कृष्ण व राधा...कृ...कृष..कृषि...रा ...रयि ..राधा ...राम...सीता .....व्युत्पत्ति व निष्पत्ति ....डा श्याम गुप्त..
कृष्ण---
कर्म शब्द
कृष धातु से निकला है कृष धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है।
शिव–नारद संवाद में शिव
का कथन ---‘कृष्ण शब्द में कृष
शब्द का अर्थ समस्त और 'न' का अर्थ मैं...आत्मा है .इसीलिये वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं| कृष का अर्थ आड़े’.. और न.. का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष हैं |"....अर्थात कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न (न:=मैं, हम...नाम )
का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके
आदि पुरुष हैं...कृष्ण हैं| क्रिष्ट..क्लिष्ट ...टेड़े..त्रिभंगी...कृष्ण
की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है...
कृष धातु का अर्थ है विलेखण......आचार्यगण कहते हैं..... ‘संसिद्धि: फल संपत्ति:’ अर्थात फल के रूप में
परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं
हलोत्कीरणं ”
अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... |
अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... |
'संस्कृति' शब्द भी ….'कृष्टि' शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की 'कृष' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है-
'खेती करना',
संवर्धन करना, बोना आदि होता है। सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन की मिट्टी
को जोतना और बोना। …..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय "कल्चर"
शब्द ( ( कृष्टि -àकल्ट à कल्चर ) भी वही अर्थ देता है।
कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार की अपेक्षा होती है। अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज के
परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है... | 'कृष' धातु में 'ण' प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण' बना है जिसका अर्थ
आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है/
गवामप ब्रजं वृधि
कृणुश्व राधो अद्रिव:
नहि त्वा रोदसी
उभे ऋघायमाणमिन्वतः |
कृष्ण = क्र या कृ =
करना, कार्य=कर्म …..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता , साधना....राधा....
---ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि
...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई ....
राधा ......
राधा का चरित्र-वर्णन श्रीमद
भागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....वेद-उपनिषद में भी
राधा का उल्लेख नहीं है.... राधा-कृष्ण का
सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है|
व्याकरण की प्रक्रिया के अनुसार राध धातु से राधा और कृष
धातु से कृष्ण नाम व्युत्पन्न
हुये| राध धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )
हुये| राध धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )
--- सर्व प्रथम
ऋग्वेद के मंडल १ में .राधस शब्द का प्रयोग
हुआ है ....जिसे वैभव के अर्थ में
प्रयोग किया गया है......
--
ऋग्वेद के २
में .३-४-५ म सुराधा
...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में
प्रयुक्त होता रहा है...सभी देवों से
उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के
उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|
----ऋग्वेद-५/५२/४०९४-- में राधो
व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के
लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा..
“ यमुनामयादि
श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”....अर्थात यमुना के
किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों
का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
पूर्व वैदिक काल में समस्त
संसिद्धियों का स्वामी, देवता इंद्र था जिसका तत्पश्चात..परवर्ती काल में उपेन्द्र
फिर विष्णु एवं कृष्ण के रूप में आविर्भाव
हुआ ..
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा
त्वस्य गिर्वण :(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० )
---- यह सोमरस तुम्हारे ओज के लिए अभिसुत किया गया है ...हे राधानं पते ( समस्त संसिद्धि, समृद्धि, धनों, आराधना, विविध शोधों के देवता स्वामी ) पर्वतों को नष्ट करने वाले (इंद्र) देव..आप इसे ग्रहण करें |
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७).
---जो समस्त विभक्तियों ...सारे जग मे ह्रदय में स्थित, सर्वज्ञाता, दृष्टा सभी प्रकार के धनों व विविध शोधों ..संसिद्धियों के स्वामी हैं एवं सूर्य की भाँति समस्त सृष्टि के रक्षक हैं उनका हम आवाहन करते हैं|
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : --- -(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद ) राधा...जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।
---- यह सोमरस तुम्हारे ओज के लिए अभिसुत किया गया है ...हे राधानं पते ( समस्त संसिद्धि, समृद्धि, धनों, आराधना, विविध शोधों के देवता स्वामी ) पर्वतों को नष्ट करने वाले (इंद्र) देव..आप इसे ग्रहण करें |
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७).
