बढ़ रही हैं
गगन छू रही हैं
लोहा ले रही हैं
पुरुष वर्चस्व से
कल्पना
कपोल कल्पना
कोरी कल्पना
मात्र
सत्य
स्थापित
स्तम्भ के समान प्रतिष्ठित
मात्र बस ये
विवशता कुछ न कहने की
दुर्बलता अधीन बने रहने की
हिम्मत सभी दुःख सहने की
कटिबद्धता मात्र आंसू बहने की .
न बोल सकती बात मन की है यहाँ बढ़कर
न खोल सकती है आँख अपनी खुद की इच्छा पर
अकेले न वह रह सकती अकेले आ ना जा सकती
खड़ी है आज भी देखो पैर होकर बैसाखी पर .
सब सभ्यता की बेड़ियाँ पैरों में नारी के
सब भावनाओं के पत्थर ह्रदय पर नारी के
मर्यादा की दीवारें सदा नारी को ही घेरें
बलि पर चढ़ते हैं केवल यहाँ सपने हर नारी के .
कुशलता से करे सब काम
कमाये हर जगह वह नाम
भले ही खास भले ही आम
लगे पर सिर पर ये इल्ज़ाम .
कमज़ोर है हर बोझ को तू सह नहीं सकती
दिमाग में पुरुषों से कम समझ तू कुछ नहीं सकती
तेरे सिर इज्ज़त की दौलत वारी है खुद इस सृष्टि ने
तुझे आज़ाद रहने की इज़ाज़त मिल नहीं सकती .
सहे हर ज़ुल्म पुरुषों का क्या कोई बोझ है बढ़कर
करे है राज़ दुनिया पर क्यूं शक करते हो बुद्धि पर
नकेल कसके जो रखे वासना पर नर अपनी
ज़रुरत क्या पड़ी बंधन की उसकी आज़ादी पर ?
मगर ये हो नहीं सकता
पुरुष बंध रो नहीं सकता
गुलामी का कड़ा फंदा
नहीं नारी से हट सकता
नहीं दिल पत्थर का करके
यहाँ नारी है रह सकती
बहाने को महज आंसू
पुरुष को तज नहीं सकती
कुचल देती है सपनो को
वो अपने पैरों के नीचे
गुलामी नारी की नियति
कभी न मिल सकती मुक्ति .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-09-2017) को "सूखी मंजुल माला क्यों" (चर्चा अंक 2724) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही लाजवाब.....
जवाब देंहटाएंसब कुछ करके भी गुलाम है नारी
अपनी ही प्रेम भावना से है वह हारी
हार है स्वीकार पर दुख दे नहीं सकती
आँसू देख दूसरे के सुखी वह रह नहीं सकती
सटीक व सार्थक अभिव्यक्ति हेतु हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंनारी तब भी भारी है । माफ करना मैं असहमत हूँ । मानव सभ्यता जब शैशव काल में थी तब भी और आज विज्ञान के इस आधुनिक युग में भी । नारी ने अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों से इस धरा को बहूत दिया है । नारी के बिना इस धरा पर हर काम अधुरा है ।
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