''आपने सीता के विवाह हेतु स्वयंवर का मार्ग क्यूँ चुना ? क्या यह उचित न होता कि आप स्वयं सीता के लिए सर्वश्रेष्ठ वर का चयन करते ?मैं इस तथ्य से भी भली-भांति परिचित हूँ कि सीता को जन्म मैंने नहीं दिया पर पालन-पोषण तो हम दोनों ने ही किया है .आपने सीता को इतना स्नेह दिया है कि अगर उसके स्वयं के पिता भी उसका पालन-पोषण करते तो उतना स्नेह न दे पाते . सीता भी तो स्वयं को जानकी ,जनकनंदनी कहे जाने पर हर्षित हो उठती है . आपने स्वयंवर के साथ ''वीर्य-शुल्क'' के रूप में 'शिव-धनुष'' पर प्रत्यञ्चा चढाने की शर्त रखते समय किंचित भी न सोचा यदि अखिल-विश्व का कोई भी वीर इस शुल्क को न चुका पाया तो क्या हमारी पुत्री जीवन भर कुँवारी ही रहेगी ? स्वामी ! प्रथम निर्दयी तो वे माता-पिता हैं जिन्होंने एक कन्या के जन्म लेते ही उसे हमारे राज्य की धरती में दबाकर मार डालने का कुत्सित प्रयास किया और द्वितीय निर्दयी माता-पिता हम कहलायेंगे जिन्होंने सर्वगुण-संपन्न पुत्री के सौभाग्य पर अपनी शर्तों के कारण प्रश्न-चिन्ह लगा दिया !पुत्री सीता मुख से कुछ कहे या न कहे पर निश्चित रूप से अपने भविष्य को लेकर वो अवश्य ही सशंकित होगी .'' ये कहते-कहते महारानी सुनयना का गला भर आया .राजा जनक ने मंद मुस्कान के साथ महारानी सुनयना की ओर देखते हुए कहा -'' महारानी आप व्यर्थ चिंतित हो रही हैं .यदि आज से पूर्व आप ये चिंताएं मेरे समक्ष प्रस्तुत करती तो हो सकता था मैं अपने निर्णय की वैधता पर विचार करता किन्तु आज मिथिला में महर्षि विश्वामित्र के शुभागमन के साथ मेरी समस्त चिंताओं पर विराम लग गया है क्योंकि उनके साथ अयोध्या के नरेश महाराज दशरथ के दो सुपुत्र भी पधारे हैं .उन वीर धनुर्धारियों ने दण्डक-वन को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराकर यह प्रमाणित कर दिया है कि पृथ्वी अभी वीरों से खाली नहीं है .दोनों में ज्येष्ठ भ्राता ; जिनका नाम श्री राम है ,ने हमारे कुलगुरु शतानंद जी की माता देवी अहिल्या के चरणों में निज शीश धरकर भाव-शून्य हुई देवी अहिल्या की देह में नव-जीवन-रस का संचार किया है .सुनयना तुम्ही बताओं क्या किसी अन्य पुरुष ने ये साहस किया कि बलात्कार की शिकार महिला को इतना सम्मान प्रदान करे जिससे उस पीड़ित नारी को ये विश्वास दिलाया जा सके कि तुम पहले के समान ही गरिमामयी हो ,तुम पवित्र हो ,तुमने कोई अपराध नहीं किया ..अपराधी तो इंद्र जैसा कापुरुष है जिसने छल-कपट का सहारा लेकर गुरु-पत्नी पर अत्याचार किया .निश्चित रूप से श्री राम से बढ़कर कोई भी नारी-सम्मान का ऐसा उदहारण प्रस्तुत नहीं कर सकता है .मुझे विश्वास है कि श्री राम जैसा धीर-वीर-गम्भीर ही ''शिव-धनुष'' पर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर हमारी सुपुत्री सीता की जयमाला का सच्चा अधिकारी होगा .रही बात मेरे द्वारा स्वयं सीता के वर-चयन का तो मत भूलो हम उसी समाज का हिस्सा हैं जो सर्वप्रथम सीता के जन्म के सम्बन्ध में प्रश्न उठाता.अपनी पुत्री के सम्बन्ध में कुछ भी अप्रिय न तो मैं सुन सकता हूँ और न ही तुम . आज जब स्वयंवर में राजागण स्वयं अपना बल दिखाकर वीर्य-शुल्क चुकाने का प्रयास करेंगें तब वे केवल जनक की पुत्री सीता को पाकर सम्मान की अनुभूति करेंगें न कि सीता को अज्ञात कुल की पुत्री दिखाकर नीचा दिखाने का प्रयास '' राजा जनक के इन अमृत-वचनों ने सुनयना के पुत्री-स्नेह में तपते प्राणों को ठंडक प्रदान की .