---जो समस्त विभक्तियों ...सारे जग मे ह्रदय में स्थित, सर्वज्ञाता, दृष्टा सभी प्रकार के धनों व विविध शोधों ..संसिद्धियों के स्वामी हैं एवं सूर्य की भाँति समस्त सृष्टि के रक्षक हैं उनका हम आवाहन करते हैं|
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : --- -(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद ) राधा...जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं।
पुराणों में श्री
राधे :
यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण )
राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मतस्य पुराण १३. ३७ )
राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
अन्याअ अराधितो (अन्याययराधितो )नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम )
---------इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं )संग ले गए. (इसीलिये वह आराधिका ...राधिका है)
यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण )
राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मतस्य पुराण १३. ३७ )
राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
अन्याअ अराधितो (अन्याययराधितो )नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम )
---------इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं )संग ले गए. (इसीलिये वह आराधिका ...राधिका है)
हरे कृष्ण हरे
कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// ----महामंत्र का अर्थ
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// ----महामंत्र का अर्थ
नारद पंचरात्र में
राधा का एक नाम हरा या हारा भी वर्णित है...वर्णित है |जो गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में प्रचलित
है|
सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन है...
”स्यामक केवलं प्रपध्यये,
स्वालक च्यमं प्रपध्यये स्यामक”....
----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है|
----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है|
कृष्णस्य अर्धांगा संभूता
न तस्य सादर्सि सती,
गोलोक वासिना श्रेयं अत्र
कृष्णाज्ञाना-
अधुना अयोनि संभवा देवी मूल
प्रकृति ईश्वरी ---आदि पुराण
गोलोक वासी श्री कृष्ण की आज्ञा से भूलोक में अवतरित हुए| राधाजी किसी भी
मानव-मातृ शरीर से उत्पन्न नहीं हुईं अपितु वे, स्वयं मूल प्रकृति( मातृ शक्ति)
देवी हैं अतः अपने
अर्धांग श्री कृष्ण से उद्भूत हुईं और उनकी काया में समा गयीं |
गर्ग संहिता में कहा है....आप
गोलोक के लीलामय प्रभु-ब्रह्म हैं और राधा
आपकी लीला-शक्ति हैं| जब आप बैकुंठ के नाथ होते हैं
तो राधा, लक्ष्मी का
रूप होती हैं....जब संसार में आप रामचंद्र होते हैं तो वे जनक नंदिनी सीता का
रूप
होती हैं|
पुराण मैं कहा गया है कि ...‘वैदग्धिसार-सर्वस्व मूर्ति लीलाधिदेवता’... जो श्रीमती राधिका के साथ नित्य रमण करते हैं, वे ही.... 'राम' शब्द वाच्य कृष्ण है/
वस्तुतः ऋग्वेद , यजुर्वेद
व अथर्व वेदिक साहित्य
में ’ राधा’ शब्द
की व्युत्पत्ति =रयि (संसार, ऐश्वर्य,श्री,वैभव)
+धा ( धारक,धारण
करने वालीशक्ति) से
हुई है; अतः
जब उपनिषद
व संहिताओं
के ज्ञान-मार्गीकाल
में ....सृष्टि
के
कर्ता का
ब्रह्म व
पुरुष, परमात्मा, रूप
वर्णन हुआ
तो समस्त
संसार की
धारक चित-शक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी (राधा) का आविर्भाव
हुआ ....
