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सोमवार, 4 सितंबर 2017

दोहरापन (कहानी )

रूचि अभी अभी कॉलेज से आयी ही थी | कि सामने मेज पर पड़ी मिठाइयाँ व शरबत के खाली गिलासो को देखकर माँ से पूछ बैठी की माँ कोई मेहमान आया था क्या ?
"हाँ आया था न तेरे ससुराल वाले आये थे "
माँ जवाब  दे पाती उससे पहले ही छोटे भाई ने कुछ चिढ़ाने के अंदाज़ में कहा |
रूचि को सुनकर विश्वास ही  नहीं हुआ उसे लगा उसके छोटे भाई ने मजाक किया है क्योकि वो तो अक्सर ऐसे मजाक कर के उसे चिढ़ाया करता था |
तो उसने भी पलटकर उसे चिढ़ाने के लिए कह दिया |
"अरे मेरे ससुराल वाले आये थे तो उन्हें रोक लेता मै भी मिल लेती उनसे "
और फिर रूचि हसँते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी |
अभी कमरे में पहुँचकर बैड पर बैठी ही थी कि उसकी नजर कमरे में रखे शगुन के समान पर पड़ी | वो समान को देखने के लिए उठी ही थी की माँ कमरे में मिठाई का डिब्बा लेकर आ गई |
माँ - रूचि ले बेटा मुँह तो मीठा कर ले
पर रूचि तो अब भी समान की तरफ ही देख रही थी |
माँ - अरे वो तेरे शगुन का समान है वो लोग आज ही बात पक्की करने के साथ साथ शगुन का समान भी देकर गए |
बेटा बड़ा ही अच्छा रिश्ता है लड़का भी अच्छा है और पैसे वाला है अपना खुद का बड़ा घर है और इकलौता लड़का है अपने माँ बाप का | अरे वैसे भी आजकल कहा मिलता है ऐसा रिश्ता |
 माँ बोले जा रही थी | और  रूचि बस बेसुध सी बैठी अपने ही अन्तर्मन में खोई हुई अपने ही सवालो में उलझ सी गई थी |

कि वो ऐसे अचानक शादी कैसे कर सकती है ? अभी तो पढाई भी पूरी  नहीं हुई उसकी ?अभी अभी तो सपने देखना शुरू किया था | अभी अभी तो ज़िन्दगी का मतलब समझ आया था |  अभी तो बचपन से बाहर आयी है | शादी कैसे ?
और अभी कुछ समय पहले ही तो जब कॉलेज में प्रशांत ने उसे प्रपोज लिया था और उसने तुरंत घर आकर माँ को बताया था |
और फिर माँ ने  कितना समझाया था उसे की बेटा अभी तू छोटी है सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दे | और उसने प्रशांत को पसंद करने की बात माँ को बतानी चाही तो माँ ने फिर समझाया की तू इस काबिल नहीं है अभी की अपनी ज़िंदगी के इतने अहम फैसले ले सके |
पर आज वही माँ उसकी शादी करा रही है | तो क्या आज उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि  उनकी बेटी अभी छोटी है और अपनी ज़िंदगी के अहम फैसले लेने लायक नहीं है  या उसकी पढाई अभी ज्यादा जरुरी है |


या शायद हमारे समाज में लड़किया कभी इतनी बड़ी और समझदार हो ही नहीं पाती कि अपनी ज़िंदगी के अहम् फैसले ले पाए | वो या तो छोटी नासमझ नादान होती है या फिर शादी के लायक |



9 टिप्‍पणियां:

  1. समाज की सोच को उजागर करती रचना हेतु बधाई स्वीकार करें.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज बुधवार (06-09-2017) को
    तरु-शाखा कमजोर, पर, गुरु-पर, पर है नाज; चर्चामंच 2719
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. समय के साथ सामाजिक परिवर्तन ज़रूरी है किन्तु सामाजिक मूल्यों पर बहस लाज़मी होती है।
    समाज के दोहरेपन पर सवाल खड़े करती लघुकथा विचारोत्तेजक है। बधाई।
    आपकी यह प्रस्तुति "पाँच लिंकों का आनंद" ( http;//halchalwith5links.blogspot.in) में गुरूवार 07 -09 -2017 को प्रकाशनार्थ अंक में सम्मिलित की गयी है। चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं ,आइयेगा ज़रूर। सधन्यवाद।

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  4. बेटियों के प्रति दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन होना जरूरी है ! बेहतरीन प्रस्तुति ।

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  5. इस कहानी के लेखक से संम्पर्क करना चाहता हूँ। ramaganeshshyam@gmail.com
    मुझे इंतजार है आपके मेल 📮 का 🙏

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  6. आदरणीया सोनाली भाटिया जी,
    शीर्षक को सार्थकता प्रदान करती सुन्दर लघुकथा। यह लघुकथा के ंंमानकों पर खरी उतरती है। आप ंंमें साहित्य सृजन की सामर्थ्य, क्षमता और रुचि भी है। आप ंंनिरन्तर लिखती रहें। कलमकार की कलम रुकनी ंंनहीं चाहिये।ंंनिखार स्वयं आता जायेगा। इसमें वर्तनी को सुधार लेने की जरूरत है।
    आप अगर लघुकथाओं के शिल्प ंंमें रुचि रखती है, तो आप "open books live ंंनामक साइट से जुडिए। वहां साहित्यमर्मज्ञों द्वारा आपको सुझाव और दिशा ंंनिर्देश ंंमिलते रहेन्गें। वहां आदरणीय डा योगराज प्रभाकर द्वारा "लघुकथा के शिल्प" पर विस्तृत जानकारी दी गायी है। उसे अवश्य पढें।
    आप ंंमेरा ब्लॉग marmagyanet.blogspot.com पर जाकर शुद्ध साहित्यिक रचनाओं को पढें और वहां अपने विचारों से ंंमुझे अवगत करायें।

    मेरी लिखी दूसरी पुस्तक उपन्यास के रूप में "डिवाइडर पर कॉलेज जंक्शन" के नाम से हिंद युग्म से प्रकाशित हो चुकी है।
    पुस्तक के कथानक के बारे में:
    यह छोटे शहर में स्थापित ऐसे डिग्री कॉलेज की कहानी है जिसके पास से रेलवे लाइन गुजरती है। इसलिए विद्यार्थी अपने पीरियड के विषय से अधिक उस ओर से गुजरने वाली ट्रेन के समय की जानकारी रखते हैं।

    कॉलेज की पढाई करते - करते
    समय की गलियों से यूँ गुजरना।
    कुछ तोंद वाले सर, कुछ दुबले -पतले सर,
    कुछ चप्प्लों में सर, कुछ जूतों में सर।

    जैसे कॉलेज की दीवार से सटे
    रेलवे लाईन पर ट्रेनों का गुजरना।
    इसी बीच पनपता प्यार,
    विज्ञान और अर्थशास्त्र के बीच।
    छात्र परिषद के चुनाव की घोषणा होते ही
    बाहरी तत्वों के घुसपैठ से,
    कॉलेज के शान्त वातावरण का
    पुल - सा कम्पित होना, थर्राना।

    ये सब कुछ और इससे भी अधिक बहुत कुछ...
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