महारानी सुनयना ने सीता की सखियों को बुलाकर सीता को गौरी-पूजन हेतु ले जाने का आदेश दिया .सीता भी नगर में हो रही दोनों राजकुमारों की चर्चा से अनभिज्ञ न थी .सुंदरता के साथ साथ दोनों राजकुमारों के गुणों की भी खूब चर्चा हो रही थी पर सीता को जिस बात ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया था वह थी ''श्री राम द्वारा देवी अहिल्या का उद्धार ''.सीता ने माता गौरी से हाथ जोड़कर यही वर माँगा कि -'' नारी ह्रदय की व्यथा को मिटाने वाले , नारी -प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने वाले महापुरुष ही मेरे स्वामी हो .ऐसा वर दीजिये हे माता गौरी कि पिता का प्रण भी पूरा हो जाये और मेरा मनोरथ भी !'' .सीता की गौरी-पूजा पूर्ण होते ही सखियाँ और अनुजा -उर्मिला ,मांडवी ,श्रुतिकीर्ति उन्हें दोनों राजकुमारों की एक झलक दिखाने हेतु पास की ही एक पुष्प-वाटिका में ले गयी . लता की ओट से श्री राम को निहारती सीता ने जब श्री राम के दर्शन किये तब अनायास ही श्री राम की दृष्टि भी सौंदर्य-मूर्ति सीता पर जाकर टिक गयी .सीता के उर में भावों की तरंगें उमड़ने लगी .उन्होंने सोचा -'' माता अहिल्या जैसी छली गयी -शोषित नारी को उसके निर्दोष होने का अहसास कराने वाले महामानव के दर्शन कर आज मैं धन्य हो गयी !'' दूसरी ओर श्री राम के ह्रदय में भी भावों की सुन्दर झांकियां सजने लगी .सीता के प्रथम दर्शन से पूर्व ही महर्षि विश्वामित्र द्वारा बताये जाने के कारण राजकुमारी सीता के विषय में श्री राम सब कुछ जान चुके थे .उनके मन में विचार आया -'' फूल सी प्यारी कन्या को कैसे निर्दयी माता-पिता धरती में दबाकर अपने हाथ से कन्या-हत्या जैसा पाप कर डालते हैं .आज राजा जनक द्वारा पालित -पोषित ,कुल का गौरव इस देवी के दर्शन यदि इसे जन्म देने वाले माता-पिता करें तब उन्हें यह अहसास होगा कि उन्होंने कितना बड़ा दुष्कर्म किया था पुत्री को त्यागकर ..'' ऐसे ही विचारों में खोये , एकटक एक-दूसरे को लखाते राम को लक्ष्मण व् सीता को उनकी सखियाँ वापस गंतव्य को ले गए .
अगले दिवस राजा जनक के दरबार में जब सीता -स्वयंवर की घोषणा हुई तब वीर्य-शुल्क को जानकर अनेक बलशाली राजाओं ने प्रयास किया पर वे 'शिव-धनुष '' को हिला तक नहीं पाये . महर्षि विश्वामित्र के आदेश पर श्री राम ने ''शिव-धनुष '' के समीप जाकर उसे प्रणाम किया और फिर खेल ही खेल में उसे उठाकर उसपर प्रत्यञ्चा चढाने का प्रयास करने लगे पर वह धनुष दो टुकड़ों में टूट गया .धनुष-भंग होते ही स्वयंवर की शर्त पूर्ण हो गयी और सीता ने श्री राम को वरमाला पहना दी .
विधि-विधान से विवाह के पश्चात् जब सीता ने अयोध्या में प्रवेश किया तब चहुँ ओर आनंद ही आनंद छा गया किन्तु वह समय भी आया जब पिता द्वारा दिए गए वचन के पालन हेतु श्री राम चौदह-वर्ष के लिए वनवास हेतु चल दिए . सिया व् लक्ष्मण भी आग्रह कर उनका अनुसरण करते हुए वनवास को गए .वनवास के अंतिम चरण में राक्षस रावण ने श्री राम से बदला लेने हेतु उनकी भार्या सीता को छल से पंचवटी से हर लिया और राम-रावण युद्ध की नींव रख दी .एक पतिव्रता नारी के सम्मान को वापस दिलाने के लिए इससे ज्यादा घनघोर युद्ध किसी पति ने नहीं लड़ा होगा .रावण-वध के पश्चात् श्री राम द्वारा अग्नि-परीक्षा देने की आज्ञा को सीता ने इसीलिए स्वीकार किया क्योंकि वे जानती थी कि ऐसा श्रीराम मात्र जनसमुदाय को संतुष्ट करने के लिए कर रहे हैं अन्यथा अपहृत स्त्री के लिए वे अपने प्राणों व् अनुज के प्राणों को घोर-संकट में कदापि न डालते ..अग्नि-परीक्षा में सफल सीता को श्री राम ने वाम-भाग में पूर्व की ही भांति स्थान दिया और अयोध्या लौटने पर महारानी-पद पर आसीन किया किन्तु पितृ-सत्ता का खेल बाकी था .महारानी सीता के विरुद्ध अयोध्या की प्रजा में अनर्गल प्रलाप शुरू हो चुका था .श्री राम ने गुप्त-भ्रमण के द्वारा यथार्थ स्थिति को जाना .श्री राम का ह्रदय क्षोभ से फटने लगा .उनके मन में आया - ''यदि अग्नि-परीक्षा के पश्चात् भी सीता की पवित्रता पर विश्वास न किया जाये तब मेरे जैसा नारी-सम्मान का हितैषी क्या कर सकता है .मैं आज तक अग्नि-परीक्षा को ह्रदय से न्यायोचित नहीं ठहरा पाया हूँ .सीता की सच्चरित्रता ने ही मुझे एकपत्नीव्रत हेतु प्रेरित किया था पर प्रजा ..प्रजा तो पितृ-सत्ता के ढोल पर नृत्य करने में मग्न है .डराकर-धमकाकर सीता के प्रति मैं प्रजा के ह्रदय में विश्वास ,श्रृद्धा ,आस्था पैदा नहीं कर सकता किन्तु सीता को कोई दुर्वचन कहे ये भी मेरे लिए असहनीय है ..तो क्या राम पितृ-सत्ता के सामने घुटने टेक दे !'' विचारों के जंगल में भटकते श्री राम की दुविधा का कारण सीता ने अपनी एक गुप्तचरी प्रजा में भेजकर जब जाना तब अवध-त्याग का निर्णय लेने में उन्हें एक क्षण का समय न लगा .श्री राम से वनवास पर जाने की आज्ञा लेते समय सीता ने दृढ स्वर में कहा -'' सीता कभी भी अपने स्वामी को हारते हुए नहीं देख सकती .आप एक नारी के सम्मान के लिए ह्रदय में महायुद्ध से जूझ रहें हैं और प्रजा इसे आपकी एक नारी के प्रति आसक्ति का नाम दे रही है ..ये सह पाना मेरे लिए असम्भव है फिर आज मैं केवल एक पत्नी ही नहीं एक भावी-माता के कर्तव्यों से भी बंध गयी हूँ .आप जानते ही हैं मेरे गर्भ में आपका अंश पल रहा है .मैं नहीं चाहती कोई हमारी संतान पर किसी भी प्रकार का कोई आक्षेप लगाये ..मुझे आज्ञा दें स्वामी !'' सीता के तेवर देखकर श्रीराम ने बस इतना कहा -आज मुझसे मेरी आत्मा विदा ले रही है ..अब अवध में केवल मेरा शरीर ही रह जायेगा !'' सीता के वनवास के वर्षों बाद प्रजा के कुछ नागरिकों को अपनी भूल का अहसास हुआ और श्री राम पर सीता को वापस लाकर महारानी पद पर पुनर्प्रतिष्ठित करने का दबाव प्रजा ने बनाया ..महर्षि वाल्मीकि के साथ पधारी सीता ने श्रीराम द्वारा शुद्धि की शपथ लेने की आज्ञा दिए जाने पर हाथ जोड़ते हुए निवेदन किया -'' श्री राम की अर्द्धांगिनी सीता ने कभी अपनी पवित्रता को प्रमाणित करने हेतु परीक्षा नहीं दी क्योंकि ये नारी के नारीत्व को अपमानित करने जैसा है .अग्नि-परीक्षा देने का उद्देश्य मात्र इतना था कि संसार देख ले कि एक स्त्री यदि अग्नि में प्रवेश करके भी अपनी पवित्रता को प्रमाणित कर दे तब भी पुरुषप्रधान समाज पुनः-पुनः उसकी परीक्षा लेने के लिए षड्यंत्र रचता रहता है ...जब तक स्त्री है तब तक उसकी पवित्रता के प्रति संदेह भी होता रहेगा ..'' ये कहते -कहते रामप्रिया की ह्रदय-भूमि फट पड़ी और समस्त नारी-जाति की भावनाओं -पीड़ाओं के साथ सीता उसमे समां गयी !
शिखा कौशिक 'नूतन'
यह सत्यकथा है .....
जवाब देंहटाएं