भविष्य पुराण
में--जब वेद
को स्वयं
साक्षात नारायण
कहा तो
उनकी मूल कृतित्व----काल, कर्म, धर्म
व काम
के
अधिष्ठाता
हुए--काल रूप
कृष्ण व
उनकी सहोदरी (भगिनी-साथ-साथउदभूत) राधा परमेश्वरी.... कर्म
रूप
ब्रह्मा
व नियति (सहोदरी).... धर्म रूप-महादेव
व श्रद्धा (सहोदरी) ...एवम कामरूप-अनिरुद्ध
व उषा ।----इस
प्रकार राधा
परमात्व तत्व
कृष्ण की
चिर सहचरी , चिच्छित-शक्ति (ब्रह्म
संहिता) है।
वही परवर्ती
साहित्य में
श्री कृष्ण का
लीला-रमण व लोकिक रूप के आविर्भाव के
साथ
उनकी
साथी,
प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रज
बासिनी रूप
में जन-नेत्री।
भागवत
पुराण में-----एक अराधिता
नाम की
गोपी का
उल्लेख है, किसी
एक प्रिय
गोपी को
भगवान श्री
कृष्ण
महारास
के मध्य
में लोप
होते समय
साथ ले
गये थे ,जिसे
’मान ’ होने
पर छोडकर
अन्तर्ध्यान हुए
थे; संभवतः
यह
वही गोपी
रही होगी
जिसे
गीत-गोविन्द के
रचयिता, विद्यापति व सूरदास आदि
परवर्ती कवियों, भक्तों
ने
श्रंगार भूति
श्री कृष्ण
(पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) रूप
में कल्पित
व प्रतिष्ठित किया राधा..राधिका नाम से।
वस्तुतः
गीत गोविन्द
व भक्ति काल
के समय
स्त्रियों के
सामाज़िक (१
से १०
वीं शताब्दी)
अधिकारों
में कटौती
होचुकी थी, उनकी
स्वतंत्रता , स्वेच्छा, कामेच्छा
अदि पर
अंकुश था।
अत: राधा
का
चरित्र
महिला उत्थान
व उन्मुक्ति
के लिये
रचित हुआ। पुरुष-प्रधान
समाज में कृष्ण उनके
अपने हैं,जो
उनकी
उंगली
पर नाचते
है, स्त्रियों के
प्रति जवाब
देह हैं, नारी-उन्मुक्ति, उत्थान के
देवता हैं।
इस प्रकार
बृन्दावन-
अधीक्षिका, रसेश्वरी श्री
राधाजी का
ब्रज में , जन-जन
में, घर-घर में ,मन-मन
में, विश्व में, जगत
में प्राधान्य
हुआ
वे
मातृ-शक्ति
हैं, भगवान
श्रीकृष्ण के
साथ सदा-सर्वदा
संलग्न, उपस्थित, अभिन्न--परमात्म-अद्यात्म-शक्ति;
अतः
वे लौकिक-पत्नी
नहीं होसकतीं, उन्हें
बिछुडना ही
होता है, गोलोक
के नियमन
के लिये
।
हरे -
ब्रह्मसंहिता
के अनुसार, जो अपने रूप, माधुरी, एवम प्रेम वात्सल्य आदि से श्रीहरि के मन को भी हरण कर लेती हैं, उनश्री वृषभानु नंदिनी
श्रीमती राधिका जी का नाम ही 'हरा' है/ श्रीमती राधिका
के इस 'हरा' नाम के संबोधन में 'हरे' शब्दका प्रयोग हुआ
है/..(.हरा= हारा = विश्व की मूल आत्मा .....यथा हाराकीरी ( आत्म ह्त्या) अथवा
परमात्मा =हारा के मन की हरण कर्ता ..हरा ..)
राम -
राम -
आगम के अनुसार 'रा' शब्द के उच्चारण
से सारे पाप समूह मुख से निकल जाते हैं तथा पुनः प्रवेश न कर पाने से
'म' कार रूप कपाट से युक्त 'राम' नाम है/
सीता.... सीता का अर्थ है ... खेत में जुताई द्वारा हल से खींची हुई लकीर या रेखा या मेंड़ (विलेखित..कृषित...कृष्नित..गोलोक में परमात्मा रूप श्रीकृष्ण द्वारा अभिनंदित...आनंदित ).... गोलोक की राधा ही सीता थी...सीता ही ब्रज में राधा थी.. तभी सीताजी ने यमुना पार करते समय उन्हें प्रणाम किया |
वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है कि जब सीता जी वनवास के समय यमुना जी को पार कर रही थीं, तो जब यमुना जी को पार करते समय सीता जी ने यमुना जी की वंदना की | उन्होंने देख लिया कि ये यमुना ब्रज से आ रही हैं | वहाँ श्लोक है ...
“कालिन्दीमध्यमायाता सीता त्वेनामवंदत |
स्वस्ति देवि तरामि त्वां पारयेन्मे पतिव्रतं ||
यक्ष्ये त्वां गो सहस्रेण सुराघट शते न च |
स्वस्ति प्रत्यागते रामे पुरीमिक्ष्वाकुपालितां || “५५|१९||
सीता जी ने कहा कि हे माँ मैं तेरी हजारों गायों से सेवा करुँगी| सीता जी भी ब्रजभक्त थीं, गोलोक में राधा रूप में स्वयं ब्रजेश्वरी जो हैं |
bahut hi gyanvardhak aalekh .aabhar
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिखा जी ...
जवाब देंहटाएं