ?"
    ----हां इसे ही वास्तव में त्याग व गीता का निष्काम योग कहते हैं...अपनी प्रियतम- वस्तु, विचार, रिश्ते, भाव का ही त्याग व दान किया जाता है... परमार्थ हित..समाज हित..

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  4. ---वह सब जो मार्मिक होता है ...सत्य पर आधारित व सामाजिक हितार्थ नही होता.....
    --एक अपराधी को म्रत्यु-दन्ड भी मार्मिक ही होता है...

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  6. आदरणीय श्याम गुप्त जी | मेरी इस रचना का मूल उद्देश्य सिर्फ यह बताना है की कन्यादान भले ही एक बहुत ही महत्वपूर्ण रीत है और हिन्दू धर्म के अनुसार आवश्यक भी है | मुझे इस चीज़ से कोई शिकायत नहीं है | मेरे कहने का अर्थ सिर्फ यही है की कन्यादान कर देने का अर्थ यह नई है की कन्या अब से बिलकुल पराई हो गई | वो अब भी उतनी ही अपनी है जितना पहले थी | हाँ ये भी सच है की उसके ऊपर एक नए परिवार का और बहुत से लोगों का दायित्व आ गया है जो कि अब उसके अपने है | और उसे पूर्णतः उस दायित्व का निर्वाह भी करना |
    जब हम भौतिक वस्तुवों का दान करते है तो वो हमारे पास से दुसरे के पास चला जाता है |पर जिन दान का आपने जिक्र किया (ग्यान-दान, क्षमादान, विद्यादान,समयदान, योगदान... ) इन सबमे दान के बावजूद वो चीज़ हमारे पास ही रहती है |

    आप बड़े हैं, आदरणीय हैं और हमसे कही ज्यादा ज्ञानी हैं | मैं आपको कुछ सीखा या बताने कि ध्रिष्ट्ता नहीं कर सकता |
    मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि कन्यादान दान होने के बाद भी हम कन्या से बिलकुल पराये नहीं हो सकते | जैसा कि ज्ञान-दान करने के बाद भी ज्ञान हमारे पास ही होता है |

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  7. ----बिलकुल सत्य कहा...
    ----कन्यादान के पश्चात भी कन्या सदैव पिता के परिवार का महत्वपूर्ण हिस्सा रहती है..हर पर्व, प्रसन्नता के मौके व रीति-रिवाजों में उसका महत्वपूर्ण दायित्व होता है, उसका भौतिक शरीर तो मानवता/समाज की एक परम्परा के निर्वाह हे्तु दूर होजाता है परन्तु मन अन्त तक नहीं...

    ---निश्चय ही मां-बाप को पुत्र से अधिक पुत्री की सदैव चिन्ता लगी रहती है ..और भाई को बहन की कि अनजान लोगों में वह उचित सम्मान पा रही है या नही...
    --जिन परिवारों में बहुओं को मायके से एक दम कट होने को कहा जाता है उन्हें समाज में सदैव ही अच्छी द्रष्टि से नहीं देखा जाता...

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