डराई जाती है औरत जन्म से मौत तक ,
दाग दामन पे न लग जाये तेरे औरत !
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है दुनिया मर्दों की और तू कमजोर है ,
तेरी देह के शिकारी घूमते हर ओर हैं ,
यूँ तो महफूज़ नहीं चारदीवारी में भी तू ,
हुई आज़ाद तो फिर तेरी नहीं खैर है ,
इसी दहशत में नहीं लांघती औरत चौखट !
दाग दामन पे न लग जाये तेरे औरत !
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झेला वनवास सिया ने लांघकर रेखा ,
हुआ अन्याय मगर मौन हो सबने देखा ,
नहीं मतलब किसी को पाक थी नापाक थी ,
भुगतती मर्द के दुष्कर्मों का औरत लेखा ,
कभी जलकर कभी कटकर बचाई है अस्मत !
दाग दामन पे न लग जाये तेरे औरत !
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कटी जुबान अगर अपना हक़ मांग लिया ,
सवाल पूछने को बेहयाई नाम दिया ,
मिला के आँख जो कर ली खिलाफत एक दिन ,
'चढ़ा दो फांसी पे 'मर्द ने फरमान दिया ,
मुकद्दर बन गया औरत का है बुर्क़ा-घूंघट !
दाग दामन पे न लग जाये तेरे औरत !
शिखा कौशिक 'नूतन'
जवाब देंहटाएं--- अच्छी कविता....
अब तो औरत है आज़ाद कहाँ बंधन हैं,
स्वच्छंद घूमे पहन निक्कर कहाँ बंधन है |
हुए दिन वो हवा अग्नि-परीक्षा के यारो-
कहाँ जारहे हैं हम करें बैठ के कुछ मंथन है ||
agree with shyam gupt ji .very nice shikha ji sach se aap bhi alag nahi hain .
जवाब देंहटाएंभुगतती मर्द के दुष्कर्मों का औरत लेखा ,
जवाब देंहटाएंकभी जलकर कभी कटकर बचाई है अस्मत !
दाग दामन पे न लग जाये तेरे औरत !
बहुत सुंदर..
गुप्ता जी ने जो कहा वो अपवादात्मक है.
असल मे ज़्यादातर नारियों के हालात
जैसे थे वैसे ही है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें